शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

हमारी सुकीर्ति दी और उनकी यादें


  विशिष्ट साहित्यकार 
सुकीर्ति गुप्ता(कोलकाता )


सुकीर्ति जी  के शब्दों  में ही-- 
संग -संग की गंध 
मौसम की गंध में  रच- बस गई 
उमंग भरी बाहों से दूर 
पर याद की सुगंध में खोता मन 
डूबता उतराता है ।  


बड़े दुख  की बात है कि महानगर कोलकाता की साहित्यिकी नामक संस्था की अध्यक्ष सुकीर्ति गुप्ता का पिछले मास देहांत हो गया । वे कुछ समय से बीमार चल रही थीं । यही संस्था  हस्तलिखित पत्रिका साहित्यकी का प्रकाशन भी करती है । हम सब उन्हें प्यार से सुकीर्ति  दी कहते थे जिन्होंने करीब 50   बुद्धिजीवी महिलाओं को एक सशक्त नारी मंच दिया ताकि उनसे संबन्धित मुद्दों पर विचार विनिमय हो सके और लेखनी की गतिशीलता से ऊर्जावान लहरें उठ सकें ।

'एक बार उन्होंने मुझे 'शब्दों से घुलते मिलते हुए ' अपना कविता संग्रह दिया था  ।बहुत सी कविताएं मर्म को छू -छू जाती हैं ।  कस्बे की बिटिया,बाघ ,दो औरतें उपन्यासों के अंश विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं ।

शास्त्रीय संगीत ,चित्रकला और नाटकों में उनकी विशेष रुचि थी । कवि गोष्ठियों में जब वे स्वर में कविता पाठ किया करती थीं तो श्रोतागण मुग्ध हो उठते ।

सुकीर्ति  दी ने स्वात्ंत्र्योत्रर हिन्दी लघु उपन्यासों में नारी व्यक्तित्व पर कलकत्ता  विश्वविद्यालय से पी .एच .डी की थी । कहानी संग्रह दायरे ,अकेलियाँ आदि प्रकाशित हो चुके हैं ।

सुप्रसिद्ध साहित्यकार रवीन्द्र कालिया ने 'अकेलिया' कहानी संग्रह के  संदर्भ में लिखा है –उनकी कहानियों की  सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे  धारा के साथ नहीं ,धारा के विरुद्ध लिखती हैं ।





उनकी कहानियों का मूल राग प्रेम ही है पर वे प्रेम के  श्रंगार पक्ष में  नहीं खो जातीं बल्कि प्रेम की  जटिलताओं ,विडंबनाओं और अंतर्विरोधोंकों अपनी कहानियों का आधार बनाती हैं । यद्यपि उनकी नायिकाएँ प्रेम में ठगी जाती है ,प्रेम की हिंसा की शिकार होती हैं मगर वे परास्त नहीं होतीं ,उम्मीद और जिजीविषा का दामन नहीं छोडतीं । जैनेन्द्र की मृणाल की तरह अपनी राह स्वयं खोजती हैं ।

आकर्षक व्यक्तित्व वाली सुकीर्ति दी मृदुभाषी थीं । सबसे बड़ी विशेषता उनकी यह थी कि वे सबको साथ लेकर आगे बढ़ना चाहती थीं और हमें उत्साहित करती थीं । सामूहिक कवि गोष्ठियों में अनेक कवि –कवियित्री व  साहित्यप्रेमियों से भेंट होती रहती थी । कविता पाठ के बाद यदि उनसे प्रशंसा के दो बोल सुनने को मिल जाते तो धन्य हो उठते ।
शब्दों से घुलते मिलते हुये –कविता संग्रह में उन्हों ने लिखा है --





कविता मेरे लिए एक आत्मीय सखी की तरह है जो मेरे दुख में दुखी होती है और सुख में मेरा हृदय उल्लास से भर देती है । भावनामयी समवेदनाओं ने मेरी  रिक्तता को भरा तो है पर भीड़ में अकेला करके ।

इसी संग्रह से उनकी दो कविता उद्घृत कर रही हूँ  –


एक हारी प्रतीक्षा

टिक-टिक  चलती घड़ी सी सुई
मिश्र के कैदियों सी
पत्थर का भार धोती
हृदय पर पिरेमिड बना रही है
थोड़े सी देर में
बहुत कुछ दफना दिया जाएगा
आशा ,अपेक्षा,गुंगुनाता मिलन संगीत
सब कूछ खामोश हो जाएगा
किलोपैट्रा मृत्यु का वरण करती है
संदेह सर्प सिर पर मँडराता रहेगा
अपराजित  अभिमान
ढलते सूरज की लाली में बादल जाएगा
सुंदर से ताबूत में
हरी डूब सा कोमल विश्वास है
जो जीवन की अंतिम लय तक
गर्माहट देगा ।

नारी मन

पुरइन के पत्तों पर
फिसलती बूंदों सा
नारी मन
पानी की आद्र्ता
हरियाली में डूबापन
रह रहकर कंपती
छाहों में सींजती
पंखुराया शरीर ले
करती केली गुनजन
छुई –मुई  कोमलांगी
ममता की दूधिया चाँदनी

स्रोतस्विनी स्त्री समर्पिता
को वहाँ  मिला सागर
पल –पल रिसकर
बूंद सी गई ढल
विशेषण के अभिशापों में
बांधा छ्ल से ओ मनस्विनी !

मुझे अच्छी तरह याद है –साहित्यिकी की कार्यकारिणी समिति  का गठन हो रहा था तो मुझे भी जिम्मेवारी दी गई । मैंने कहा
–न जाने मैं अपना कर्तव्य पूरी तरह निभा पाऊँगी या नहीं ।
सुकीर्ति दी ने बड़े स्नेह से मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा –शुरूआत तो होने दो -- –जरूर  कर लोगी फिर में तो हूँ ।
ऐसी थीं हमारी सुकीर्ति दी ।
एक बार वे पूना गई हुई थीं । तब उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा था । अब तो वह मेरे लिए अमूल्य निधि बन गया है। 

पूना से लिखा पत्र 



आज वे हमारे बीच नहीं हैं –बस उनकी यादें है  परंतु उनकी यादें भी साहस और शक्ति का संचार करती हैं ।

सुधा भार्गव बैंगलोर

9731552847
subharga@gmail.com









गुरुवार, 18 जुलाई 2013

साहित्यिकी संस्था कोलकाता


 लघुकथा गोष्ठी
 व 
उसकी अंतरंगता 



कोलकाता में ४० वर्ष बिताने के बाद  2 0 01 में मैं  दिल्ली आकर बस गई । उस समय तक सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुकीर्ति गुप्ता की अध्यक्षता में साहित्यिकी संस्था की स्थापना हो चुकी थी ।





 मैं कार्य कारिणी समिति में   जिम्मेवारी बखूबी निभा रही थी  कि अचानक दिल्ली आना पड़ा । लेकिन इसकी सदस्यता के कारण मैं इससे निरंतर जुड़ी रही और जुड़ी भी क्यों न रहती ----बंगाल के रहनसहन ,खान-पान  और वातावरण में पूरी तरह घुलमिल जो गई थी .। 


बार बार कलकत्ते की कवि गोष्ठियाँ याद आतीं ,साहित्यिकी की सभाएं मुखर हो उठती जहाँ वेदना -संवेदना के पट खोल ठहाके लगाने में दीन -दुनिया भुला बैठते थे । जब यादें बहुत खलबली मचाने लगीं तो 2013 से हमने वायदा किया कि नए वर्ष में कोलकता जरूर जायेंगे । हम भी वायदे के पक्के निकले --चल दिए 14 जनवरी को कलकत्ता । कुछ मित्रो को अपना प्रोग्राम पहले ही बता दिया था जो फ़ोन ,कम्प्यूटर द्वारा मुझसे जुड़े रहे । 


             वहाँ  पहुँचते ही साहित्यिकी की सचिव किरण सिपानी और रेवा जाजोडिया जी   को फ़ोन खटखटा दिए --भई  हम आगये हैं ।अब बताओ सबसे कैसे मिला जाये ?
-मैं शीघ्र ही निश्चित करके बताऊँगी ।वैसे 23तारीख को नेता जी जन्मदिन की छुट्टी रहेगी ।उस दिन अपना कोई ख़ास प्रोग्राम न बनाना ।उस दिन आपके आने की खुशी में एक गोष्ठी रखनी  ठीक रहेगी  ।लोगों को आने में सुविधा भी रहेगी ।किरण जी  की आत्मीयता का  स्वर खनखना उठा  ।
उनकी बात भी ठीक थी और हमारा तो रोम -रोम चहक उठा --आह !वर्षों बाद मिलने  -मिलाने का रंग कैसा होगा ?
मैं अपनी सहेली जयश्री दास गुप्ता के यहाँ रासबिहारी एवेन्यू में ठहरी थी यदि वह वहां न होती तो न जाने सबसे मिलना हो पात़ा या नहीं  । 



तकदीर से  रेवा जी  का घर उसके पास ही था ।अत : उन्होंने  सभा में जाने के लिए 23 तारीख   
को मुझे अपने साथ ले लिया और मैंने अपने साथियों के लिए नववर्ष की मिठाई ।
जवाहर लाल नेहरू रोड में स्थित जनसंसार  में हमें 3 बजे पहुंचना था ।कलकत्ते महानगरी की भीड़ को चीरती हमारी कार गंतव्य स्थान की और बढ़ चली । 




इस समय कार चलाना सरल न था पर रेवा जी कुशलता से चला रही थीं और कार सधे हाथों  की कठपुतली बनी हुई थी ।हमारे पहुँचने से पहले ही किरण जी  तथा कुछ सदस्य आ चुके थे ।तपाक से बड़े प्यार से मिले ।लम्बी अवधि के बाद मिल रहे थे ।ऐसा लगा दूर रहने से स्नेह धारा का वेग कुछ ज्यादा ही हो गया है ।
-क्या आप अपनी लघुकथाएँ  साथ लाई हैं ?किरण जी ने पूछा । 
-हाँ !
-हम हर माह एक गोष्ठी रखते हैं ।जिसमें साहित्यिक -सामजिक विषयों पर चर्चा होती है ।बाहर  से अतिथियों को समय -समय पर आमंत्रित करते हैं । स्थानीय विशिष्ठ व्यक्तियों को भी बुलाया जाता है ।आज के हमारे अतिथि आप हैं और परिचर्चा का विषय होगा -लघुकथाएँ -वे भी आपकी ।
मैं असमंजस में पड़  गई -अपनी -अपनी हांकना तो ठीक नहीं !परिवर्तन हमेशा सुखद होता है ।अत ;  मन ही मन निश्चय किया ,दूसरों  से भी लघुकथा सुनाने की प्रार्थना करूंगी ।

इतने में अन्य सदस्या  भी आ गईं  ।काफी अनजाने चेहरे  थे ।सुकीर्ति गुप्ता तो अस्वस्थता के कारण नहीं आ पाई थीं पर परिचितों में कुसुम जैन ,सरोजिनी शाह ,विद्या भंडारी ,विजयलक्ष्मी मिश्र आदि थे ।किरण जी ने मेरा नए सदस्यों परिचय कराया ।गर्म -गर्म चाय के सिप लेते हुए हम आपस में घुल मिल गए ।

मैंने संक्षिप्त में बताया किस तरह मैं  काव्य धारा से मुड़कर साहित्यिक विधा लघुकथा की ओर मुड़ गई ।इस सन्दर्भ में उन लघुकथाकारों का परिचय देना भी जरूरी था जिन से मुझे लिखने की प्रेरणा मिली ।उनमें बलराम ,बलराम अग्रवाल ,रामेश्वर काम्बोज ,कमल चोपड़ा आदि हैं ।
तकदीर से 2011का संरचना अंक मेरे पास था । उसमें से मुझे स्वरचित मन पंछी लघुकथा पढनी थी जिसमें एक माँ के मनोभावों को दर्शाया गया है जो विदेश में बसे बेटे और छोटी सी पोती से मिलने गई है ,वह हर परिस्थिति का सामना खुशी -खुशी करने को तैयार है । इस लघुकथा में बदलते परिवेश के अनुसार बदलती मनोवृति की झलक मिलती  है । उस पत्रिका में अनेक रचनाकारों  ने दिलचस्पी दिखाई ।इसके अलावा इंटर जाल पत्रिकाओं --हिन्दी चेतना  ,उदंती ,अविराम पर चर्चा छिड गई ,कुछ देर तक  सबको लगा उन तक कम्प्यूटर  की गति से पहुंचा जा सकता । 
विविध विषयों से सम्बंधित अन्य लघुकथाएं भी सुनी सुनाई गईं। 
पुरस्कार ( प्रकाशित -हिन्दी चेतना अंतरजाल पत्रिका लघुकथा विशेषांक  कनाडा  )
माँ (अविराम साहित्यिकी  -लघुकथा विशेषांक )
अनुभूति और परिवर्तन (ब्लॉग -तूलिका सदन sudhashilp.blogspot.com )
आदि  मैंने पढ़ीं ।

विद्या जी ने भी लघुकथा सुनाई -मंगलसूत्र ।जो नारी चेतना का प्रतीक थी ।



साहित्यिकी लघुकथा अंक के बारे में बलराम अग्रवाल ने अपने बहुमूल्य विचार दिए थे वे आगामी अंक 'व्यस्तता के बीच अकेलापन 'में प्रकाशित हो चुके हैं ।


सबके बीच मैं बहुत खुश थी ।काफी समय हो गया था ।अँधेरा घिर आया था ।चाय -नाश्ता करते समय एक दूसरे के संपर्क सूत्र लिए और अपने -अपने घरों की दिशा की ओर  बढ़ गए ।मैं, रेवा जी और किरण जी जनसंसार सभागार से साथ -साथ उतरे ।रेवा जी कार लेने  चली गईं तभी मुझे ध्यान  आया -
 -अरे फोटोग्राफी तो की ही नहीं ।
-किरण जी आप ठीक से खड़े हो जाओ ।एक फोटो तो आपकी खींच लूँ ।
मेरा मान रखने के लिए वे जहाँ थीं वहीं स्थिर हो गईं पर----



 मन में जरूर सोचा होगा --फुटपाथ पर खड़े मुझे यह क्या पागलपन सवार हो गया ।असल में उस क्षण को तो नहीं गँवाना चाहती थी ।
असल में  बीच -बीच में हम बातों में इतने मशगूल हो जाते थे कि कैमरा मोबाइल भी सोते रह गए ।
रेवा जी के आते ही कार में सवार हो गए ।वे तो कार के स्टेयरिंग को घुमा -घुमाकर अपनी कार को भयानक ट्रैफिक से निकालने के चक्कर में थीं पर अपना दिमाग कहीं और चक्कर लगा  रहा था ---जयश्री का घर आते ही रेवा जी से कहूँगी -ज़रा कार से उतरो ।मैंने वैसा ही किया -वे उतरी और मैंने उन्हें खटाक से कैमरे में बंद कर लिया ।


वे  भी मेरी  इस हरकत पर जरूर हँसी होंगी ।क्या करूँ --दिल की आवाज के आगे झुक जाती हूँ ।

रेवा जी को उस रात एक शादी में भी जाना था सो बिलम्ब किये बिना वे चल पड़ी  और  मैं भी मुट्ठी में बहुत कुछ बंद किये जयश्री के घर की सीढ़ियाँ चढ़ गई ।वह मुट्ठी आज तक नहीं खुली है ,इस डर से ---कहीं यादों के सुमन सरक न जाय  ।


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