शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

किशोर डायरी के पन्ने


किशोरावस्था 



किशोरावस्था जीवन का एक यथार्थ है |

बाल्यवस्था से  युवावस्था तक पहुंचने की एक कड़ी है । किशोर अपनी अलग पहचान बनाने  की कोशिश इसी अवस्था से शूरू करते हैं ।उनमें शारीरिक -मानसिक परिवर्तन परिलक्षित होने लगते हैं ।उलझन में फंसे ,दुविधा में पड़े किशोरे अपने माँ -बाप से प्रथम सहयोग ,मार्गदर्शन व् प्यार की उम्मीद करते हैं ।

दुर्भाग्य ,भौतिक वाद के अनुयायी माँ -बाप को जीवन की भागदौड़ से इतना समय कहाँ कि वे धैर्य  से किशोर की जिज्ञासा शांत कर सकें ।उसके सर पर स्नेह का चंदोवा  तान सकें ,अपने अहं  और मान प्रतिष्ठा को ताक में रखकर उसके ह्रदय की कोमल तरंगों की आहट  पा सकें ।

थके -हारे झुंझलाए से वे अपने व्यंग्य बाणों और थप्पड़ों से किशोर का तन -मन झुलसा देना चाहते हैं ।उनकी आँखें तानाशाह सी कहती हैं --खबरदार जो सर उठाया ,कुचल दिए जाओगे ।उपेक्षा ,अपमान ,ह्रदय हीनता से किशोर निराश हो उठता है ।जब तक घरवाले समझते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और सुनने में आता है -उसके लड़के ने आत्म हत्या कर ली हैं ,अरे वो छोरा तो स्कूल ही न पहुंचा ---गजब हो गया --आजकल बच्चों  से कुछ कहने का धर्म नहीं ।

अध्यापन काल में मैं अनेक किशोरों के सम्पर्क  में आई ,उनके मनोभावों को पढने का यत्न किया । अपने अनुभवों को -किशोर डायरी के कुछ पन्नों में समेट  दिया है ।इनको पढने से शायद किशोरों को समझा जा सके और उनके व्यक्तित्व के विकास का मार्ग प्रशस्त हो

यह डायरी स्पंदन पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है ।पाठक मित्रों की सलाह पर अब मैं इसे अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर रही हूँ । 

किशोर डायरी का प्रथम पन्ना 


माँ आप सुबह सात बजे ही अपने औफिस के लिए घर से निकल पड़ती हो  ।केवल चाय पी पाती हो   ।लौटती हो बहुत थकी हुई ।मुझे आप पर बहुत तरस आता है ।जी चाहता है भाग -भाग कर आपके काम करूं ।लेकिन कर नहीं पाता  ।करूं कैसे ?जानता ही नहीं उन्हें करना ।

कल मेरा गृह कार्य कराते समय बहुत  झल्ला रही थीं|मैंने सोचा आपके आने से पहले सुलेख तो लिख ही सकता हूँ ।बहुत ध्यान से धीरे -धीरे लिखा ।घर में आपके घुसते ही मैं इतराते बोला---

--मैंने अपना गृहकार्य ख़तम कर लिया है --देखो न माँ !
-क्या माँ -माँ की रट लगा रखी है ,एक मिनट तो सांस लेने दो ।
गुलाब सा खिला मेरा चेहरा मुरझा गया ।मैं गुमसुम  बैठ गया ----शायद मनाने आओ ।नहीं आईं ---।चाय पीने के बाद सो गईं ।शाम को उठीं ।उस समय मैं बाहर खेलने जा रहा था ।आपने मुझे रोक लिया --

-कहाँ चले नबाब ,लाओ जरा देखूँ क्या किया  है  !
सुलेख पर नजर पड़ते  ही तमतमा उठीं --
अरे !यह क्या !ज्यादातर    शब्द लाइन से बाहर निकले हैं ।कोई अक्षर छोटा है कोई बड़ा ।कितनी बार कहा है --ठीक से लिखा कर पर नहीं -न सुनने की तो कसम खा रखी है ।

मुझे  काट कर तुम चली गईं ।मेरी सारी खुशियाँ भी अपने साथ ले गईं ।

माँ ,आप दुनिया में पहले आईं मैं बाद में आया ।आपके हाथ बड़े -बड़े हैं ,मेरे छोटे -छोटे ।आपको लिखने का जो अनुभव हैं मुझे नहीं ।अगर मेरे अक्षरों की बनावट खराब है तो क्यों आशा करती हो कि मैं भी आपकी तरह मोती से अक्षर बनाऊँ ।

मुझे कुछ समय दो और अभ्यास करने दो माँ  

क्रमश :
* * * * * *

3 टिप्‍पणियां:

  1. वर्तमान का दुखद सत्य - एक एक टुकडा आज की स्थिति का आपने रख दिया , फिर भी कोई समझेगा क्या ????

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  2. ओह ..
    बहुत दुखद ..
    बहुत गडबड है आज की जीवनशैली

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  3. यदि हम सत्य को स्वीकार करते हैं तो परिवर्तन जरूर आयेगा ।अविलम्ब टिप्पणी के लिए शुक्रिया ।

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