गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

कनाडा डायरी की चौबीसवीं कड़ी


साहित्य कुंज में प्रकाशित 
अंक दिसंबर 2018 


http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/25_

pitridiwas.htm
डायरी के पन्ने 

सुधा भार्गव   


दिनांक :19 6 2003   

:       ओंटेरिओ में पितृ दिवस मनाने की तैयारी ही रही है । हर पत्रिका में पिता से संबन्धित कोई विज्ञापन या  उनसे जुड़ी यादें पढ़ने को मिलती हैं।बच्चे अपने पिता को उपहार आदि देकर उनको मान देते है और प्यार जताते हैं। मेरे ख्याल से मेरी  पोती अवनि को भी चाहिए कि अपने पापा को कोई गिफ्ट दे। मगर देगी कैसे! नन्हें नन्हें हाथ,नन्हें नन्हें पैर । एक कदम चल तो सकती नहीं। हाँ याद आया –कुछ दिन पहले  मातृ दिवस था। उसका पापा एक सुंदर सी टीशर्ट  खरीदकर ले आया  और अवनि से  उसकी माँ को दिलवा दी । बस मन गया मातृ दिवस । पितृ दिवस भी ऐसे ही मन जाएगा। माँ लाएगी और वह अपने पापा को टुकुर टुकुर देखती दे देगी। वैसे मेरा बेटा उसे बड़ा प्यार करता है। उसके लिए कहो तो आकाश के तारे तोड़कर ले आए। ऑफिस से आते ही उसे बाहों के झूले में झुलाकर अपनी सारी थकान भूल जाता है।
      इस नन्ही बच्ची के संग-साथ ने तो मुझे अपने बचपन के कगार पर ला खड़ा किया है। पिता जी का चेहरा मेरी आँखों में घूम-घूम जाता है। हम छह भाई-बहन—पिताजी ने  हमारे लिए क्या नहीं किया। वे मुझे  बहुत प्यार करते थे। अपने माँ-बाप की मैं पहली संतान थी । हमेशा अपने साथ साथ रखना चाहते। घर में घुसते ही कहते –बड़ी ज़ोर से भूख लगी है। बिटिया कहाँ है?इसका मतलब था --वे मेरे साथ खाना खाएँगे।
        वे शान-शौकत पसंद शौकीन मिजाजी थे। बाबा जी तो कहा करते –तूने मेरे घर क्यों जन्म लिया ,लिया होता जन्म किसी राजा - महाराजा के।जरा भी हम उनकी नापसंद के कपड़े या पुराने डिजायन की ड्रेस  पहनते तो उनका गट्ठर बनवाकर नौकरों को दे देते और नए-नए कपड़े तुरंत बनवा देते। जरा भी चटका या किनारे से टूटा कप-प्लेट  देखते तो तुरंत फिकवा देते। तहसील में रहते हुए भी  अगले दिन ही शहर से नए कप-प्लेट आ जाते। उन दिनों मिर्जापुर के कालीन बहुत प्रसिद्ध थे। वहीं के  2-3 कालीन दीवार से सटे चादर में लिपटे खड़े रहते। खास उत्सवों पर ही वे बिछाए जाते। किसी के घर में शादी होती तो बड़े उदारता से दे  दिए जाते। जरूरत मंद आदमी को घर बनाने के लिए जमीन का टुकड़ा लिया तो वापस लेने का नाम नहीं। चुप चुप गरीबों की मदद करते और उसे मुंह पर नहीं लाते।
      उनकी माँ बचपन में ही छोड़कर चल बसी। अधूरी इच्छाओं और ममता के अभाव में बड़े हुए। निश्चय किया बच्चों के पालन में कोई कमी न रखेंगे। उन दिनों पत्थर के कोयलों की अंगीठी पर पानी गरम होता।गीजर का चलन न था। सर्दियों के दिनों में नौकर तो सुबह 8बजे  आता पर हमेँ सुबह ही नहा धोकर स्कूल जान होता। वे सुबह 6बजे उठकर कड़ाके की ठंड मेँ अंगीठी जलाते,हमारे नहाने को पानी गरम करते।अम्मा को नहीं जगाते। वे छोटे भाई के कारण रात को ठीक से सो नहीं पाती थी। दूसरे डरते कि सुबह उठने पर माँ को ठंड लग गई तो उसका असर बच्चे पर भी होगा। डॉक्टर थे इस कारण सफाई का बहुत ध्यान रखते थे। बच्चे होने के समय दाई आती माँ और बच्चे की देखभाल के लिए पर पिता जी उस पर ज्यादा विश्वास नहीं करते और अपनी देख रेख में बहुत से काम कराते।
      गलती होने पर वे मुझे डांटते । कभी कभी थप्पड़ भी गाल पर रसीद कर देते। तो बस फुला लेती मुंह। न कुछ खाती ,न कुछ पीती। औंधे मुंह लेटकर सोने का बहाना करती पर इंतजार करती रहती कब पिता जी आएँ ,कब मुझे मनाएँ। बीच -बीच में आँखें खोलकर देखती भी पर झट से आँखें बंद कर लेती---कही मेरी  नाटकबाजी  न पकड़ी जाए। थोड़ी देर में ही पिता जी का गुस्सा शांत हो जाता और मेरी सुध लेने दौड़े- दौड़े आते। बस फिर तो प्यार की बौछार शुरू—मेरे गाल पर प्यार करते,उठाते,खाना खिलाते,पैसों से मेरी गुल्लक भर देते। ऐसा था पिता का प्यार।
      पिता जी मुझे न तो साड़ी पहनने देते थे और न ही खाना बनाने देते थे।कहते- खाना बनाने को तो ज़िंदगी पड़ी है। शादी से पहले जो सीखना है सीख लो। बाद में न जाने कैसी परिस्थिति हो। बी॰ए॰एक दिन माँ ने कहा-बेटे कभी कभी साड़ी भी पहन लिया करो ताकि बांधना आ जाए । मैंने रेशम की हलकी  सी साड़ी चाची की सहायता से पहन ली।
      इतने में पिता जी आ गए –"कहीं जाना है क्या?"
      "नहीं तो। मेरे गले से मुश्किल से निकला ।" मैं समझ गई थी कि उनको मेरा साड़ी पहनना पसंद नहीं आया।
      "तो साड़ी उतारकर आओ। सलवार कुर्ता पहनो।"
       उस समय तो बुरा लगा पर उनकी नापसंद का कारण बाद में समझी। पिता जी को इस बात का  अहसास होता था कि अब मैं बड़ी हो गई हूँ। एक दिन ससुराल जाना होगा। इस विचार से ही वे तड़प जाते होंगे। शादी  के बाद भी मैंने उनके सामने डरते डरते साड़ी पहननी शुरू की थी। अब तो ऐसी डांट-फटकार के लिए तरसती हूँ।
       गर्मी की छुट्टियों में ताई अलीगढ़ से आईं। मैं बी॰ ए॰ की परीक्षा देकर हॉस्टल से  घर पहुँच चुकी थी। 2-3 दिन तो सोती रही,मित्रों से मिलती रही पर रसोई में एक दिन जाकर नहीं झाँका। हाँ,बड़ों को खाना खिलाने ,मेज लगाने का काम जरूर करती थी।
        ताई से चुप न रहा गया। बोलीं-"लाला,मुन्नी अब काफी बड़ी हो गई है। एक-दो साल बाद हाथ पीले हो जाएंगे। ससुराल जाकर खाना तो पकाना ही पड़ेगा। उसे दाल –रोटी तो बनानी आनी ही चाहिए।" ताई पिता जी को लाला  कहती थीं।
      पिताजी हँसकर बोले-"भाभी ,इसे चाय बनानी बहुत अच्छी आती है।" ताई की भी हंसी फूट पड़ी। स्नेह का झरना फूट रहा था।
      विदायगी के वे पल मुझे अभी तक  याद हैं जब पिताजी मुझे अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखते हुए ससुर जी से बोले- "मेर बेटी को सब कुछ आता है पर खाना बनाना नहीं आता है।" मेरे ससुर जी भी बहुत नेक व सरल हृदय के थे। तुरंत बोले -"चिंता न करें ,खाना बनाना हम सीखा देंगे। बाकी काम तो आपने सिखा ही दिए हैं।"
       पिता पिता ही होते हैं। उनके होने से हर संकट की घड़ी में रक्षा की छतरी हमारे ऊपर तनी रहती है।
      कहाँ से कहाँ बह चली। किस्सा शुरू हुआ था अवनि से और अंत हुआ मुझ पर। मैंने भी यादों के आगोश में बैठकर पितृ दिवस मना डाला । 


गुरुवार, 27 सितंबर 2018

॥ 3॥ बोलता कल


स्मृतियों की सन्दूकची 
  

 नीमराना ग्लास हाउस
 का  
  बोलता कल 

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       उत्तरांचल जिला टहरी गढ़वाल में एक गाँव है –गुलार डोंगी । यह ऋषिकेश से 23 किलोमीटर दूर बद्रीनाथ रोड पर स्थित है । हरिद्वार की यात्रा के दौरान मैं वहाँ अपने  परिवार सहित पहुंची । वहाँ  मंद –मंद मुसकाती –बहती गंगा सैलानियों को सहज भाव से  अपनी ओर आकर्षित कर लेती है । इसके किनारे भारतीय परिवेश का रक्षक नीमराना ग्लास हाउस होटल बड़े गर्व से भव्य रूप में खड़ा है। सन् 2005 में हम इसी होटल में ठहरे थे। 
       इसमें प्रवेश करते ही अनुभव हुआ मानो हम चौदहवीं से इक्कीसवीं सदी के बीच विचरण कर रहे हैं । अदृश्य रूप में आत्माएँ आ –जा रही हैं ,हमसे टकरा रही हैं । अचानक मुझे किसी की उपस्थिति का एहसास हुआ जो मुझसे सटते हुए बोली-आधुनिकी बाना धरण किए तुम जैसे लोगों को भी मैं अपनी बस्ती में खींच लाई। यह नगरी पुरानी जरूर है पर एक बार तुम्हारे दिल में पैठ गई तो मुझे विस्मृत करना कठिन है।
      ग्लास हाउस में जरा आगे बढ़े तो कदम ड्राइंग रूम में कदम पड़े । चूंकि उसकी दीवारें शीशे की हैं इसलिए उसके पार दिखाई देने वाली पर्वतों की श्रंखलाओं ,उन पर छिटकती हरियाली , गंगा की लगातार उठती –गिरती चमकती लहरों ने मन भिगोकर रख दिया ।




       एक कोने पर नजर पड़ी तो देखा – पत्थरों को एक दूसरे पर रखकर कैलाश परवत बनाने का सफल प्रयास हुआ है । उसके मध्य प्रतिष्ठित है हर –हर महादेव की विराट मूर्ति । हठात रसखान की पंक्तियाँ गुनगुनाने लगी –
     
     भाल में चंद्र बिराजि रहौ,ओ जटान  में देवी धुनि लहरै ।
     हाथ सुशोभित त्यौं तिरसूल ,गरे बीच नाग परे फहरै।।

     महाराज भागीरथ ने तो अपने पूर्वजों का उद्धार करने के लिए शिव आराधना की थी पर लगता है भूतलवासी भी तर गए । शायद तभी से मृत्यु के बाद राख़ और अवशेष गंगा में प्रवाहित करने की परंपरा ने जन्म लिया । ।
     एक दीवार पर करीब 10 -12 पेंटिंग्स शीशे में जड़ित थीं जिनमें सूर्य पूजा ,विष्णु पूजा ,अग्नि पूजा ,महादेव पूजा ,पवन पूजा ,गायत्री मंत्र और गौ पूजा के विभिन्न स्वरूप अति कुशलता से चित्रित किए गए थे । एक चित्र में ब्राहमन सूर्य की अर्घ्य  दे रहा था दूसरे में वह गाय के पास खड़ा था । इसका कारण हमारी समझ में न आया । पुस्तकाध्यक्ष ने बताया –ब्राहमन और गाय एक ही कुल के दो भाग हैं। ब्राहमण के हृदय में वेदमंत्र निवास करते हैं तो गौ के हृदय में हवि(आहुति देने की वस्तु )रहती है । गाय से ही यज्ञ प्रवृत्त होते हैं । 
     उन्होंने एक दिलचस्प बात और बताई की गौ में सभी देव प्रतिष्ठित् हैं  । चित्र में भी  सींगों की जड़ों में ब्रह्मा –विष्णु और बीच में महादेव थे । गौ के ललाट में पार्वती ,नेत्रों में सूर्य –चंद्रमा का निवास था ।
     ब्रह्म पूजा वाले चित्र में ब्रहमा के चार मुख थे जिनसे चारों वेद झर रहे थे । चित्र को देखने वाले दर्शक आपस में बातें कर रहे थे और मैंने उनमें से एक को कहते सुना –ब्रह्मा के मल से रुद्रका और वक्ष से विष्णु का आविर्भाव हुआ । प्रलय के बाद सृष्टि की रचना ब्रह्मा ने की ,इसलिए वे सर्वश्रेष्ठ हैं ।
     शहरी आबोहवा में मैं ऋषि –मुनियों की वाणी को भूल ही गई थी । यहाँ आना सार्थक हो गया था । मैंने कहीं पढ़ा था –ब्रह्मा को तरह –तरह से स्नान कराया जाता है पर क्यों ?मेरी यह गुत्थी उलझी हुई थी । मैंने यहीं इसे सुलझाना चाहा ,फिर मौका मिले या न मिले  । सामने सोफे पर गेरुआ वस्त्र धारी जटाओं वाले संत  बड़ी गंभीर मुद्रा में बैठे कल्याण पत्रिका के पन्ने उलट रहे थे । मैंने  ज्ञान मूर्ति समझ अपना कुलबुलाता प्रश्न उनके सामने रख दिया । चेहरे पर हंसी लाते हुए बोले –तुमने ठीक ही सुना है । दूध से ब्रहमा को स्नान करने से मरने के बाद ब्रहमलोक जाते हैं । दही से स्नान कराने से विष्णुलोक की प्राप्ति होती है । शहद स्नान से तो इंद्रलोक मिल जाता है । ईख के रस में उन्हें डुबोने से सूर्य लोक गमन होता है । गायत्री मंत्र के साथ ब्रहमा की स्तुति की जाए तो लगता है मानों ब्रहमलोक में ही खड़े हैं । उनकी बातें सुनकर प्राचीन धर्म समन्वित अध्यात्म के दर्शन हुए ।
     अध्यात्म दर्शन का श्रेय अमनदास जी को जाता है जो एक कवि ,शिल्पकार और कलाकार हैं । ये पुरानी इमारतों को खरीदकर उन्हें नया रूप देते हैं पर कलेवर वही वर्षों  पुराना होता है । ग्लास हाउस भी एक समय गढ़वाल के महाराजा का हंटिंग लॉज था । उसे कुशल कारीगरी का दस्तावेज़ बनाकर भारतीय संस्कृति का अनुपम उदाहरण पेश किया गया  है ।
     थोड़ी देर आराम फरमाने को हम कमरे की ओर चल दिये । लेकिन आराम कहाँ –वहाँ तो जिज्ञासा सिर उठाये खड़ी थी  । वहाँ बिताया एक एक पल जीवंत होता जा रहा  है ।  
मेरे  कमरे का नाम नर्मदा है ,बेटे के कमरे का नाम  गोदावरी और  उसके सास-ससुर के कमरे का नाम है गोमती ।  वाह क्या कहने । उससे जुड़ा एक प्रसाधन  कक्ष है । अरे एक स्टोर नुमा कोठरी भी है । जरा देखूँ इसमें क्या है ?-- यह तो बंद है । जरूर राजा यहाँ खजाना रखता होगा या  उसकी रानियाँ लकड़ी की बकसिया में अपने गहने रखती होंगी । खुला होता तो जरूर ताक झांक करती । मन बहुत चंचल हो उठा है ।
      पलंग तो चमकता हुआ बेंत का है जिसका सिरहाना अर्ध चंद्राकार है । इतना बड़ा कि चार आराम से पैर फैला लें । एक तरफ सोफा मेरे बाबा के समय का है पर लगता बड़ा मजबूत है । पलंग के दोनों ओर हाथरस की बुनी दरियाँ गलीचे की तरह बिछी हैं । सामने की दीवार मे आतिशदान है ताकि कोयले जलाकर कमरा गरम किया जा सके । दीवार में बनी लकड़ी की नक्काशीदार अलमारी इस बात का सबूत है कि यहाँ रहने वाला धनी व शौकीन मिजाज का होगा ।  फर्श वर्षों पुराना लाल रंग का पर चमक में कोई कमी नहीं  ।
      मेज पर एक कोने में चिमनी है शीशे की । उसके नीचे मोमबत्ती रखी है जिससे साफ पता लग रहा है कि उन दिनों मिट्टी के लैंप जला करते थे । मैंने खुद अपने पिता जी को शीशे की चिमनी को मुलायम कपड़े से साफ करते देखा है । यहाँ आकार बचपन के कई सुप्त कोने जी उठे ।       मोमबत्ती के ऊपर चिमनी रखकर सजावट का एक नया नमूना पेश किया है। बिजली के लट्टुओं के सामने चिमनी वाले लैंप की रोशनी कुछ नहीं  पर प्राचीन परंपरा व रीति रिवाजों से पर्दा उठते देख अति सुखद अनुभूति होती है । कमरे के दरवाजे और खिड़कियाँ सब शीशे के हैं । और तो और मेरे सामने जो मेज रखी है –बड़ी खास है । बस पत्थर पर भारी सा एक शीशा रख दिया है ।
काफी समय से स्नानागार जाने से जी चुरा रही थी कि होगा गंदा -संदा पर कब तक बचती । आशा के विपरीत देखा -फर्श पर टाइल्स लगी हैं । नल के नीचे अवश्य लकड़ी का पट्टा पट्टियों वाला रखा हुआ है । मेरी पोती उसे हटाने लगी । उसको बड़ा अजीब सा लगा । मैंने उसे समझाया –"बेटा ,पुराने समय इसी पर बैठकर नहाते थे।''
     "क्या दादी माँ आप भी इस पर नहाई हो ?"
     "घर में तो नहीं देखा पर धर्मशाला में नहाने की जगह ऐसा पट्टा रखा रहता था । अब तुम पूछोगी –धर्मशाला किसे कहते हैं ?मेरी बच्ची छुटपन में जब मैं अपनी माँ और पिताजी के साथ घूमने जाती थी तो होटल में नहीं धर्मशाला में ठहरती थी।''
    मैं  पट्टे पर नहाने बैठी । न जाने उस पर कितने राजा रानी नहाये होंगे । वे तो चले गए पर उनकी रूह मुझसे कुछ कहना चाह रही  थी  ,बड़े रोमांचकारी क्षण थे । तौलिया लेने को हाथ बढ़ाया जो लकड़ी की खुनटियों के सहारे लटका हुआ था । ऐसा स्टैंड मैंने कनाडा में भी देखा था पर उसे जमीन पर टिकाकर बयर –व्हिस्की की बोतलें रखी थीं । वैसे भी भारतीय शिल्पकला का तो पूरा विश्व कायल है ।
      कमरे में ज्यादा देर तक बैठना मेरा मुश्किल हो गया । न यहाँ कोई टेलीफोन न ही दूरदर्शन। असल मैं यह कोई विलास स्थल नहीं,विभिन्न संस्कृतियों के मेल मिलाप का शांतिस्थल है । पहली मंजिल की बालकनी से झांक कर देखा –ड्राइंगरूम में अनेक धरमालम्बी एकत्र हो गए हैं और उनमें कोई बहस छिड़ी है ।
       कोई ताश खेल रहा है तो कोई गजलें सुन रहा है । इतना होते हुए भी चुप्पी का आभास होता था ।
      हम भी नीचे उतर आए ।ड्राइंग रूम में बैठे भी पर्यटक उचक उचककर बाहर की छटा देखना चाहते थे । संध्या सुंदरी धीरे –धीरे अपने पग धरती पर रख रही थी  । उसके मनमोहक रंगों पर मोहित हो  गंगा की लहरे डूबती उतराती चंचल हो उठी थी । गगन चुम्बी पर्वत वात्सल्यभाव से पुत्री गंगा को निहार पुलकायमान प्रतीत होता था । 

उसे देख कवि दिनकर की पंक्तियाँ याद आने लगीं –

      मेरे नगपति !मेरे विशाल
     साकार दिव्य गौरव विराट
     पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल
     मेरे भारत के दिव्य भाल ।

     दोपहरी का ताप शांत हो चुका था । हम पर्यटकों  ने  गंगा के किनारे –किनारे चलकर घाटों पर पहुँचने का निश्चय किया । बहता पवन शीतलता व नवजीवन प्रदान कर रहा था । अनेक देवी –देवताओं को प्रणाम करते हुए हम उस पक्के घाट पर पहुंचे जहां आरती आरंभ होने वाली थी । आशा के विपरीत वहाँ की सफाई व अनुशासन प्रशंसनीय था । तभी ढोलक –मजीरों की ध्वनि के साथ अनगिनत प्रदीप जल उठे । भजन –कीर्तन कानों में कूंकने लगे । करतल ध्वनि के लिए हाथ खुद उठ गए । ।जल में एक –एक  दीपक हमने भी जलाया और गंगा के नयनाभिराम दृश्य को पलमों में बंद करके जल्दी ही उठ गए ।
    चुल्लू भर –भर कर आनंद पीने की बेला में कुछ दूरी पर बुजुर्गों की एक टोली बैठी थी । उनको आरती से ज्यादा अपनी बातों में ज्यादा दिलचस्पी थी । उदास आँखें –बुझे चेहरे !लगता था उनका सब कुछ छिन  गया है । परिवार की उपेक्षा और प्यार के अभाव में वे ईशवर की नगरी में ही बसने को मजबूर हो गए थे ।
     लौटते समय हम थक कर चूर थे पर रात के  सन्नाटे में नींद मुझे अपने आगोश में न ले सकी ।  बिस्तर पर लेते –लेते जरा सी सरसराहट से चौंक पड़ती । लगता उस पर सोने वालों की सांसें अब भी वहाँ चल रही हैं ।
      पौं फटते ही शीशायघर  से पैर बाहर रखा । सामने ही बाग में चौकी पर बैठा एक युवक ध्यान लगा रहा था । पीतल की चौकी पर ताँबे के चमकते फूल ,पैर भी शेर के पंजों वाले थे ।   हाथ में  रूद्राक्ष की माला लिए उसे फेर रहा था । मैं अपने घर की 60 साल पुरानी संस्कृति में लौट गई ।
     याद आया आज तो महाकुंभ है । उसमें नहाने से उसकी तरह तन –मन निर्मल हो जाएगा । ऐसा सोचकर बड़े –बड़े तौलिये कंधों पर डालकर साँप सी बलखती सीढ़ियों से गंगा किनारे उतर पड़े । दोनों तरफ बड़े बड़े विशाल पत्थरों से टकराती पत्थरो का ढेर लगा था और सीढ़ीनुमा कटे पहाड़ को पार करते समय यमराज नजर आने लगे थे ।
विशाल लहरों से टकराती दूध सी लहरों में मन अटक अटक जाता । गीली बालू में पैर धसते ही 
लड़कपन हंसने लगा । धम्म से हम पति-पत्नी नीचे बैठ गए। पर बैठकर भी मुझे चैन न मिला और बनाने लगी रेत का घरौंदा । कुछ भूरे –पीले सूखे पत्ते फड़फड़ाते घरौंदे पर बैठ गए । किलक उठी आह !कितना  सुंदर ! 





बुदबुदाने लगी  ---

    एक मेरे सामने है ,एक मेरे पीछे
    एक बालुई घरौंदा है दूसरा शीश महल
    एक नाशवान है ,दूसरा अमर
    सच तो यह है
    स्वर्ण कण बिखरे पड़े हैं
    अंदर  –बाहर
    बस परखने को चाहिए
    जौहरी की सी आँखें ।

     आनंद के पलों के समेटे हम दिल्ली लौट पड़े पर एक बात रास्ते भर सालती रही की न जाने कहाँ –कहाँ उपेक्षित इतिहास ,नि: श्वास लेती संस्कृति दम तोड़ रही है । रक्षा का कवच पहनाना उसे बहुत जरूरी है। 

 समाप्त 

शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

॥ 4॥ कैम्ब्रिज म्यूजियम,


 कैम्ब्रिज म्यूजियम 
सुधा भार्गव 



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जिन दिनों मेरी पोती केंब्रिज यूनिवर्सिटी में पढ़ रही थी उन दिनों मुझे अपने बेटे के साथ कैम्ब्रिज शहर घूमने का अवसर मिला। वहाँ का प्रसिद्ध म्यूजियम भी हम देखे बिना न रहे। बड़ी खूबसूरती से सुनहरे रंग के बने अन्नास व फूल गेट की शोभा बढ़ा रहे थे। 





       कैम्ब्रिज शहर के दिल में बसा फिटजविल्लियम संग्रहालय अनूठी इमारतों में से एक है। इसकी स्थापना 1816 में मेरियन के सातवें विस्काउंट फिटजविल्लियम ने की थी। जिसने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय  में कला संगीत के अपने विशाल संग्रह को दान में दे दिया था। वह कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में  ट्रिनिटी हॉल कालेज का छात्र था। उसने अपने पूरे जीवन में कलात्मक व दुर्लभ चीजों का संग्रह किया। उसे 144 डच चित्र तो अपने दादा की मृत्यु के बाद विरासत में मिले थे। उसने असाधार्ण कृतियों को जोड़कर उन्हें नया स्वरूप दिया जो संग्रहालय की शान बने हुए हैं। उसका खास शौक तो साहित्यिक और संगीत पाण्डुलिपियों के लिए था।

       हम यहाँ प्रसिद्ध कलाकार रूबेन्स ,ब्रेगेल,मोनेट,और पिकासो की पेंटिंग्स व प्रिंट देख आश्चर्य में डूब गए।



प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर पेंटिंग्स 















इटेलियन पेंटिंग्स

इस बालिका की भोलेपन को तो बहुत देर तक टकटकी लगाए देखती रही। लगा साक्षात यह मेरे सामने बैठी है।






आश्चर्य जनक पेंटिंग 


 इसको दूर  से देखा तो लगा कि बेलबूटें--फूल-पत्तियाँ रेशम के धागों से काढ़े गए हैं। यह एक शीशे के बॉक्स में सुरक्षित थी। पास आने पर एहसास हुआ की प्राकृतिक रगों से रेशमी कपड़े पर पेंटिंग हुई है। आर्टिस्ट की कलाकारी पर मुग्ध हो उठी। प्राचीन समय में आजकल की तरह बने बनाए ऑइलपेंटिंग या एक्रलिक कलर नहीं होते थे। बल्कि बड़ी मेहनत से ईश्वर प्रदत्त रंगबिरंगे फूल-पत्तियों  से रंग बनाए जाते थे। 




ग्रीस,रोम,मिस्त्र की कलाकृतियों का तो यहाँ भंडार है।  




प्राचीन संरक्षित मिस्त्र की ममी 


कास्य सवार 


 संग्रहालय में  मध्य युग के सिक्कों का अच्छा खासा संग्रह है।जापान और कोरिया से अँग्रेजी  और यूरोपियन मिट्टी के बरतन , काँच ,फर्नीचर,घड़ियाँ ,चीनी जेड और चीनी मिट्टी के बर्तन भी वहाँ अपनी समृद्धि की कथा कहते प्रतीत होते हैं। जिसे सुनने को दर्शक के पाँवों की गति स्वत:ही धीमी  हो जाती है।  


नयनाभिराम चायना पोटरी,पेंटिंग व फोटोज का अद्भुत संगम 


केंद्रीय विस्टा हॉल के बाहर की गई प्रभावशाली सैटिंग


काफी घूमने के बाद थकान हो गई थी । तब भी वहाँ की अनोखी कृतियों को देखते देखते जी नहीं भरा था। बैठे ही बैठे अपनी नजर चारों तरफ घुमाने लगी। जहां तक हो सकता था हर छवि को अपने पटल पर चित्रित कर लेना चाहती थी। जहां जिस हॉल मैं बैठी हूँ ,वहाँ पहले हर कोई प्रवेश नहीं पा सकता था। विशेष प्रतिष्ठित वर्ग के लोग ही अंदर आ सकते थे पर 1848 से यह जनता के लिए खोल दिया गया है। 

                प्रवेश द्वार की सीढ़ियाँ उतरते उतरते भी  संग्रहालय के हर कोने पर दृष्टि अटक जाती थी।



सुंदर प्रतिमाओं वाला प्रवेश द्वार 


म्यूजियम में घूमते हुये  हम  इतिहास व संस्कृति की एक नई दुनिया में पहुँच गए थे। उसकी अनोखी यादें बहुत दिनों से कैमरे में कैद थीं। आज मैंने उन्हें मुक्त कर दिया है । शायद आपको भी वे रोमांचित करें।



शनिवार, 1 सितंबर 2018

॥ 2॥ रेल दुर्घटना

 2. रेल दुर्घटना

प्रकाशित 
साहित्य  सुधा वेब पत्रिका 
अंक सितम्बर प्रथम २०१८ 
http://www.sahityasudha.com/articles_sep_1st_2018/sansamaran/sudha_bhargava/sansamaran.pdf

जाको राखे साइयाँ मार सके न कोय 
      बात उन दिनों की है जब मैं हॉस्टल में रहकर अलीगढ़ टीकाराम गर्ल्स कालिज में पढ़ती थी। बी॰ए॰ प्रथम वर्ष की परीक्षाएँ समाप्त हो गई थी। मुझे पिता जी ने अनूपशहर(जिला बुलंदशहर) से चचेरे भाई मिक्की को लेने भेज दिया था। उसके साथ मेरा छोटा भाई संजू भी था।दोनों ताऊ जी के ठहरे हुए थे। ताऊजी गंभीरपुरा में रहते थे और धर्मसमाज कॉलेज के वाइस प्रिन्सिपल थे।एक दिन पहले ही अनूपशहर ले जाने वाली अटैची उनके यहाँ रख आई थी। 
      जिस दिन टीका राम गर्ल्स कॉलेज बंद हुआ, उसके दूसरे दिन ही 11 बजे के करीब संजू और और मिक्की  हॉस्टल आन पहुंचे । उसी दिन मैं अनूपशहर जाना चाहती थी-माँ की बहुत याद आ रही थी। स्कूल के गेट से निकलते ही मन में विचार आया कि जाने से पहले अपनी आँखें टैस्ट करा लूँ। काफी दिनों से आंखों में दर्द हो रहा था मगर परीक्षा के कारण टालती आ रही थे। समय बहुत कम था। सो रिक्शा वाले को उल्टे हाथ की बजाय सीधे हाथ की ओर चलने का इशारा किया। डाक्टर मोहनलाल नेत्रालय अस्पताल पर रिक्शा रुकाई। परीक्षण करने के लिए नंबर लिया। वहाँ एक घंटा तो लग ही गया क्योंकि तीन बार तो एट्रोपीन ही डाली होगी।उसके असर से साफ दिखाई नहीं दे रहा था। आँखें मिचमिचाती हुई वहाँ से चल दी।
      विष्णुपुरी के आगे से जब हम निकले सीटी देती  हुई ट्रेन की  आवाज साफ सुनाई दी। समझ गए धड़ -धड़ करती ट्रेन आने वाली है और रेलवे क्रॉसिंग का गेट जरुर बंद मिलेगा। न जाने कितनी देर ट्रेन के गुजर जाने का इंतजार करना पड़े । पर आश्चर्य तभी मैंने रेलवे क्रॉसिंग पर मेनुएल गेट का पड़ा लंबा मोटा सा डंडा ऊपर उठते देखा।  दोनों ओर का रुका ट्रैफिक आधाधुंध चल दिया । उसके बाद क्या हुआ मुझे कुछ नहीं मालूम। मुझे जब होश आया मैंने अपने को अंधेरी सी गुफा में पाया। हाथों से दायें बाएँ, ऊपर-नीचे   टटोलकर देखा । दोनों तरफ रेल की पटरियों का आभास हुआ। हाथों को  ऊपर किया तो लोहे के पतले पतले सींखचों से उँगलियाँ टकराईं। मेरा दिमाग बड़ी तेजी से काम करने लगा-
-अरे मैं तो रिक्शा में बैठी थी ,जरूर उसके  पलटने के कारण  रेल की पटरियों के बीच गिर गई हूँ और रेल मेरे ऊपर से जा रही है। अगर मैं धोबिन की तरह पैर फैलाकर पटरियों के बीच में हो जाऊं तो ट्रेन मेरे ऊपर से चली जाएगी और मैं बच जाऊँगी।मुझमें अनंत साहस का संचार होने लगा।
       कुछ दिन पहले सुना था कि हमारी धोबिन रेल की पटरियों को पार कर अपनी बस्ती जा रही थी कि उसकी धोती पटरियों में उलझ गई । दूर से  आती ट्रेन को  देख हड़बड़ा उठी और जल्दी से पटरियों के बीच में लेट गई। ट्रेन उसके ऊपर से निकाल गई और उसका बाल बांका भी नहीं हुआ। 
      मैं जब पटरियों के बीच में होने की कोशिश कर रही थी तो लगा कोई मुझे बाहर की तरफ खींच रहा है। वह जितना खींचता उतना ही मैं अंदर हो जाती तभी कानों में आवाज आई-एक्सीडेंट एक्सीडेंट ,पटरी  से  बाहर आओ। मैं सरक कर बीच से किनारे के पास आ गई । जैसे ही उसने इस बार मुझे निकालने को ज़ोर लगाया मैं खिंची चली आई।बाहर आते ही निगाहें भाइयों को खोजने लगीं।
       सामने ही पटरियों से बाहर ईंटों की कंकरीट पर संजू को पीठ किए खड़ा  पाया। पीछे सिर से उसके खून निकल रहा था।वह मेरे घुटनों पर बैठा हुआ था। उछलकर शायद सिर के बल कंकरीट पर जा गिरा होगा। उल्टे हाथ की ओर देखा तो मिक्की  धीरे -धीरे आ रहा था। दहशत की परछाईं साफ उसके चेहरे पर झलक रही थी। हम तीनों चिपट कर ऐसे गुंथ गए कि दुनिया की कोई शक्ति हमें अलग न कर सके। शब्द प्रस्फुटित हो रहे थे- संजू ठीक तो है? जीजी----। मिक्की कहीं लगी तो नहीं ---। नहीं ---आ-प? मुझे कुछ नहीं हुआ। उन्हें देख मेरी जान में जान  आई।
      हममें से किसी को अपनी चोटों की परवाह न थी । संजू तो मुश्किल से पाँचवी कक्षा में पड़ता था और सबसे ज्यादा चोट उसी को आई थी मगर आँखों में एक आँसू न था। न जाने कैसे हम इतने सहनशील बन गए थे या एक दूसरे की हिम्मत बांधने के लिए कोई ऐसे शब्द नहीं बोलना चाहता था जो दूसरे को कमजोर  बनाए। अचानक मुझे अहसास हुआ मैं बड़ी बहन हूँ जिसे  निश्चित करना है कि आगे क्या किया जाय!
       हम जहां खड़े हुए थे वह दुर्घटना का अंतिम छोर था।  वहाँ से चलने से पहले भारी भरकम इंजन पर एक भरपूर नजर डाली जो राक्षस की तरह कहता नजर आया बच्चू बच गए।
इतने मेँ रिक्शा वाला आया-“बहन जी,आप सब ठीक तो हो?”
     “हाँ भैया। तुमने मुझे बचा लिया।’’
    “मैंने पहले ही देख लिया था कि गलती से गेटकीपर ने रेलवे क्रासिंग का गेट खोल दिया है । आती हुई ट्रेन पूरी रफ्तार पर थी। झट से रिक्शा से कूद गया। जो खून खराबा होना था वह तो पहले ही हो गया ।’’
      “तुम्हारी रिक्शा कहाँ है?”
     “रिक्शा की कुछ न पूछो।वह तो एक धक्का में ही टुकड़ा-टुकड़ा हो गई। आप पटरियों के बीच गिरी और  इंजन ठीक आपके पास आकर रुक गया। आपमें और पहियों मेँ केवल एक फुट की दूरी ऊपर वाले ने  बचा लिया। । मैं ही तो आपको पटरियों से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा था। छोटे भाई जी गिरे पड़े थे उनकू मैंने खड़ा कर दिया।’’
      “मैं तो हेंडिल पर बैठा बैठा न जाने कितनी दूर तक फिसलता चला गया।पर देखो मेरे कोई चोट भी नहीं आई।’’ मिक्की  हाथ घुमा घुमाकर दिखने लगा। इस चमत्कार पर वह खुद ही हैरत में था।
      मैं कान से सुन रही थी पर आँखें कान से ज्यादा खुली थीं। एक तरफ पड़ी अपनी कुचली चप्पलों को मैंने पैरों मेँ फंसाया। एक हाथ से संजू को पकड़ा और दूसरे हाथ से  मिक्की का हाथ थामा। लोग हमारे पास भी आने लगे थे। तमाशाई बनने से पहले मैंने वहाँ से खिसक जाना ठीक समझा। दो रिक्शावालों ने हमें बैठाने से मना कर दिया । शायद इस डर से कि कहीं पुलिस की पूंछताछ के चक्कर में न पड़ जाएँ। मैं भाइयों को खींचती हुई रेलवे क्रॉसिंग से बाहर आ गई। लगा जंग के मैदान से सही सलामत हम निकल आए हैं। सड़क पर एक रिक्शा मिल गया। बूढ़ा चालक बड़ा भला मानस था। वह समझ गया हम रेल दुर्घटना के शिकार है। उसने संजू  को सहारा देते हुए रिक्शा में बैठाया। बड़ी आत्मीयता से पूछा –लल्ली कहाँ चलना है?
उसके मीठे बोलों में अपनेपन की बू पाकर मन में आया उसके सामने फूटफूटकर रो पड़ूँ—पर मेरे फूट पड़ने का भाई भी रोये बिना न रहते।उनको रोता मैं नहीं देख सकती थी इसलिए अपने पर काबू किए रही।
     रिक्शावाले ने पूछा –‘कहाँ जाना है?”
     “जाना तो गंभीरपुरा है पर उससे पहले किसी डॉक्टर के दवाईखाने पर ले चलो। जरा भाई के पट्टी करवा लूँ। देखो न ---इसके खून निकल रहा है।’’मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
      अंजान डॉक्टर के पास जाना नहीं चाहती थी। न जाने क्या उल्टा-पुलता कर दे। ताऊ जी से भी नहीं पूछना चाहती थी । वे बहुत परेशान हो जाते। इतना तो मैं समझ गई थी कि चोट गंभीर नहीं है। इसलिए अपने ही दिमाग की मशीन में तेल डाल उसे चालू रखना चाहा। हठात उन डॉक्टर का नाम याद आते ही उछल पड़ी जो हॉस्टल में हमको देखने आया करते थे। मगर एक अड़चन फिर रास्ता रोक खड़ी हो गई। नाम पता होने से क्या होता है – उनके क्लीनिक का तो अता-पता ही नहीं मालूम था। तब भी मैंने धैर्य नहीं खोया। पूछते-पाछते हम आखिर उनके क्लीनिक पहुँच ही गए।
      मुझे देखते ही वे चौंक पड़े। घुसते ही मैं बदहवास सी बोलने लगी-“डॉक्टर साहब आप संजू को तो दवा लगाकर पट्टी बांध दीजिए । मेरी और मिक्की की चोटों पर पट्टी मत बांधिएगा। उन्हें देख ताऊ जी घबरा जाएंगे और हमें पाँच बजे अनूपशहर नहीं जाने देंगे। वे नाहक परेशान होंगे। पिताजी तो खुद डॉक्टर हैं और उनके दोस्त भी। वे सब सँभाल लेंगे।’’ मैं एक सांस मेँ सब कह गई जो मुझे कहना था।
      एक मिनट को तो डॉक्टर साहब मेरे मुंह की ओर ताकते रहे। वे भी सोचते होंगे यह तूफान कहाँ से आ गया। फिर हँसते हुए बोले-“बिटिया एक मिनट बैठो तो। लो पहले तुम सब पानी पीओ। तुमको मैंने----कहीं देखा है!”
     “हाँ हाँ डॉक्टर साहब, मैं टीका राम गर्ल्स हॉस्टल मेँ रहती हूँ।आप वहाँ हर माह आते हैं न।’’
      “ओह!अब याद आया। तुम चिंता न करो । मैं चुटकी मेँ मरहम पट्टी करता हूँ।’’ उन्होने संजू  का घाव साफ कर दवापट्टी की। मिक्की के टिंचर लगा दिया क्योंकि उसके खरोंचें ही आई थीं ।
मेरी बारी आई तो बोले –“पट्टी तो तुम बंधवाओगी नहीं जबकि दोनों कोहनी मेँ घाव हैं। जो दवा लगाऊँगा उससे बहुत दर्द होगा।’’
     “कोई बात नहीं। मैं सब सह लूँगी।’’
      उन्होंने भूरे से पाउडर मेँ ट्यूब से कोई मरहम मिलाया और उसे लगाने लगे।इतनी जलन  और दर्द हुआ कि मैंने कसकर दाँत भींच लिए। आश्चर्य जरा भी न कराही।फीस देने लगी तो उन्होंने इंकार कर दिया और मेरे सिर पर स्नेह सिक्त हाथ रखते हुए बोले- “बहुत बहादुर बेटी है।’’  
      मुसीबत का बहुत बड़ा जंगल पार कर लिया था । खुशी से जल्दी जल्दी कदम बढ़ते हुए धम से रिक्शा में बैठ गई।
      रिक्शा से ताऊजी के घर पर उतरे। ताई ने दरवाजा खोला । विस्मय से ताई का मुंह खुला का खुला रह गया-“अरे  संजू को क्या हुआ?यहाँ से तो भला-चंगा गया था।’’
      “कुछ नहीं बस गिर पड़ा था। दवा लगवा दी है।’’ मैं सकपकाती बोली।
      इतने में ताऊ जी के लड़के पंकज  कॉलेज से आए। बड़े उत्तेजित दीख रहे थे। साइकिल रखते हुए वे कहने लगे- पिताजी---पिताजी  रेलवे क्रॉसिंग पर बड़ा भारी एक्सीडेंट हो गया है। भीड़ ही भीड़ जमा है। ट्रेन आ रही थी कि गलती से गेट खोल दिया। सबसे पहले कार चपेट मेँ आई फिर तांगे वाला का घोड़ा ही कट गया।, सुना हैं एक रिक्शा से भी टक्कर हुई। मुझे लगा-मानो रेडियो से कोई ताजी और अनहोनी खबर सुनाई जा रही हो।
      मुझसे  सत्य छिपाना भारी हो गया और बोल उठी – “हाँ,उसमें हम तीनों थे।’’
     “तुम तीनों!”एक पल को चेहरों पर मुर्दनी छा गई।
     “चोट तो नहीं लगीं।’’ ताऊ जी बोले।
      “नहीं-- नहीं।  ऐसी कोई बात नहीं। हम ठीक हैं। संजू के जरूर सिर मेँ पीछे की तरफ चोट आई। खून निकल रहा था। सो मैंने रास्ते मेँ हॉस्टल के डॉक्टर से पट्टी करा दी।’’ मैंने जबर्दस्ती बेफिक्री के अंदाज में कहा। अंदर ही अंदर दिल धड़ धड़ कर रहा था—कहीं ताऊ जी ने रोक लिया तो --?थोड़ी सी समझ थी कि चोटें तुरंत दर्द नहीं करती पर बाद में असर दिखाती हैं। इसलिए जल्दी से जल्दी अपने डॉक्टर पिताजी के पास पहुँच जाना चाहती थी।
     “पाँच बजे की बस से तुम अनूपशहर जाने को बैठे हो। जा सकोगे?” ताऊ जी के माथे पर चिंता की रेखाएँ उभर आईं।
      “हाँ-हाँ। हम चले जाएंगे। ’’ भाइयो की ओर देखते हुए बोली। जिससे  वे मेरा इशारा समझ जाएँ और मेरी हाँ में हाँ मिला दें।
      “कहो तो पंकज को तुम्हारे साथ भेज दूँ ?”
      “नहीं ताऊ जी। यहाँ बैठकर सीधे अनूपशहर बस अड्डे ही तो उतरेंगे।’’ उनको तसल्ली देने की कोशिश की।
      पंकज भाई बस अड्डे हमें छोड़ने गए। बस मेँ चढ़ने से पहले एक बार फिर उन्होंने पूछा –“तुम लोग जा पाओगे वरना लौट चलो।’’ उत्तर में हँसते हुए मैंने ‘न’ में गर्दन हिला दी। मैं किसी तरह कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी।
      हमें आगे की सीट मिल गई । आराम से बैठ गए। पर मेरे मन को चैन कहाँ?जल्दी से उड़कर अम्मा-पिताजी में की छत्रछाया में पहुँच जाना चाहती थी । संजू और मिक्की चुप से हो गए थे।न कोई बात करते थे न ही पूछते थे। दो छोटे भाइयों की ज़िम्मेदारी,उनकी सुरक्षा का भार मुझ पर है-इस अहसास ने चंद घंटों में मुझे उम्र से बहुत बड़ा बना दिया था।   
      बस चल दी । हम एक ही सीट पर तीनों बैठे थे। मैं बीच में थी और दोनों के हाथ कसकर पकड़ रखे थे।  4-5 किलो मीटर चलने के बाद हठात बस का एक  पहिया पंचर  हो गया। पीछे से आवाज आई ड्राइवर साहब सँभलकर ,सवारी भारी है। पीछे मुड़कर देखा ,हॉकी लिए तीन लड़के बैठे हैं। समझते देर न लगी ये धर्मसमाज या बारह सैनी कालिज के लड़के हैं। मैंने चुप ही रहना ठीक समझा। रेल दुर्घटना की खबर अब तक पूरे शहर में बिजली की तरह फैल चुकी थी। इन लड़कों को भी भनक मिल गई होगी। बस में भी दुर्घटना की चर्चा खूब गरम थी पर हम इस तरह बैठे हुए थे मानो एकदम अंजान हों। वरना प्रश्नों की बौछार शुरू हो जाती।
      अनूपशहर बस अड्डे पर पहुँचते ही रिक्शा ली। रिक्शावाला रिक्शा ठीक ही चला रहा था पर लग रहा था उसकी गति तो चींटी की सी है। दरवाजे में घुसते ही मैं ज़ोर से चिल्लाई पिताजी ---पिताजी---। पिताजी घबराते हुए ऊपर की मंजिल से नीचे उतरकर आए। संजू के पट्टी बंधे देख चौंक भी गए।बड़े यत्न से संभाली सुबकियाँ उन्हें देखते ही बिखर पड़ीं और मैं उनसे चिपट गई।  धैर्य और साहस का थामा हुआ दामन  आंसुओं में भीग गया। मुझे रोता देख संजू और मिक्की  की भी हिचकियाँ बंध गई।
      ताई के आते ही मिक्की उनकी छाया में जाकर खड़ा हो गया। संजू अम्मा के आँचल में छिप गया।
      “अरे बेटा क्या हुआ? तीनों रोते ही रहोगे या कुछ बोलोगे भी।’’ अम्मा बोलीं।
      “चाची, एक्सीडेंट हो गया।’’ मिक्की ने बड़ी देर बाद अपना मौन तोड़ा। अपनी सुरक्षा के प्रति अब वह आश्वस्त था। पर ताई,अम्मा बेचैन हो उठीं।
      पिता जी ने बात सँभाली-“अरे पहले इनके लिए ठंडी कोकोकोला मँगवाओ। शांति से बातें करेंगे। मैं डॉक्टर साहब को बुलाने किसी को भेजता हूँ।’’ 
      जब तक डॉक्टर साहब आए हमने घरवालों को अपनी रामकहानी सुना दी थी। डाक्टर साहब ने हमारे हाथ-पाँव हिलाकर जांच--पडताल की। बोले सब ठीक है। बच्चों को आराम करने दो। हाँ जाते-जाते एक एक इंजेक्शन जरूर ठोक गए।

      माँ-बाप के पास जाकर लगा जैसे मैं बहुत हल्की हो गई । दूसरे दिन से ही हम लोगों का सारा शरीर बहुत दुखने लगा।दिन में एक ही कमरे में चारपाई बिछा दी जाती। दो-तीन दिन तो करवट लेते भी कराहने लगते -- कभी एक दूसरे की तरफ देखकर हंसते पर दुर्घटना की चर्चा हमने एकदम नहीं की। एक बुरे स्वप्न की तरह भुलाने की कोशिश करते रहे। पर अतीत की काली परछाईं से कभी कोई बचा है। वर्षों पहले घटित इस दुर्घटना की याद अब भी मेरी रूह को कंपा देती है पर एक सच मेरी झोली में आकर जरूर गिरा कि जिस पर ईश्वर का हाथ होता है उसका बाल-बांका नहीं हो सकता।   रेल दुर्घटना
जाको राखे साइयाँ मार सके न कोय /सुधा भार्गव
      बात उन दिनों की है जब मैं हॉस्टल में रहकर अलीगढ़ टीकाराम गर्ल्स कालिज में पढ़ती थी। बी॰ए॰ प्रथम वर्ष की परीक्षाएँ समाप्त हो गई थी। मुझे पिता जी ने अनूपशहर(जिला बुलंदशहर) से चचेरे भाई मिक्की को लेने भेज दिया था। उसके साथ मेरा छोटा भाई संजू भी था।दोनों ताऊ जी के ठहरे हुए थे। ताऊजी गंभीरपुरा में रहते थे और धर्मसमाज कॉलेज के वाइस प्रिन्सिपल थे।एक दिन पहले ही अनूपशहर ले जाने वाली अटैची उनके यहाँ रख आई थी। 
      जिस दिन टीका राम गर्ल्स कॉलेज बंद हुआ, उसके दूसरे दिन ही 11 बजे के करीब संजू और और मिक्की  हॉस्टल आन पहुंचे । उसी दिन मैं अनूपशहर जाना चाहती थी-माँ की बहुत याद आ रही थी। स्कूल के गेट से निकलते ही मन में विचार आया कि जाने से पहले अपनी आँखें टैस्ट करा लूँ। काफी दिनों से आंखों में दर्द हो रहा था मगर परीक्षा के कारण टालती आ रही थे। समय बहुत कम था। सो रिक्शा वाले को उल्टे हाथ की बजाय सीधे हाथ की ओर चलने का इशारा किया। डाक्टर मोहनलाल नेत्रालय अस्पताल पर रिक्शा रुकाई। परीक्षण करने के लिए नंबर लिया। वहाँ एक घंटा तो लग ही गया क्योंकि तीन बार तो एट्रोपीन ही डाली होगी।उसके असर से साफ दिखाई नहीं दे रहा था। आँखें मिचमिचाती हुई वहाँ से चल दी।
      विष्णुपुरी के आगे से जब हम निकले सीटी देती  हुई ट्रेन की  आवाज साफ सुनाई दी। समझ गए धड़ -धड़ करती ट्रेन आने वाली है और रेलवे क्रॉसिंग का गेट जरुर बंद मिलेगा। न जाने कितनी देर ट्रेन के गुजर जाने का इंतजार करना पड़े । पर आश्चर्य तभी मैंने रेलवे क्रॉसिंग पर मेनुएल गेट का पड़ा लंबा मोटा सा डंडा ऊपर उठते देखा।  दोनों ओर का रुका ट्रैफिक आधाधुंध चल दिया । उसके बाद क्या हुआ मुझे कुछ नहीं मालूम। मुझे जब होश आया मैंने अपने को अंधेरी सी गुफा में पाया। हाथों से दायें बाएँ, ऊपर-नीचे   टटोलकर देखा । दोनों तरफ रेल की पटरियों का आभास हुआ। हाथों को  ऊपर किया तो लोहे के पतले पतले सींखचों से उँगलियाँ टकराईं। मेरा दिमाग बड़ी तेजी से काम करने लगा-
-अरे मैं तो रिक्शा में बैठी थी ,जरूर उसके  पलटने के कारण  रेल की पटरियों के बीच गिर गई हूँ और रेल मेरे ऊपर से जा रही है। अगर मैं धोबिन की तरह पैर फैलाकर पटरियों के बीच में हो जाऊं तो ट्रेन मेरे ऊपर से चली जाएगी और मैं बच जाऊँगी।मुझमें अनंत साहस का संचार होने लगा।
       कुछ दिन पहले सुना था कि हमारी धोबिन रेल की पटरियों को पार कर अपनी बस्ती जा रही थी कि उसकी धोती पटरियों में उलझ गई । दूर से  आती ट्रेन को  देख हड़बड़ा उठी और जल्दी से पटरियों के बीच में लेट गई। ट्रेन उसके ऊपर से निकाल गई और उसका बाल बांका भी नहीं हुआ। 
      मैं जब पटरियों के बीच में होने की कोशिश कर रही थी तो लगा कोई मुझे बाहर की तरफ खींच रहा है। वह जितना खींचता उतना ही मैं अंदर हो जाती तभी कानों में आवाज आई-एक्सीडेंट एक्सीडेंट ,पटरी  से  बाहर आओ। मैं सरक कर बीच से किनारे के पास आ गई । जैसे ही उसने इस बार मुझे निकालने को ज़ोर लगाया मैं खिंची चली आई।बाहर आते ही निगाहें भाइयों को खोजने लगीं।
       सामने ही पटरियों से बाहर ईंटों की कंकरीट पर संजू को पीठ किए खड़ा  पाया। पीछे सिर से उसके खून निकल रहा था।वह मेरे घुटनों पर बैठा हुआ था। उछलकर शायद सिर के बल कंकरीट पर जा गिरा होगा। उल्टे हाथ की ओर देखा तो मिक्की  धीरे -धीरे आ रहा था। दहशत की परछाईं साफ उसके चेहरे पर झलक रही थी। हम तीनों चिपट कर ऐसे गुंथ गए कि दुनिया की कोई शक्ति हमें अलग न कर सके। शब्द प्रस्फुटित हो रहे थे- संजू ठीक तो है? जीजी----। मिक्की कहीं लगी तो नहीं ---। नहीं ---आ-प? मुझे कुछ नहीं हुआ। उन्हें देख मेरी जान में जान  आई।
      हममें से किसी को अपनी चोटों की परवाह न थी । संजू तो मुश्किल से पाँचवी कक्षा में पड़ता था और सबसे ज्यादा चोट उसी को आई थी मगर आँखों में एक आँसू न था। न जाने कैसे हम इतने सहनशील बन गए थे या एक दूसरे की हिम्मत बांधने के लिए कोई ऐसे शब्द नहीं बोलना चाहता था जो दूसरे को कमजोर  बनाए। अचानक मुझे अहसास हुआ मैं बड़ी बहन हूँ जिसे  निश्चित करना है कि आगे क्या किया जाय!
       हम जहां खड़े हुए थे वह दुर्घटना का अंतिम छोर था।  वहाँ से चलने से पहले भारी भरकम इंजन पर एक भरपूर नजर डाली जो राक्षस की तरह कहता नजर आया बच्चू बच गए।
इतने मेँ रिक्शा वाला आया-“बहन जी,आप सब ठीक तो हो?”
     “हाँ भैया। तुमने मुझे बचा लिया।’’
    “मैंने पहले ही देख लिया था कि गलती से गेटकीपर ने रेलवे क्रासिंग का गेट खोल दिया है । आती हुई ट्रेन पूरी रफ्तार पर थी। झट से रिक्शा से कूद गया। जो खून खराबा होना था वह तो पहले ही हो गया ।’’
      “तुम्हारी रिक्शा कहाँ है?”
     “रिक्शा की कुछ न पूछो।वह तो एक धक्का में ही टुकड़ा-टुकड़ा हो गई। आप पटरियों के बीच गिरी और  इंजन ठीक आपके पास आकर रुक गया। आपमें और पहियों मेँ केवल एक फुट की दूरी ऊपर वाले ने  बचा लिया। । मैं ही तो आपको पटरियों से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा था। छोटे भाई जी गिरे पड़े थे उनकू मैंने खड़ा कर दिया।’’
      “मैं तो हेंडिल पर बैठा बैठा न जाने कितनी दूर तक फिसलता चला गया।पर देखो मेरे कोई चोट भी नहीं आई।’’ मिक्की  हाथ घुमा घुमाकर दिखने लगा। इस चमत्कार पर वह खुद ही हैरत में था।
      मैं कान से सुन रही थी पर आँखें कान से ज्यादा खुली थीं। एक तरफ पड़ी अपनी कुचली चप्पलों को मैंने पैरों मेँ फंसाया। एक हाथ से संजू को पकड़ा और दूसरे हाथ से  मिक्की का हाथ थामा। लोग हमारे पास भी आने लगे थे। तमाशाई बनने से पहले मैंने वहाँ से खिसक जाना ठीक समझा। दो रिक्शावालों ने हमें बैठाने से मना कर दिया । शायद इस डर से कि कहीं पुलिस की पूंछताछ के चक्कर में न पड़ जाएँ। मैं भाइयों को खींचती हुई रेलवे क्रॉसिंग से बाहर आ गई। लगा जंग के मैदान से सही सलामत हम निकल आए हैं। सड़क पर एक रिक्शा मिल गया। बूढ़ा चालक बड़ा भला मानस था। वह समझ गया हम रेल दुर्घटना के शिकार है। उसने संजू  को सहारा देते हुए रिक्शा में बैठाया। बड़ी आत्मीयता से पूछा –लल्ली कहाँ चलना है?
उसके मीठे बोलों में अपनेपन की बू पाकर मन में आया उसके सामने फूटफूटकर रो पड़ूँ—पर मेरे फूट पड़ने का भाई भी रोये बिना न रहते।उनको रोता मैं नहीं देख सकती थी इसलिए अपने पर काबू किए रही।
     रिक्शावाले ने पूछा –‘कहाँ जाना है?”
     “जाना तो गंभीरपुरा है पर उससे पहले किसी डॉक्टर के दवाईखाने पर ले चलो। जरा भाई के पट्टी करवा लूँ। देखो न ---इसके खून निकल रहा है।’’मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
      अंजान डॉक्टर के पास जाना नहीं चाहती थी। न जाने क्या उल्टा-पुलता कर दे। ताऊ जी से भी नहीं पूछना चाहती थी । वे बहुत परेशान हो जाते। इतना तो मैं समझ गई थी कि चोट गंभीर नहीं है। इसलिए अपने ही दिमाग की मशीन में तेल डाल उसे चालू रखना चाहा। हठात उन डॉक्टर का नाम याद आते ही उछल पड़ी जो हॉस्टल में हमको देखने आया करते थे। मगर एक अड़चन फिर रास्ता रोक खड़ी हो गई। नाम पता होने से क्या होता है – उनके क्लीनिक का तो अता-पता ही नहीं मालूम था। तब भी मैंने धैर्य नहीं खोया। पूछते-पाछते हम आखिर उनके क्लीनिक पहुँच ही गए।
      मुझे देखते ही वे चौंक पड़े। घुसते ही मैं बदहवास सी बोलने लगी-“डॉक्टर साहब आप संजू को तो दवा लगाकर पट्टी बांध दीजिए । मेरी और मिक्की की चोटों पर पट्टी मत बांधिएगा। उन्हें देख ताऊ जी घबरा जाएंगे और हमें पाँच बजे अनूपशहर नहीं जाने देंगे। वे नाहक परेशान होंगे। पिताजी तो खुद डॉक्टर हैं और उनके दोस्त भी। वे सब सँभाल लेंगे।’’ मैं एक सांस मेँ सब कह गई जो मुझे कहना था।
      एक मिनट को तो डॉक्टर साहब मेरे मुंह की ओर ताकते रहे। वे भी सोचते होंगे यह तूफान कहाँ से आ गया। फिर हँसते हुए बोले-“बिटिया एक मिनट बैठो तो। लो पहले तुम सब पानी पीओ। तुमको मैंने----कहीं देखा है!”
     “हाँ हाँ डॉक्टर साहब, मैं टीका राम गर्ल्स हॉस्टल मेँ रहती हूँ।आप वहाँ हर माह आते हैं न।’’
      “ओह!अब याद आया। तुम चिंता न करो । मैं चुटकी मेँ मरहम पट्टी करता हूँ।’’ उन्होने संजू  का घाव साफ कर दवापट्टी की। मिक्की के टिंचर लगा दिया क्योंकि उसके खरोंचें ही आई थीं ।
मेरी बारी आई तो बोले –“पट्टी तो तुम बंधवाओगी नहीं जबकि दोनों कोहनी मेँ घाव हैं। जो दवा लगाऊँगा उससे बहुत दर्द होगा।’’
     “कोई बात नहीं। मैं सब सह लूँगी।’’
      उन्होंने भूरे से पाउडर मेँ ट्यूब से कोई मरहम मिलाया और उसे लगाने लगे।इतनी जलन  और दर्द हुआ कि मैंने कसकर दाँत भींच लिए। आश्चर्य जरा भी न कराही।फीस देने लगी तो उन्होंने इंकार कर दिया और मेरे सिर पर स्नेह सिक्त हाथ रखते हुए बोले- “बहुत बहादुर बेटी है।’’  
      मुसीबत का बहुत बड़ा जंगल पार कर लिया था । खुशी से जल्दी जल्दी कदम बढ़ते हुए धम से रिक्शा में बैठ गई।
      रिक्शा से ताऊजी के घर पर उतरे। ताई ने दरवाजा खोला । विस्मय से ताई का मुंह खुला का खुला रह गया-“अरे  संजू को क्या हुआ?यहाँ से तो भला-चंगा गया था।’’
      “कुछ नहीं बस गिर पड़ा था। दवा लगवा दी है।’’ मैं सकपकाती बोली।
      इतने में ताऊ जी के लड़के पंकज  कॉलेज से आए। बड़े उत्तेजित दीख रहे थे। साइकिल रखते हुए वे कहने लगे- पिताजी---पिताजी  रेलवे क्रॉसिंग पर बड़ा भारी एक्सीडेंट हो गया है। भीड़ ही भीड़ जमा है। ट्रेन आ रही थी कि गलती से गेट खोल दिया। सबसे पहले कार चपेट मेँ आई फिर तांगे वाला का घोड़ा ही कट गया।, सुना हैं एक रिक्शा से भी टक्कर हुई। मुझे लगा-मानो रेडियो से कोई ताजी और अनहोनी खबर सुनाई जा रही हो।
      मुझसे  सत्य छिपाना भारी हो गया और बोल उठी – “हाँ,उसमें हम तीनों थे।’’
     “तुम तीनों!”एक पल को चेहरों पर मुर्दनी छा गई।
     “चोट तो नहीं लगीं।’’ ताऊ जी बोले।
      “नहीं-- नहीं।  ऐसी कोई बात नहीं। हम ठीक हैं। संजू के जरूर सिर मेँ पीछे की तरफ चोट आई। खून निकल रहा था। सो मैंने रास्ते मेँ हॉस्टल के डॉक्टर से पट्टी करा दी।’’ मैंने जबर्दस्ती बेफिक्री के अंदाज में कहा। अंदर ही अंदर दिल धड़ धड़ कर रहा था—कहीं ताऊ जी ने रोक लिया तो --?थोड़ी सी समझ थी कि चोटें तुरंत दर्द नहीं करती पर बाद में असर दिखाती हैं। इसलिए जल्दी से जल्दी अपने डॉक्टर पिताजी के पास पहुँच जाना चाहती थी।
     “पाँच बजे की बस से तुम अनूपशहर जाने को बैठे हो। जा सकोगे?” ताऊ जी के माथे पर चिंता की रेखाएँ उभर आईं।
      “हाँ-हाँ। हम चले जाएंगे। ’’ भाइयो की ओर देखते हुए बोली। जिससे  वे मेरा इशारा समझ जाएँ और मेरी हाँ में हाँ मिला दें।
      “कहो तो पंकज को तुम्हारे साथ भेज दूँ ?”
      “नहीं ताऊ जी। यहाँ बैठकर सीधे अनूपशहर बस अड्डे ही तो उतरेंगे।’’ उनको तसल्ली देने की कोशिश की।
      पंकज भाई बस अड्डे हमें छोड़ने गए। बस मेँ चढ़ने से पहले एक बार फिर उन्होंने पूछा –“तुम लोग जा पाओगे वरना लौट चलो।’’ उत्तर में हँसते हुए मैंने ‘न’ में गर्दन हिला दी। मैं किसी तरह कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी।
      हमें आगे की सीट मिल गई । आराम से बैठ गए। पर मेरे मन को चैन कहाँ?जल्दी से उड़कर अम्मा-पिताजी में की छत्रछाया में पहुँच जाना चाहती थी । संजू और मिक्की चुप से हो गए थे।न कोई बात करते थे न ही पूछते थे। दो छोटे भाइयों की ज़िम्मेदारी,उनकी सुरक्षा का भार मुझ पर है-इस अहसास ने चंद घंटों में मुझे उम्र से बहुत बड़ा बना दिया था।   
      बस चल दी । हम एक ही सीट पर तीनों बैठे थे। मैं बीच में थी और दोनों के हाथ कसकर पकड़ रखे थे।  4-5 किलो मीटर चलने के बाद हठात बस का एक  पहिया पंचर  हो गया। पीछे से आवाज आई ड्राइवर साहब सँभलकर ,सवारी भारी है। पीछे मुड़कर देखा ,हॉकी लिए तीन लड़के बैठे हैं। समझते देर न लगी ये धर्मसमाज या बारह सैनी कालिज के लड़के हैं। मैंने चुप ही रहना ठीक समझा। रेल दुर्घटना की खबर अब तक पूरे शहर में बिजली की तरह फैल चुकी थी। इन लड़कों को भी भनक मिल गई होगी। बस में भी दुर्घटना की चर्चा खूब गरम थी पर हम इस तरह बैठे हुए थे मानो एकदम अंजान हों। वरना प्रश्नों की बौछार शुरू हो जाती।
      अनूपशहर बस अड्डे पर पहुँचते ही रिक्शा ली। रिक्शावाला रिक्शा ठीक ही चला रहा था पर लग रहा था उसकी गति तो चींटी की सी है। दरवाजे में घुसते ही मैं ज़ोर से चिल्लाई पिताजी ---पिताजी---। पिताजी घबराते हुए ऊपर की मंजिल से नीचे उतरकर आए। संजू के पट्टी बंधे देख चौंक भी गए।बड़े यत्न से संभाली सुबकियाँ उन्हें देखते ही बिखर पड़ीं और मैं उनसे चिपट गई।  धैर्य और साहस का थामा हुआ दामन  आंसुओं में भीग गया। मुझे रोता देख संजू और मिक्की  की भी हिचकियाँ बंध गई।
      ताई के आते ही मिक्की उनकी छाया में जाकर खड़ा हो गया। संजू अम्मा के आँचल में छिप गया।
      “अरे बेटा क्या हुआ? तीनों रोते ही रहोगे या कुछ बोलोगे भी।’’ अम्मा बोलीं।
      “चाची, एक्सीडेंट हो गया।’’ मिक्की ने बड़ी देर बाद अपना मौन तोड़ा। अपनी सुरक्षा के प्रति अब वह आश्वस्त था। पर ताई,अम्मा बेचैन हो उठीं।
      पिता जी ने बात सँभाली-“अरे पहले इनके लिए ठंडी कोकोकोला मँगवाओ। शांति से बातें करेंगे। मैं डॉक्टर साहब को बुलाने किसी को भेजता हूँ।’’ 
      जब तक डॉक्टर साहब आए हमने घरवालों को अपनी रामकहानी सुना दी थी। डाक्टर साहब ने हमारे हाथ-पाँव हिलाकर जांच--पडताल की। बोले सब ठीक है। बच्चों को आराम करने दो। हाँ जाते-जाते एक एक इंजेक्शन जरूर ठोक गए।
      माँ-बाप के पास जाकर लगा जैसे मैं बहुत हल्की हो गई । दूसरे दिन से ही हम लोगों का सारा शरीर बहुत दुखने लगा।दिन में एक ही कमरे में चारपाई बिछा दी जाती। दो-तीन दिन तो करवट लेते भी कराहने लगते -- कभी एक दूसरे की तरफ देखकर हंसते पर दुर्घटना की चर्चा हमने एकदम नहीं की। एक बुरे स्वप्न की तरह भुलाने की कोशिश करते रहे। पर अतीत की काली परछाईं से कभी कोई बचा है। वर्षों पहले घटित इस दुर्घटना की याद अब भी मेरी रूह को कंपा देती है पर एक सच मेरी झोली में आकर जरूर गिरा कि जिस पर ईश्वर का हाथ होता है उसका बाल-बांका नहीं हो सकता। 
समाप्त