बुधवार, 4 जुलाई 2012

आत्महत्या



छात्रों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति  


दोषी कौन ?

विद्यार्थी जीवन में सबसे बड़ी पूजा है सरस्वती पूजा और पूजा स्थली है पाठशाला ,कालिज और यूनिवर्सिटी जहाँ वे अधिक से अधिक विद्या ग्रहण करें और जीवन में आगे बढ़ें | लेकिन मुश्किल खड़ी होती है, जब उनके रास्ते में काँटें बिछा दिये जाते हैं और हम --- आये दिन अखबार की सुर्ख़ियों में पढ़ते हैं --

कक्षा दस की छात्रा नेआत्महत्या कर ली ।



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इंजीनियरिंग  का छात्र छात्रावास की दूसरी मंजिल से नीचे कूद पड़ा ।
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बारहवी कक्षा में कम अंक आने पर लड़की ने नींद की गोलियां खाकर मृत्यु को गले लगा लिया |





बारह वर्ष का लड़का लापता --स्कूल से घर नहीं लौटा --। कुछ दिन पहले से ही वह बड़ा चुपचुप रहता था |लगता था उसके दिमाग में कुछ चल रहा है ।


दुख से हृदय फट पड़ताहै--- ज़िंदगी देखी नहीं कि उसका अंत भी कर दिया ।

छात्रों में आत्महत्या की बढ़ती इस प्रवृति का आखिर दोषी कौन ?

आप जानकर मरना आसान नहीं--।

आत्महत्या करने वाले न जाने कितनी घोर मानसिक यातनाओं से गुजरे होंगे ,निराशा व कुंठाओं के समुंदर में डूबे होंगे । जब कोई किनारा न मिला ,कोई अपना न लगा तभी इस जहान को छोड़ देने पर उतारू हुये होंगे ।
गरीबी से ,बीमारी से ,दुश्मनी से तो मरने -मा रने की बात सुनी थी मगर छात्रों द्वारा अपनी जीवन लीला समाप्त करने की बात क्या नए युग की देन है !हमारी शिक्षाप्रणाली में अवश्य कोई दोष है या उस वातावरण में जिसमें बच्चे सांस ले रहे हैं ।

आज प्रतियोगिता का जमाना है जिसका अंत नहीं !पर जब इस प्रतियोगिता के अखाड़े की पृष्ठ भूमि अपना घर ,घर के परिजन ही बन जाएँ तो कष्ट की सीमा नहीं !माँ -बाप की आकांक्षाएँ भी प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं । उनके जो अरमान किसी कारणवश पूरे नहीं हुये उन्हें वे बच्चों के कंधों पर बंदूक रखकर पूरा करना चाहते हैं ।यदि बच्चा उनकी उम्मीदों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो उसका अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते औरअपने भाग्य  को कोसते जाते हैं ।

आज से करीब बीस वर्ष पहले की बात है हम उन दिनों कलकत्ते में रहा करते थे । मेरे बेटे का दाखिला खड़गपुर आई. आई. टी -इंजीनियरिंग में हो गया था । एक दिन हम पति -पत्नी अपने बेटे के साथ बंगाली मित्र से मिलने गए । ड्राइंग रूम में उनका बेटा हम से मिलने आया ।

उसके पिता तुरंत बोले-आपका बेटा आई. आई. टी. में चला गया ,बधाई है । अरे बाप्पी, अपने दोस्त से कुछ तो सीख ।
-इसका दाखिला -- कहीं नहीं हुआ --होगा कैसे !कपाल में तो गोबर भरा है गोबर । माँ बोली ।

मैं इस वार्तालाप से सन्न रह गई । एक किशोर की वेदना -संवेदनाओं से अंजान बनते हुये उसका इतना तिरस्कार!वह भी उसके सहपाठी के समक्ष । कहना था तो अकेले में ही कहते, कुछ इस तरह कि उसे अपने दोस्त से कुछ प्रेरणा मिलती । वह खिसियाता हुआ मेरे बेटे के साथ दूसरे कमरे में चला गया ।

भगवान ने पांचोंउँगलियाँ बराबर नहीं बनाईं तो हर बच्चा मानसिक -शारीरिक स्तरपर समान कैसे हो सकताहै । बौद्धिकता की तो कोई सीमा नहीं । इस दृष्टि से तुलना करने का प्रयास करनास्वयं में एक मूर्खता है । यह तथ्य बाप्पी के माता -पिता न समझ सके ।
ऐसा माहौल ही जन्म देताहै हीनता की ग्रंथि को । छात्र अंदर ही अंदर सुलगता रहता है ,उसका रोम -रोम सिसकता है । सोचता है --मैं तो हर तरहसे बेकार हूँ । मेरी किसी को न कोई जरूरत है न कोई लगाब है --फिर जीने से भी क्या लाभ ।

इस तरह असमय ही छात्र मौत के कगार में ढकेल दिये जाते हैं । इससे बचने के लिए माँ -बाप का अपनी सोच में परिवर्तन लाना नितांत आवश्यक है |उनके हाथ का एक स्पर्श बच्चे की सुरक्षा का कवच है |



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