रविवार, 22 अक्तूबर 2017

कनाडा डायरी की 22वीं कड़ी



डायरी के पन्ने         
        

सुधा भार्गव

साहित्यकुंज में प्रकाशित
10.12॰2017
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/22_King.htm/


25.5.2003
किंग 

     कनाडा पहुँचने से पहले ही बेटे ने एक किंग खरीदा था। था। देखने में बड़ा सुंदर और शक्तिशाली!। जैसा नाम वैसा ही काम---–इतना मजबूत कि 10 मोटे –ताजे  भी उस पर चढ़  जाएँ तो थकने का नाम नहीं। आप बड़े असमंजस में होंगे कि यह कैसा किंग है! चलिए राज की बात बता ही दूँ। असल में यह एक किंग साइज पलंग है। यह मुझे बेहद पसंद है। इसलिए नहीं कि उसका मूल्य  डेढ़ लाख है  बल्कि इसलिए कि मोटे मोटे डबल गद्दे वाले पलंग पर मेचिंग  तकिये,लिहाफ चादर –कुल मिलाकर राजसी छ्टा  बिखरी पड़ती है ।
     चाँद का  दोस्त तुषार भी पलंग की तलाश में था । खरीद्ने से पहले उसने इस किंग से मिलना ठीक समझा और एक दिन अपनी माँ के साथ हमारे घर आन पहुंचा । वे तो उस भव्य पलंग की शान देख निहाल हो गईं और बोली-बेटा, तू तो आँख मींचकर ऐसा ही पलंग खरीद ले । कम से कम आखिरी दिनों में तो मेरे दिल की एकमात्र इच्छा पूरी हो जाए।
     “माँ इतना उतावलापन ठीक नहीं । मुझे सोचने –समझने का मौका तो दो।”
    “अरे क्या सोचना ?तेरे डैडी ने तो कभी मेरी  इच्छा के बारे में सोचा ही नहीं और तू, तू भी बस सोचता ही रह जाएगा।”
    तुषार से कुछ कहते नहीं बन रहा था। ऐसी नाजुक स्थिति से उसे बचाने के लिए मैं उसकी माँ को लेकर डाइनिंग रूम में ले गई।एकांत पाकर वे तो पूरी तरह बिखर ही पड़ीं। ऐसा लगा बहुत दिनों का दबा लावा फूटकर बाहर आना चाहता है।
   “बहन जी,रिटायरमेंट के बाद इन्होंने नया घर खरीदा और मेरी  दिली इच्छा थी कि गृह प्रवेश से पहले एक खूबसूरत पलंग खरीदकर कमरे को सजाऊँ पर तकदीर की मारी –मेरे घर में दाखिल होने से पहले ही राक्षसनुमा  पलंग ने आसान जमा लिया था । इनका कोई दोस्त उसे बेचकर अमेरिका जा रहा था और उनको वह पसंद आ गया। बोले –इसकी लकड़ी बहुत अच्छी है । बाजार खरीदने जाओ तो दुगुने दाम  में पड़ेगा।मैं इसे खरीद लेता हूँ ।  मैं मन मसोस कर रह गई।
    इस बात को तीन साल हो गए लेकिन आज भी जब तब महसूस होता है कि कोई इस पर करवटें बदल रहा है। कभी खिल्ली उड़ाने की आवाजें आती हैं—हा—हा—हमारे इस्तेमाल किए पलंग पर सो रहे हो। तुम दोयम दर्जे के हो ----दोयम दर्जे के।  हा—हा-।  
   यह आवाज मेरे कानों में शीशा सा पिघला देती है जिसकी यंत्रणा का कोई अंत नहीं। हर रात अतीत की ढेरी से एक चिंगारी निकलकर मुझे अंदर से झुलस जाती है। एक ही बात उस समय जेहन में आती है –इस पलंग को बदलना है । कभी-कभी अपने भीतर उमड़ते तूफान से विचलित हो दूसरे कमरे में सोने का उपक्रम करती हूँ लेकिन क्या सो पाती हूँ? एक बार मेरे पति ने इस चहलकदमी का कारण पूछा। समझाने पर भी मेरी अनुभूतियों की गहराई में न उतर सके।”
   भावुक दिल की भंडास निकाल कर वे कुछ शांत हुईं पर उनकी आँखें आंसुओं से लवालव थीं जो पनपते विक्षोभ को सम्हाले हुए थीं।
   “आप अपने को संभालिए। ज़िंदगी कभी -कभी ऐसे गुल खिलाती है कि उस पर हमारा वश नहीं।” मैंने उन्हें सांत्वना देने की कोशिश की।
   “क्या मेरे जैसे दोयम दर्जे के और लोग भी हैं या मेरे साथ ही ऐसा होता है।’’ आहत सी बोलीं।
“ऐसी बात नहीं,किसी के साथ भी ऐसा घट सकता है। मेरी यादों में एक किस्सा उभर कर आ रहा है। हाँ याद आया—मैंने वह  किस्सा अपनी  चाची से  सुना था। 
     वे कहा करती थीं –हमारे पड़ोस में एक लड़की लीला रहती थी। उसकी माँ के मरने के बाद पिता ने दूसरी शादी कर ली। कुछ समय बाद ही लीला की नई माँ दो बच्चों की माँ बन गई । काम के बोझ के कारण लीला की उसने पढ़ाई छुड़वादी और रात दिन उसे घर के काम में जोत दिया। मुसीबतों और कष्टों की भरमार ने उसे समय से पहले ही बड़ा कर दिया।
    छोटी बहन की शादी हो गई पर लीला की शादी माँ ने नहीं होने दी। उसकी शादी करने से मुफ्त की नौकरानी हाथ से जो निकल जाती। पर शादी के दो साल के बाद ही छोटी बहन की मृत्यु हो गई। उसके 6 मास के दूधमुंहे बच्चे को लीला सीने से चिपकाए रहती। अचानक सौतेली माँ की जीभ से कंटीली झाड़ियाँ न जाने कहाँ गायब हो गईं और उससे फूल झरने लगे। लीला के खान-पान और आराम का ध्यान रखा जाने लगा। एक दिन सुनने में आया उसकी शादी उसकी मृत बहन के पति से होने वाली है। ताकि घर का जमाई, जमाई ही बना रहे और एक बच्चे को माँ मिल जाए। यहाँ भी उसे बहन की उतरन ही मिल रही थी। यह लीला की बर्दाश्त से बाहर था। उसने उसी रात घर छोड़ दिया।”
   “लीला किस्मत वाली थी जो उसे बहन की उतरन से छुटकारा मिल गया।मेरे तो दूसरे का  इस्तेमाल किया पलंग अभी तक चिपका हुआ है। होगा एक समय जब वह किंग साइज पलंग किंग सा लगता होगा पर अब तो लुंजू –पुंजू थका- थका सा हो गया है। उस पर बैठते ही मेरी उम्र में 10 साल जुड़ जाते हैं और उसी की तरह  जीर्ण –शीर्ण थरथराता कंपायमान मेरे अंग अंग में समा जाता है।’’
    अपनी वेदना व्यक्त कर वे तो हलकापन महसूस करने लगीं पर उसका हलाहल मेरे गले से न उतर सका।

नोट-रंगबिरंगे किंग पर क्लिक करते ही आप इसे साहित्य कुंज अंतर्जाल पत्रिका में भी पढ़ सकते हैं। 
क्रमश:
    


गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

कनाडा डायरी की 21वीं कड़ी


डायरी के पन्ने 
सुधा भार्गव 
साहित्य कुंज में प्रकाशित
09॰07॰2017 
http://sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/21_tulip_utsav.htm
ट्यूलिप अंतर्रराष्ट्रीय एकता का प्रतीक 


19.5॰2003
ट्यूलिप उत्सव 

     अवनि ने वॉल माट बाजार में तंग नहीं किया , इसलिए हमारी हिम्मत बढ्ने लगी और 21 दिन की नाजुक सी बच्ची के साथ ट्यूलिप उत्सव जाने का विचार किया।
    यह उत्सव कनाडा की राजधानी ओटवा में  हर वर्ष 1-19मई तक मनाया जाता है। कनाडा प्रवास के समय बड़ी इच्छा थी कि इसे देखा जाय पर हिम्मत नहीं हो रही कि छोटी सी पोती को लेकर जाएँ।  19 तारीख उत्सव का अंतिम दिन--- बेचैनी होने लगी । आज भी नहीं गए तो न जाने भविष्य में फिर मौका मिले या न मिले।
    बड़े साहस औए सोचा विचारी के बाद आखिर 19 मई को 12 बजे निकल ही पड़े और हमारी कार कमिशनर्स पार्क की ओर दौड़ने लगी। बेबी सीट पर सोती हुई अवनि को कस दिया । हमने भी अपनी -अपनी पेटियाँ बांध लीं। यहाँ तो हरएक को कार यात्रा के समय पेटी बांधना अनिवार्य है।
    कुछ ही देर में अवनि जाग गई।उसने हाथ पैर चलाने चाहे पर खुद को बंधा महसूस कर रोने लगी। उसे रोता देख उठाने के लिए मेरे हाथ कुलबुलाने लगे। पर चलती कार में गोदी में लेकर उसे दुलार नहीं सकती थी।इस मजबूरी से मुझे घुटन होने लगी। वह तो ईश्वर की बड़ी कृपा रही कि कार के हिचकोलों ने थपकी दे उसे जल्दी ही फिर सुला दिया। एक पल तो मुझे ऐसा लगा मानो कैदी को जंजीरों से बांध दिया हो।पर सुरक्षा की दृष्टि से यह नियम भी उचित जान पड़ा।
     पार्क में घुसते ही रंग -बिरंगे ट्यूलिप फूलों की बहार देख मुझे लगा सजे –धजे चमकते परिधान पहने बाराती बगीचे में टोली बनाए मुस्कुरा रहे हैं और दर्शक उनको निहारते-स्वागत करते थक नहीं रहे। मैंने तब तक कोई फूल इतने रंगों में नहीं देखा था। 
    यहाँ  तो पीले,नारंगी,सफेद,महरून, लाल-गुलाबी—कोई रंग तो नहीं छूटा था। इतने मनमोहक रंगों की छटा ने बरबस हमें अपनी ओर खींच लिया।
    पढ़ –सुन रखा था कि हमारे देश में  श्रीनगर डलझील के किनारे पहाड़ियों की चोटियों पर बना इंदिरा गांधी मेमोरियल ट्यूलिप उद्यान है।जहां 70 किस्म के ट्यूलिप करीब 13लाख से भी ज्यादा हैं। यहाँ अप्रैल के पहले हफ्ते में बड़ी शान व उत्साह से ट्यूलिप समारोह मनाया जाता है। इस बाग में भी फूल होलेण्ड से ही आए हैं इसके देखने का सौभाग्य अभी तक प्राप्त नहीं हुआ था।
    आस्ट्रेलिया से आए मेरे एक मित्र ने बताया था कि बसंत के पदापर्ण करते ही आस्ट्रेलिया मेँ फूल उत्सवों की बाढ़ आ जाती है। सभी उसकी निर्मल धारा में बह आनंद प्राप्ति करते हैं। उनके सौंदर्य से धरा भी निखर उठती है। दस दिनों तक बोउरल ट्यूलिप टाइम फेस्टिवल का आयोजन होता है जो आस्ट्रेलिया की राजधानी कैनबरा में सितंबर से अक्तूबर तक एक माह चलता है। इतना लंबा होता है यह अद्भुत आस्ट्रेलिया का पुष्प त्यौहार। उनकी ये बातें सुन ट्यूलिप को देखने के लिए और अधीर हो उठती।
    बेटे ने जब बताया कि ओटावा में भी वसंत के आगमन की खुशी में ट्यूलिप पर्व मनाया जाता है। मैं बालिका की तरह उछल पड़ी और अपने से ही वायदा कर बैठी कि बिना इस अलबेले फूल से मिले भारत नहीं जाऊँगी। ट्यूलिप उत्सव मेँ तो जाने का अवसर बहुत बाद मेँ मिला। तब तक मेरे दिमाग मेँ खलबली मचती ही रही और मैंने इधर- उधर से इसके बारे मेँ जानकारियाँ लेनी शुरू कर दीं।
    यह जानकर मैं अचंभित रह गई कि ट्यूलिप अंतर्राष्ट्रीय मैत्री का प्रतीक है। इसके पीछे भी एक कहानी है। दूसरे विश्व महायुद्ध के समय डच राजपरिवार को कनाडा ने आश्रय दिया था। जर्मन आक्रमण के कारण प्रिंसेस जूलियन को अपने दो बच्चों के साथ नीदरलैंड छोडना पड़ा और तीसरा बच्चा राजकुमारी मारग्रेट का जन्म कनेडियन सिविक अस्पताल में हुआ। नीदरलैंड को आजाद कराने में कनेडियन सिपाहियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
    1945 में धन्यवाद देते हुए डच परिवार ने ओटावा में  1,00000 ट्यूलिप बल्ब भेज अपनी कृतज्ञता प्रकट की।यह उपहार हॉलैंड राजपरिवार से कनाडावासियों को मिला। इन फूलों के सौरभ से कनाडा महका पड़ रहा है। आजतक यह प्रेमपूर्ण मैत्री भाव का सिलसिला अनवरत चल रहा है। हर साल हॉलैंड से 30लाख ट्यूलिप बल्ब आते हैं। इस प्रेम और शांति के पर्व को देखने दुनिया के कोने कोने से पर्यटक उमड़ पड़ते हैं और कुसुमावलि सी  कोमल यादें अपने साथ ले जाते हैं।
     दुनिया का सबसे बड़ा ट्यूलिप उत्सव देख हम फूले नहीं समा रहे थे।एक तरफ लाइन से विभिन्न देशों के पविलियन भी बने हुए थे जो अपनी संस्कृति- कला और भोजन प्रस्तुत करते नजर आ रहे थे। संगीत कार्यक्रमों का भी ज़ोर -शोर था जिनको मुफ्त में बैठकर सुना जा सकता था।
घूमते -घूमते वहाँ मेरे बेटे के एक मित्र मिल गए जो हाल ही में एम्सटर्डम होकर आए थे। उससे पता लगा कि ट्यूलिप तो नीदरलैंड का राष्ट्रीय फूल है। उसकी राजधानी एम्सटर्ड्म में तो सबेरे -सवेरे फूलों से लदी गाड़ियों की कतारें लग जाती है। शहरवासी फूलों के बड़े शौकीन हैं। थोक में खरीदकर अपने घर सजाते हैं। वेलेंटाइन दिवस पर लाल ट्यूलिप का गुलदस्ता बड़े प्यार से देते है। नई दुलहनें सफेद ट्यूलिप को ज्यादा पसंद करती हैं । उनको उसमें अपनी सी कोमलता का आभास होता है।
    धूप खुशनुमा थी सो काफी देर तक फूलों की गलियों में हमारे कदम धीरे–धीरे बढ़ते रहे। फूलों को पास से देखने का मौका मिला।ट्यूलिप कौफ मैनियाना(Tulipa Kauf maniana Regal)लाली लिए पीला फूल बड़ा मन मोहने वाला था। उसकी ओर हम खींचते चले गए। लेकिन ट्यूलिप क्लूसियाना वेंट(Tulipa Clusiana Vent) मुझे सबसे ज्यादा सुंदर लगा। इसके फूल सफेद मोती की तरह चमचमा रहे थे। उसकी पंखुड़ियों के बाहरी तरफ गुलाबी -बैगनी रंग की धारियाँ प्रकृति के कुशल हाथों सँवारी गई थीं। ट्यूलिप आइच्लेरी रीगल(Tulipa Eichleri Regal) गहरे लाल रंग के थे। इनका आकार दूसरे फूलों की अपेक्षा बड़ा था,सुंदर में दूसरों से कम नहीं थे।
    फूलों का रूप निहारते निहारते जी नहीं भरा था। पर पेट की पुकार सुन रुकना पड़ा। छायादार पेड़ के नीचे हमने पड़ाव डाल लिया। बहू शीतल ने बहुत देर बाद अवनी को गोद में लिया। अपना सारा प्यार उस पर उड़ेल देना चाहती थी। मेरे पैर थकान मान रहे थे सो उन्हें संभालते हुए मखमली घास पर बैठ गई।मेरे पति , बेटे के साथ अभी आए कहकर चले गए। लौटे तो हाथ में बडे- बड़े समोसे का पैकिट—मुंह में पानी भर आया। -- यहाँ भी समोसे-- वाह1मजा आ गया।एक ही समोसे से मचलता पेट काफी चुप हो गया।मैंने भार्गव जी से उसके दाम पूछे तो चुप लगा गए। अच्छा हुआ जो नहीं बताया वरना मेरे मुंह का स्वाद कड़वा हो जाता।उसके दाम तो डॉलर में थे और मैं तुलना करने लगती उसकी रुपए से। घर से लाई कॉफी व जूस पी कर थकान उतारी। बहुत देर तक फूलों की मादक खुशबू में सांसें लेते रहे।उठने को मन ही नहीं कर रहा था पर जाना तो था ही। कुछ छवियाँ कैमरे में कैद कर संतुष्ट हो गए कि हम यहाँ नहीं तो ट्यूलिप्स तो हमारे साथ हमारी यादों में रहेंगे।   धूप का ताप कम होने से ठंडी हवा का झोंका सिहरन देने लगा।इसलिए हमने उठ जाना ही ठीक स मझा। हँसते- खिलते ट्यूलिपस को अलविदा कहते हम वहाँ से चल दिए।
    घर पहुँचकर शीतल तो बच्चे में व्यस्त हो गई और हम रात के भोजन की तैयारी में जुट गए। बेटे ने मौका पाते ही कैमरे में कैद की तसवीरों को मुक्त कर दिया है और वे एक एक करके दूरदर्शन के स्क्रीन पर आ रही है। आह!फूलों के बीच में खड़े हम कितने खुश है। अब संगत का असर तो होता ही हैं।फूल हमेशा हँसते नजर आते हैं तो उनका हमपर भी रंग चढ़ गया और यह रंग आज तक नहीं उतरा है।

क्रमश:



रविवार, 1 अक्तूबर 2017

कनाडा डायरी की 20 वीं कड़ी


  डायरी के पन्ने 
                छुट्टी का आनंद                       hut काआनंद 
सुधा भार्गव
साहित्य कुंज में प्रकाशित 
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/20_ChhuTTi_kaa                              _anand.htm                                    

17.5.2013 
छुट्टी का आनंद 
    यह तो मानना ही पड़ेगा की यहाँ के लोग स्वावलंबी हैं। समय को अपनी मुट्ठी में बंद करना अच्छी तरह जानते हैं। मजाल है अनावश्यक रूप से जरा भी समय फिसल कर धूल में मिल जाए ।
    छुट्टी होने पर भी समय का दुरुपयोग इन्हें गंवारा नहीं। उस दिन सभी पुरुष- औरतें घर की साज-संवार में लग जाते हैं। कोई दरवाजों पर पोलिश कर रहा है तो कोई गैराज खोलकर फर्नीचर बनाने में मशगूल है। बढ़ईगीरि के समस्त औज़ार  घर में रहते हैं। यहाँ  मजदूरी बहुत महंगी है। खुद काम करके पैसा बचाया जा सकता है। पैसा होने पर भी जो काम खुद किया जा सकता है उसे करने में वे न हिचकते हैं और न उन्हें अपनी इज्जत जाती नजर आती है। कुछ फर्नीचर के भाग अलग -अलग मिलते हैं जो मशीन से बनते हैं। बस घर में आकर उनके पेच फिट करने होते हैं और देखते ही देखते चंद पलों में मेज-कुर्सी खड़ी नजर आने लगती हैं।
    भारत का कलात्मक व नक्काशीदार फर्नीचर अब्बल तो यहाँ मिलता नहीं और यदि मिलता भी है तो बहुत ऊंचे दामों पर।  भारत की हस्तनिर्मित कला का भला यहाँ क्या मुक़ाबला! पर मशीनी उत्पादन ने यहाँ के जीवन को सरल व सुविधा जनक  बना दिया है।
    छुट्टी के दिन घर से फुर्सत मिलती है तो कनेडियन एकल परिवार ख़रीदारी करता नजर आता है।
    एक रविवार को  मैं भी अपने बेटे के साथ ख़रीदारी के लिए वॉल माट(wall maat Store)गई। 15 दिन की अवनि और उसकी माँ घर पर ही थीं। वहाँ घुसते ही  मैं तो चकित सी रह गई। छोटे छोटे सफेद गुलाबी  चेहरे प्रेंबुलेटर में लेटे नजर आ रहे थे।और उनकी मम्मियाँ मजे से ख़रीदारी कर रही थीं। हमारे यहाँ तो नवजात शिशु को घर से बाहर ले जाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।हम तो सोचते ही रह जाते हैं बच्चे को कैसे ले जाएँ—गर्मी का असर  हो जाएगा—किसी की छूत लग जाएगी। इस धमाचौकड़ी में बच्चे और उसकी माँ को कम से कम घर में सवा महीने तो बंद रखते ही हैं। चाहें देश में हों या विदेश में इस मानसिकता को हम अपने से चिपटाए ही रहते हैं।
    जहां तक भारत की बात है—समझ में आती है वहाँ  की धूल धूसरित सड़कें ,शोर शराबा —चीं—पीं--पीं जैसा वातावरण शिशु के स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं।पर कनाडा में तो  वातानुकूलित कारें हैं और बाजार भी वातानुकूलित। न शीत का प्रकोप न गरम हवा के थपेड़े । घर तो हैं ही पूर्ण आधुनिक। इस कारण उनको घर से निकालने में क्या हर्ज है।
    कुछ भी हो भारतीय समाज में सवा माह तक तो बच्चा और माँ दोनों को कमजोर और नाजुक ही समझते हैं। जिसका इलाज है केवल खाओ-पीओ और चादर तान सो जाओ। तभी माँ बनने के बाद  अधिकतर भारतीय महिलाओं की सेहत कुछ ज्यादा ही अच्छी हो जाती है।
    मैं भी यही सोचती थी कि बहू को कम से कम सवा ढेढ माह तक घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए पर वॉल माट जाने पर मेरी आँखें खुल गईं और अपनी गलती का एहसास हुआ।
    हमने भी निश्चय किया कि अगली छुट्टी पर सब साथ- साथ जाएँगे। पर अवनि को गोदी में लेकर नहीं बैठ सकते थे। उसके लिए कुर्सीयान की व्यवस्था करनी जरूरी थी। यह कार में पीछे की सीट पर रखी होती है। 9किलो तक के शिशु को टोडलर कार चेयर में पेटी से कसकर बैठाया जाता है।यह पेटी विशेष प्रकार की होती है ताकि बच्चे की गरदन और कमर सीट के पिछले भाग से सटी  रहे और किसी अंग को झटका न लगे। टोडलर चेयर न होने पर जुर्माना भुगतना पड़ता है। जुर्माने के झंझट में कौन पड़े यह सोच बेटा पहले बच्ची के लिए यह खास चेयर खरीदकर लाया।
बस मौका देखते ही बड़े शौक से नन्ही सी अवनि और उसकी माँ के साथ बेशोर मॉल चल दिए । दो घंटे खूब आराम से घूमे। सपरिवार घूमने का मजा कुछ और ही है। चाँदनी ने घर की जरूरत का सामान खरीदा। घर में रहते –रहते उसे भी घुटन हो रही थी। 
    यहाँ आकर मुझे आइसक्रीम खाने की बुरी लत पड़ गई है। फ्रिज में तो रहती ही है। बाजार में भी खाना नहीं छोडती।फिर आज तो सब छुट्टी मनाने के मूड में थे तब भला मैं कैसे पीछे रहती। मैंने डिनर की तो छुट्टीकर दी और उसके बदले डेरी कुइन के आगे खड़े होकर खूब आइसक्रीम पेट में उतार ली।
    अवनि के कुलबुलाते ही हम चल दिए। दो घंटे तक बच्ची सोती रही यही हमारे लिए बहुत बड़ा वरदान था।
*
    
घर में घुसते ही मैंने रसोई का मोर्चा सँभाला।  
    कुछ देर में बेटा भी आकर मेरा हाथ बंटाने लगा। काबुली चने ,राजमा अच्छे बना लेता है। मसाल मूढ़ी बनाने में तो उस्ताद है। कनाडा आकर खाना बनाना उसने खूब सीख लिया है। यहाँ के पानी में आत्मनिर्भरता घुली  हुई है।
कुछ देर बाद मैंने कहा –खरीदे समान की जांच-पड़ताल तो कर लो। पता लगा पिस्ते का पैकिट हम उस  काउंटर से उठाना भूल गए जहां सामान के दाम चुकाए थे। सोना बिल लेकर भागा गया।पैकिट लेकर घर में घुसा तब चैन मिला।
    "मुझे तो मिलने की आशा न थी । कोई भी वहाँ से ले जा सकता था।" मैंने कहा।
    "माँ,यहाँ ऐसा नहीं होता। कनाडा ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध है। कनेडियन मेहनत की कमाई खाते हैं।"
    "तूने ठीक ही कहा। मेहनत का रंग तो मैं छुट्टी के दिन भी देख रही थी। चलो खा पीकर थोड़ा आराम कर लिया जाए।"  
    दरवाजा खुला हुआ था । मैं बंद करने उठी तो देखा- पड़ोसी अपनी बड़ी सी वैन निकाल रहे हैं। शायद वह टोयटा थी। उसके पीछे लकड़ी की नाव और चप्पू बंधे हुए हैं। 2-3 साइकिलें भी अंदर की ओर रखी हुई है।
    मैं आश्चर्य से बोली-"सुबह से तुम्हारे पड़ोसी को काम करते देख रही हूँ। कभी कार साफ कर रहे हैं तो कभी अपना बगीचा। अब दोपहर को कहाँ चल दिए?"
    "माँ,अब यह पूरा परिवार समुद्र के किनारे पिकनिक मनाने जा रहा है। सैर सपाटे के साथ सेहत भी बनाएँगे।  साइकलिंग करेंगे,तैरेंगे और नाव चलाएँगे।यह भी तो स्वास्थ्य के लिए जरूरी है।'
    "खाएँगे कब –समय तो बहुत हो गया!"
    "समुद्र तट पर ही खाएँगे-पकाएंगे। वह देखो बारबेक्यू और गैस स्लेंडर  बेटा ला रहा है।"
    "बाप रे इतना भारी -भारी समान! पूरी उठा पटक है।"
    :इनका शरीर बोझा उठाने,मीलों पैदल चलने और निरंतर काम करने का आदी होता है। शुरू से बच्चों का पालन पोषण इसी प्रकार किया जाता है कि आगे चलकर वे एक जिम्मेदार नागरिक बनें।:"      
    सच में छुट्टी का आनंद उठाना तो यहाँ की संस्कृति में पलने वाले लोग जानते हैं। उनकी इस मनोवृति ने मेरी विचारधारा छुट्टी का मतलब –न काम न धाम ,बस आराम ही आराम को बदलकर रख दिया।

क्रमश :

सोमवार, 26 जून 2017

कनाडा डायरी की 19वीं कड़ी


डायरी के पन्ने 
कनेडियन माली 
सुधा भार्गव

           साहित्य कुंज में प्रकाशित 

16 5 2003
कनेडियन माली
    
    हम सबको भगवान ने बनाया है । वही हमारा पालनहारा है। पर पेड़-पौधों का भगवान माली है। वही बीज बोकर उन्हें उगाता है। उसी की देखरेख में वे बड़े होकर फल फूलों से लदे धरती माँ की शोभा बढ़ाते हैं। 
     कनाडा में ऐसे माली घर-घर बसते हैं, जिन्हें प्रकृति से अगाध प्यार है। असल में कनाडा वासियों को बागबानी का बड़ा शौक है। महिलाएं भी इस काम में पीछे नहीं रहती। कामकाजी महिलाएं रोज शाम को अपने बगीचे की सुंदरता निहारते मिलेंगी। जमीन खोदने,घास हटाने का काम ,बीज बोने ,पौधों में पानी देने आदि से जरा भी नहीं कतराती। मुझे लगता है यह शौक उनके खून में है। बच्चे तक माँ का हाथ बंटाते हैं । बचपन से ही उनके हाथ में छोटी-छोटी -खुरपी, बाल्टी थमा देते हैं जो खिलौनों से कम नहीं दीखतीं। खेल- खेल में ही वे फूल-पौधों के बारे में बहुत कुछ जान जाते हैं और उनसे उन्हें लगाव हो जाता है।
    बच्चा छोटा हो या बड़ा ,एक हो या दो,काम महिलाओं के कभी स्थगित नहीं होते। वे बहुत मेहनती और ऊर्जावान होती हैं। गोदी का बच्चा हो तो उसे प्रेंबुलेटर में लेटा खुरपी चलाने लगती हैं। बच्चा घुटनु चलता हो तो कंगारू की तरह आगे या पीछे एक थैली बांध लेती है और इस बेबी केरियर में बच्चे को लिए अपने काम निबटाती हैं। उसमें बच्चा आराम से बैठा  रहता है और हिलते- डुलते सो भी जाता है। सबसे बड़ी बात बच्चे को इसका आभास रहता है कि वह अपनी माँ के साथ है।
    छुट्टी के दिन तो पति-पत्नी  दोनों ही अपनी छोटी से बगीची को सजने सँवारने में लग जाते हैं। बगीचा देखने लायक होता है। जगह जगह रोशनी जगमगाती मिलेगी। लाल,पीले ,नीले फूलों के बीच मिट्टी- काँच के बने मेंढक- मछली -बतख दिखाई देंगे जो सचमुच के प्रतीत होते हैं।  प्राकृतिक दृश्य उपस्थित करने के लिए उनके सामने पानी से भरा बड़ा सा तसला रख दिया जाता है या छोटा सा कुंड बना देंगे। इनकी खूबसूरती देख मेरी निगाहें तो रह रह कर उनमें ही अटक जाती।
    अपने बाग के फूलों को कभी मैंने उन्हें तोड़ते नहीं देखा। घर में फूल सजाने के लिए वे बाजार से खरीदकर लाते हैं। अपने घर-आँगन की फुलवारी को नष्ट करने की तो कल्पना भी नहीं कर सकते।  यदि हम भी इनकी तरह फूल-पौधों को  प्यार करने लगें तो पेड़ कटवाकर धरती माँ को कष्ट देने की बात किसी के दिमाग में ही न आए।
*
    यहाँ रहते रहते मेरा बेटा भी अच्छा खासा माली बन गया है। बच्चे का  घर में आगमन होने से कम कुछ बढ़ गया है इस कारण चाँद को बगीचा साफ करने में देरी हो गई। बगीचा साफ करना भी बहुत जरूरी था। शीत ऋतु में यह बगीचा बर्फ से ढका श्वेत श्वेत नजर आने लगा । जगह जगह हिम के टीले बन गए। सूर्यताप से जैसे ही बर्फ ने पिघलना शुरू किया उसके नीचे दबी घास और पत्ते भीग  गए। जल्दी ही सड़कर बदबू फैलाने लगे। इससे पड़ोसियों को एतराज भी हो सकता था।
    अवसर पाते ही चाँद ने बागवानी करने के लिए कपड़े बदले। टोपी पहनकर दस्ताने चढ़ाए और उतार पड़ा पेड़-पौधों के जंगल में। लंबी लंबी कंटीली झाड़ियाँ,सूखे-गीले पत्तों का ढेर ,ढेर सी उगी जंगली घास को देख मैं तो सकते में आ गई-चाँद सा बेटा मेरा चाँद अकेले कैसे करेगा?तभी उसे गैराज से इलेक्ट्रिक हेगर ,लॉनमोवर निकालते देखा। शीतल  उसकी सहायता कर नहीं सकती थी। मैं और मेरे पति खड़े खड़े देखने लगे। पर ज्यादा देर उसको अकेले इन मशीनों से जूझते देख न सके। हम दोनों ने आँखों आँखों मे इशारा किया। अंदर जाकर पुराने कपड़े पहने,टोपी और दस्ताने पहनकर बाहर निकल आए। दरवाजे पर ही 2-3 जोड़ी चप्पलें पड़ी थी जिन्हें पहनकर घर के अंदर नहीं घुस सकते थे।   उनको पहना और बागबानी करने निकल पड़े। हमें खुरपी,फावड़े चलाने का ज्यादा अनुभव न था । तब भी बेटे की मदद करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे।
    हम पूरे कनेडियन माली लग  रहे थे। चाँद हमें देखकर बड़ा खुश हुआ। इसलिए नहीं कि उसे मददगार मिल गए बल्कि इसलिए कि इस उम्र में भी उसके माँ-बाप में जवानी का जोश है । वह  बिजली के यंत्र की सहायता से घास-पत्तों  को रौंदता,कट कट काटता चल पड़ा। मैं कचरे को दूसरे  यंत्र की सहायता  से कोने में इखट्टा करने लगी।बाद में हमने मिलकर प्लास्टिक के बड़े बड़े बोरों में भर मुंह बंद कर दिया। रात में चाँद उन्हें उठाकर अपने  घर के सामने सड़क पर रख आया ताकि सुबह कचरे की गाड़ी आए तो बोरों को ले जाए।
    थोड़ा -बहुत काम धीरे- धीरे करके बगीचे  को इस लायक बना दिया कि उसमें बैठा जाए। यहाँ बड़ी सी मेज व दस कुरसियाँ पड़ी है। साथ ही इलेक्ट्रिक तंदूर भी एक कोने में रखा है। अब तो छोटी छोटी पार्टियां वहीं होने लगीं। सुबह –शाम की चाय भी वहीं पीते हैं।सुबह की ताजी हवा और गुनगुनी धूप के बीच उड़ती तितलियों को देखते देखते चाय की चुसकियाँ लेने का मजा कुछ और ही है।
क्रमश:




शनिवार, 24 जून 2017

2017 :लंदन डायरी -दूसरा पन्ना

लंदन डायरी
2017
21/6/2017
सूर्यदेव का रौद्र रूप
    मैं बैंगलोर से चली,बड़ी खुश। आह !लंदन जा रही हूँ। मिलने वालों ने भी मेरे भाग्य की सराहना की। यहाँ की जमीन पर पैर रखे तो तापमान 32 डिग्री। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ चलीं। अफसोस कर बैठे बैंगलोर में शिमला जैसी टकराती  ठंडी हवाओं को छोड़ कहाँ आन फंसे! चार दिन बीत गए पर अभी तक मौसम का पारा उतरा नहीं है।
   



यहाँ घर वातानुकूल तो हैं ही नहीं। छत से पंखे भी लटके नजर न
हीं आते। हाँ,इक्के-दुक्के घरों में टेबिल फैन चलते जरूर दिखाई दे जाते हैं। वह भी हर कमरे में नहीं बल्कि घर में इकलौता। दिन में धूप में निकलना कठिन –कार ओवेन की तरह जलती है। जब तक वह ठंडी होती है तब तक गंतव्य स्थान पर पहुँच ही जाते हैं। उस दिन की ही बात ले लो जब हम  शेरेटन होटल  गए –इतना बड़ा होटल- - - पर भरी दोपहरी में कहीं  कोई  पंखा नहीं चल रहा था। एयर कंडीशन की तो बात करना ही बेकार है। न जाने यहाँ के लोग कैसे रहते हैं!
    हमारे बाहर के काम गर्मी से रुक जाते हैं। सोच में पड़ जाते हैं –घर से बाहर निकलने पर चिलचिलाती धूप में कहीं खोपड़ी गरम न हो जाए ,पानी ले जाना पड़ेगा आदि-आदि। पर यहाँ  के निवासियों को कोई फर्क नहीं पड़ता। कहते हैं –हम तो धूप के लिए तरसते हैं। यही तो समय है जब ठंड की  ठिठुरन से छुटकारा मिलता है और शरीर पर चढ़ी कपड़ों की परतें गायब होती हैं।

    कुछ भी हो हमारा दिमाग तो इतनी गर्मी में काम करता नहीं। लोग कहते हैं 25 साल में इतनी गर्मी पड़ रही है। अगले हफ्ते वर्षा रानी जरूर आएगी। इसी भरोसे समय कट रहा है --- शायद रिमझिम- रिमझिम बारिश शुरू हो जाय और सूर्य महाराज उसके सामने हथियार डाल दें।
क्रमश:

शुक्रवार, 23 जून 2017

2017 लंदन डायरी -पहला पन्ना

लंदन डायरी 
2017
पहला पन्ना-18 जून 2017
नए मित्र का जन्मदिवस  
    कौन कहता है विदेश में बसे भारतीय  अपनी जड़ों से कट जाते हैं! भावना शून्य हो रिश्तों की अहमियत भूल जाते हैं! माँ-बाप अपने को  उपेक्षित महसूस करते हैं! मेरा तो अनुभव कुछ दूसरा ही रहा।
    मैं 18 जून को भारत से लंदन दोपहर दो बजे के करीब घर पहुंची। रास्ते में ही बेटा बोला- -“माँ घर पहुँचकर थोड़ा आराम कर लेना । 4बजे के करीब शेरेटन होटल (Sheraton hotel) में जन्मदिन पार्टी में जाना है।
    मैं जाकर क्या करूंगी?”थके स्वर में बोली।
   “आपका जाना तो बहुत जरूरी है। आज प्रेमा आंटी का जन्मदिन हैं। वे मेरे दोस्त की सासु माँ हैं । आज 75वर्ष पूरे कर लेंगी। उनकी बेटी ने जन्मदिवस मनाने की खूब ज़ोर-शोर से तैयारी की है और आपको खास तौर से बुलाया है।”
   “तब तो जरूर जाऊँगी। चिंता न कर --झटपट तैयार हो जाऊँगी ।’’ मैं उत्साह से भर उठी और सारी थकान भूल गई।
    पाँच बजे के करीब अपनी बहू के साथ शेरटन होटल में जा पहुंची। केवल महिलाओं ही आमंत्रित थीं। प्रेमा जी सोफे पर बैठी थी और बर्थडे केक उनसे कुछ दूरी पर मेज पर रखी पार्टी की शोभा बढ़ा रही थी। 


उस पर उनका ध्यान भी न गया। असल में उनको पता ही नहीं था कि उनके जन्मदिन की पार्टी है। वे तो सोचकर बैठी थीं कि अन्य मेहमानों की तरह वे भी किसी अन्य की जन्मदिवस पार्टी में शामिल होने आई हैं । 
    मैं जैसे ही वहाँ पहुंची मैंने हँसते हुए पूछा –भई,आज की बर्थडे गर्ल कहाँ है? उनकी बेटी अनुपमा ने प्रसन्न मुद्रा में मेरा परिचय  कराया। मैंने उन्हें जन्मदिन की मुबारकबाद दी और कहा- “आज का दिन तो आपका है। आप ही पूरी पार्टी की चमक हैं।

वे चौंकी-“मेरा जन्मदिन!”
   बस एक साथ जोर का शोर हवा में घुल गया- हैपी बर्थ डे टू यू! 

   आश्चर्य मिश्रित खुशी से प्रेमाजी की आँखें भर आईं । एक पल को उनका गला भर्रा गया और अपनी बेटी व पोती को गले लगा लिया।इतना व्यवस्थित आयोजन और इस सरप्राइज़ पार्टी की उन्हें भनक तक नहीं!फिर तो ज़ोर शोर से बधाइयों का तांता लग गया, तालियों की गड़गड़ाहट कानों में रस घोलने लगीं। केक कटी गई और प्रेम से उसका आदान-प्रदान होने लगा। 



इस आयोजन की तैयारी कई महीने से चल रही थी। एक समय था प्रेमाजी को फिल्मी गाने सुनने का बड़ा शौक था। हमेशा गुनगुनाती रहती थीं। उनकी मनपसंद गानों का किसी तरह पता लगाया गया। उनकी बेटी ने वे गाने अपनी सहेलियों को तैयार करने को दिये। और फिर उनकी रिकॉर्डिंग की गई।डिनर करते समय वे गाने सबने सुने। संगीत लहरी ने वातावरण को और भी खुशनुमा बना दिया। प्रेमाजी सोचती ही रह गई कि इन गानों का पता कैसे लगा! हम भी पीछे कैसे रहते! जो मन में आया उसे कविता के रंगों में ढाल अपने नए मित्र के लिए सुना दिया। धीरे धीरे वे अतीत की गलियों में खो गई। खामोश मगर उनके  चेहरे पर अद्भुत चमक की चादर तनती चली गई।  
    वात्सल्यमयी  माँ की आँखों से अगाध स्नेह छलका पड़ता था। प्रतीत होता था मानों उसका वे भार सँभाल नहीं पा रही हैं।नेह सहित गले लगते हुए हम सब प्यारी सी याद लिए एक दूसरे से विदा हुए।  

क्रमश:

बुधवार, 24 मई 2017

कनाडा डायरी की 18 वीं कड़ी


डायरी के पन्ने 

सुधा भार्गव  

14.5.2003
विकास की सीढ़ियाँ 

   अब तो घर मेँ आए सभी लोग नव शिशु अवनि के बारे में ही बातें करते हैं या उसी के बारे में सोचते हैं। मेरा भी मन करता है उससे बातें करूं। जानती हूँ वह बोल नहीं सकेगी पर एक तरफा ही सही। उसी से असीम संतोष मिलेगा।
   सुबह शाम यहाँ तापमान 10डिग्री तक आ जाता है। सेंट्रल हीटिंग सिस्टम के कारण ठंड थम जाती है परंतु विश्राम करते समय इच्छा करती है कुछ ओढ़कर ज्यादा गर्माहट का अनुभव किया जाए । इसीलिए अवनि को सोता देखकर मैंने उसकी बुआ का भेजा फलालेन का कंबल ओढा दिया। कुछ देर तो वह  सोती रहीं पर जल्दी ही कुलबुलाने लगी। हमने सोचा –शायद गर्मी लग रही है! इसी उधेड़बुन  मेँ कंबल हटा दिया। मगर यह क्या !प्यारी सी बच्ची अपने हाथ पैर चला आँखें घुमाने लगीं और कंबल दूर छिटक गया। अच्छा जी तो यह बात है –हमारी नन्ही विकास की सीढ़ियाँ चढ़ रही है।
   मैं उत्तेजित हो चिल्ला उठी –“प्यारी बच्ची,देखो--- देखो,तुम्हारा पापा तुम्हारे आने से कितना प्रसन्न  है। हर दिन तुम्हारे लिए कुछ न कुछ नया करना चाहता है।”
   तभी बेटा आ गया और बोला-“माँ ऐसा करते हैं इसके पलंग में म्यूजिकल मोबाइल भालू लगा देते हैं। आप अवनि को लेकर ऊपर की मंजिल में 10 मिनट बाद लेकर आ जाना।”
   उत्साह का सागर हिलोरे मार रहा था उसे दिल में समेटे छोटी बच्ची के माँ- बाप एक ही सांस में कई सीढ़ियाँ चढ़ गए। उन्हें देख मुझे अपने दिन याद आ गए जब बड़ा बेटा हुआ था और हम पहली बार माँ-बाप बने थे। उस पर जमाने भर की खुशियाँ लुटा देना चाहते थे।कितना प्यारा ज़िंदगी का यह पहलू है।
   जैसे ही मोबाइल भालू की मनमोहक घंटियाँ सुनाई पड़ीं मैं अवनि को लेकर ऊपर पहुँच गई। मोबाइल खिलौने में में पाँच भालू रंगबिरंगी पोशाक पहने मटक रहे थे। बेबीकॉट पर लेटाते ही उसकी नजर कभी लाल भालू पर जाती  तो कभी पीछे वाले भालू पर।  इस कोशिश में गर्दन-आँख घुमाते कहीं थक न गई हो-यह सोच कर खिलौना बंद कर दिया गया।
   बहू-बेटे कुछ काम में लग गए और मैंने अवनि से बातें करनी इस तरह शुरू कर दीं जैसे वह समझ ही जाएगी। 
   “बच्ची,मेरा मन तो अजीब से डर में डूबा हुआ है । जिस खिलौने को तुम्हारा  पापा इतने शौक से लाया है उसके स्वरों की खनक से डरकर तुम कहीं रो न पड़ो।क्या करूँ,मेरा अनुभव ही कुछ इस प्रकार का हुआ है।
   पिछले हफ्ते राहुल के पहले जन्मदिन पर तुमको लेकर गए थे। उसका पापा और तुम्हारा पापा दोनों गहरे दोस्त हैं। चहल-पहल के बीच प्रेशर कुकर की सीटी सुनकर वह भय से चीखकर रोने लगा। उन्मुक्त हंसी से गूँजता वातावरण बोझिल हो उठा। लेकिन तुम तो बहुत बहादुर निकलीं---न चौंकी और न रोईं । मुझे तुम पर बहुत  गर्व हुआ।  
    दूसरी बात भी मैं नहीं पचा पा रही हूँ।तुम्हारे जन्म से पहले एक दिन हम पारस के अन्नप्राशन उत्सव में गए। उसके पापा भी मित्र मंडली में हैं और बंगाली है। बंगाली बाबू से मिलकर हमें बहुत खुशी होती है। हो भी क्यों न !हम करीब 40 वर्ष कलकत्ता रहे हैं । बंगाली भाषा,बंगाली खानपान ,रीति-रवाज़ सभी तो सुहाते है। हमने तो वहाँ जाते ही बंगाली में गिटपिट शुरू कर दी पर मैंने अनुभव किया कि पारस नए -नए चेहरे देख आतंकित हो उठता है और बार -बार माँ के आँचल में छिपकर अपने को सुरक्षित अनुभव करता है। न अपने पिता के पास जाता और न दादी –बाबा के पास जो बड़े अरमानों से कलकत्ते से अपने पोते की खातिर दौड़े दौड़े आए थे। माँ की हालत बड़ी दयनीय थी। थकी- थकी सी पारस को गोद में लिए मेहमानों का स्वागत कर रही थी। वह बेचारी रसोई सँभाले या बच्चा। वह तो अच्छा था मेहमान ,मेहमान नहीं मेजबान लग रहे थे।
   महिलाएं मिलजुलकर खाने का काम सँभाल रही थीं ।ज़्यादातर आगंतुक अपने झूठे बर्तन धोकर रख देते। सब की यही कोशिश  थी कि उनके सहयोग से पारस के मम्मी-पापा की भागदौड़ कम हो जाए और वे भी अन्नप्राशन उत्सव का आनंद उठा सकें।
   पारस का उसके मम्मी-पापा बहुत ध्यान रखते थे। उसे ज्यादा न कहीं लेजाते थे न सबके सामने उसे उसके कमरे से निकालते थे। सोचते उसे किसी की छूत न लग जाए,कोई उस पर बुरी नजर न डाले,उसके दैनिक कामों में खलल न पड़े। पर इससे वह घर-घुस्सू बन गया। यहाँ तक कि अपने कमरे को छोडकर वह कहीं सो भी न पाता था। दूसरों को देखते ही सहम जाता।उसका नतीजा माँ-बाप भी भोग रहे थे।  
   उस समय ही सोच लिया था कि जब तुम हमारे पास आ जाओगी,अकेले कमरे में तुम्हें ज्यादा नहीं रहने दिया जाएगा वरना एकांतवास की आदत पड़ जाएगी और घर में आए लोगों को देखकर बस हुआं ---हु -आं करके घर को सिर पर उठा लोगी।
   सच में हमने ऐसा ही किया। सोते समय तुम अपने कमरे में रहती हो  पर जागने पर हम सबके बीच।  कभी पालने में लेटी रहती हो तो कभी पापा की बाहों में झूलती हो। मुझ दादी माँ की गोदी में तो आते ही सो जाती हो।  
    चार लोगों के बीच में रहने के कारण ही किसी अजनबी को देख तुम कोहराम नहीं मचाती हो। जब वह प्यार से तुम्हें गोदी मेँ लेता है और बातें करता है तो  तुम्हारी टुकुर- टुकुर आँखेँ चलने लगती है मानो तुम उसकी  बातें समझ रही हो। गोदी में लेने वाला भी तुम्हारे हाव-भाव देख खिल-खिल उठता है और शांत माहौल में शांति से बात कर पाता है।”

क्रमश : 

प्रकाशित - साहित्य कुंज 19.04.2017
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/18_vikaas_kee_sidiyan.htm

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

कनाडा डायरी की कड़ी-17


डायरी के पन्ने 

सुधा भार्गव 

14.5.2003

मातृत्व की पुकार 

अवनि,मेरी लाड़ली  जैसे -जैसे तुम बड़ी होती जा रही हो मेरा मन करता है तुमसे बातें करती ही रहूँ—करती ही रहूँ। पर तुम तो समझोगी नहीं!मुश्किल से 15 दिन की तो हो। अपने स्नेहसिक्त  भावों को मैं कागज के कोरे पन्नों पर उतार कर रख देती हूँ। बड़े होने पर तुम उन्हें पढ़ लेना।  इस बहाने अपनी दादी माँ को याद करोगी।  
-ओह! हाथ –पैर मारकर खूब व्यायाम कर रही हो। थकान होने पर निढाल होकर ज्यों ही तुम्हारी पलकें भारी होती है,तुम्हारी माँ को बहुत दया आती है और कलेजे से तुम्हें लगाकर अनिवर्चनीय सुख का अनुभव करती है। तुम्हारी अच्छी से अच्छी परवरिश करने की तमन्ना उसके दिल में है।

बहू-बेटे के चेहरे पर खिले गुलाबों को देख कभी -कभी तो मैं अपने मातृत्व को ही टटोलने लगती हूँ। जिन हाथों से मैंने अपने बच्चों की परवरिश की,अर्द्धरात्रि को यदि भूले से भी उनका ध्यान कर लूँ तो वे मेरी बाहों के झूले में झूलते नजर आने लगते हैं। फिर तो मजाल क्या कि पलकें बंद हो जाएँ।
आज तो चलचित्र की भांति नेत्रपटल पर वर्षों पहले के दृश्य आ-जा रहे हैं। बेटा- बेटी घुटनों चलने लगे है और मैं हाथ पकड़कर चलना सिखा रही हूँ। छोटा बेटा तोतली बोली में बोलने की कोशिश में है। मैं बार -बार उसके शब्दों को दोहराकर उच्चारण ठीक करने में लगी हूँ। जैसे ही वह एक शब्द बोलता मैं मुग्ध हो उसके गाल पर अपने प्यार की छाप लगा देती।

अतीत खँगालने में सारा दिन गुजर गया।रात में मेरा जीवन साथी बगल में लेटा खर्राटे भरे और में जागती रहूँ मुझसे सहन न हुआ। अंधेरे में निशाना लगा बैठी –सो गए क्या?
-मन में कुछ घूम रहा है क्या?सोते समय विचारों के दलदल में फँसकर हमेशा विचलित हो जाती हो। दिन में तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता?
-दिन में तो अंग क्रियाशील रहते हैं और  सुप्त मस्तिष्क के पीछे चलते द्वंद को मेरा जाग्रत मस्तिष्क नहीं जान पाता है।
-लेकिन मैं तो जान जाता हूँ।
-क्या जान जाते हो?
-तुम मुझसे अपने मन की बात कहकर भारहीन हो रुई की तरह हवा में उड़ जाना चाहती हो।
-कहाँ?
-कल्पना की बसाई अपनी नगरी में!
-क्या मज़ाक ले बैठे!जब आप जागे ही हो तो मेरी बात भी सुन लो। आप ही तो एक हो जिसे मैं भोगे अनभोगे पलों का हिस्सेदार बना सकती हूँ। 40 वर्षों का आपका साथ सच्चाई की तह में कुछ जल्दी ही ले जाता है।
-मेरे तारीफ ही करती रहोगी या मन की गांठ भी खोलोगी।
-आप देख रहे हैं ,बहू-बेटे हमारी पोती का कितना ध्यान रखते हैं। एक से एक सुविधा का सामान जुटा रहे हैं।
-हूँ! मैं देख तो रहा हूँ।
-क्यों जी ---हमने भी तो अपने बच्चे बड़े प्यार से और शान से पाले हैं। माना आजकल की तरह हमारे पास सुविधाएं न थीं पर जितना हो सकता था उसमें कोई कसर न छोड़ी थी।
- कह तो ठीक रही हो। 
- आपको याद है----फेरेक्स खिलाने के और दूध बनाने के बर्तन चांदी के थे जिन्हें मैं दूध की बोतल के साथ कीटाणुरहित करने के लिए उबाला करती थी। अम्मा ने तो कह भी दिया था –इतनी सफाई !बड़ी बहमी है।
-हा—हा—हा--, यह तो मैं भी सोचता था। पर चुप रहता था क्योंकि इसमें भी बच्चों की भलाई ही थी।
-आप भी तो एक अच्छे पिता हो। छोटू लेक्टोजन दूध ही पीता था। एकबार उसके डिब्बे कलकत्ते में नहीं मिले ,मैं तो चिंता के मारे अधमरी हो गई पर आपने तो  दिल्ली से एक साथ तीन डिब्बे मँगवा दिए।
-एक डिब्बे की कीमत केवल 60 रुपये ही थी पर उस समय 60 ही हमारे लिए बहुत थे। बच्चों का मोह सब करा लेता है। भार्गव जी की यादों की परतें उघड़ने लगीं।
-हमने बच्चों के लिए नौकरानी भी रखी थी जी पर बड़कू के लिए नहीं थी।
-पहले बच्चे के लिए तो हमारे पास काफी समय बच जाता था। उस समय तुम नौकरी भी नहीं करती थीं। घर के काम के लिए तो नायडू आती ही थी।  
-मुझे नौकरी करने का कोई शौक न था। हाँ बच्चे बहुत प्यारे लगते हैं। छुटपन में छोटे भाई बहनों के साथ खूब खेली –दौड़ लगाई। उनके साथ मेरा बचपन खूब इठलाता था।अपने बच्चे हुए तो उनमें रम गई पर उनके बड़े होने पर स्कूल का रास्ता देखना पड़ा। वहाँ भोले -भाले नाजुक से फूलों के बीच अपना सारा तनाव -चिंता भूल जाती थी।
-हम तो छह भाई बहन हैं। मिल जाएँ तो बातों का उत्सव शुरू !फिर तो न किसी पड़ोसी की जरूरत और न दोस्त की। अपने समय की हवा के अनुसार तो 2 बच्चे ही बहुत समझे जाते थे।  हमारे तीसरे बच्चे के समय तो मालती ने सुना ही दिया था –तीसरा बच्चा!oh too much .आई अंग्रेजी झाड़ने। तुम्हारे बॉस की बीबी थी इसलिए कुछ न बोली।बस,अंदर ही अंदर सुलग उठी।
-तुम्हें बच्चों का इतना ही शौक है तो दो-तीन बच्चे गोद ले लेते हैं। विनोदप्रिय पतिदेव दिल खोलकर हंस पड़े।
-अब तो बहुत देर हो गई –कहने के साथ ही एक लंबी सी मुस्कान मेरे अधरों पर छा गई।
 
फलभर चुप्पी के बाद मैं बोली-आप शायद जानते नहीं पिता जी मेरे बारे में क्या सोचते थे?
-तुमने कभी बताया ही नहीं।
-वे सोचते थे कि मैं धनी परिवार में पली शायद बच्चों के साथ मेहनत न कर सकूँ । इसी कारण एक दिन उन्होंने कहा था-
-बेटा,बच्चों को अपने कलेजे से लगाए रखना।ये ही तुम्हारा भविष्य हैं।
उनका शायद यही मतलब था कि बच्चों को अच्छे संस्कार व विदद्या दूँ और अपने खर्चे कम करके पैसे को सँभाल कर रखूँ। एक तरह से यह मेरे लिए चेतावनी भी थी और नसीहत भी। मैंने उनकी बात को सहेजकर रख लिया।
-हाँ,यह तो है ,तुमने सिद्ध कर दिया कि शिक्षित माँ कुशल व आदर्श गुरू भी हो सकती है। बेटी के होने पर तुमने एक लड़की उसकी देखभाल के लिए रखी तो थी  जो शाम को घुमाने ले जाया करती थी। पर तुम्हारे पैर में तो चक्र है। कुछ न कुछ करती ही रहती थीं। बेटी जब चार दिन की ही थी तभी से बेटे को गृहकार्य कराना  शुरू कर दिया। वह सिरहाने खड़ा हो जाता और तुम आँखें मींचे उसे उत्तर बताती रहती।जिद्दी भी तो इतना था कि माँ ही कराएगी। शुरू से ही बच्चों का झुकाव तुम्हारी तरफ है।
-माँ जो हूँ।
-और बाप!
-आप तो मेरे मार्गदर्शक व सहयोगी हो।
-फिर तारीफ---,कुछ चाहिए क्या!
-मुझे क्या चाहिए!मेरे पास सब कुछ है।हाँ, मैंने मेहनत तो बहुत की है पर आपकी बदौलत यह रंग लाई।

गुटरगूं करते हुए हम मियां -बीबी न जाने कब तक अपने बच्चों की उस दुनिया में खोए रहे जो चटकीले रंगों से भरपूर थी।जितना उसकी गहराई में उतरते उतना ही पुलकित हो उठते। 
क्रमश:
प्रकाशित-साहित्यकुंज अंतर्जाल पत्रिका -03.22.2017