साहित्यकुंज अंतर्जाल पत्रिका में प्रकाशित
अंक फरवरी
http://sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/27_
dard_ke_tever_Sansmaran.htm
डायरी के पन्ने
दर्द के तेवर
सुधा भार्गव
24 6 2003
यहाँ
आने पर एक माह तो हम पति-पत्नी स्वस्थ रहे। फिर न जाने क्या हुआ कि भार्गव जी की
गर्दन और कंधे में दर्द होने लगा । धीरे धीरे यह दर्द सीधे हाथ की ओर बढ्ने लगा।
सावधानी और नियमित जीवन बिताने वाले को ऐसी व्याधि!मैं तो घबरा उठी। मन में संदेह
का कीड़ा रेंगने लगा कहीं दिल का रोग तो नहीं होने वाला है। कलकता होम्योपैथिक
डॉक्टर सिन्हा को फोन खटखटा दिया,दिल्ली अपोलो हॉस्पिटल के
विख्यात हृदय विशेषज्ञ डॉक्टर सक्सेना से बातें की। अपने बेटी और जमाई से भी बातें
करना न भूली क्योंकि वे दोनों ही डॉक्टर है। सबसे सांत्वना के दो शब्द पाकर
व्याकुलता कम हुई और निश्चित हुआ कि दर्द का संबंध मांसपेशियों से है न कि दिल से।
एक बार पेशीय दर्द इनके पहले भी हुआ था।
यहाँ
के नागरिकों के स्वास्थय का पूरा दायित्व सरकार का है। एक से एक उत्तम सुविधाएं।
पर उन माँ बाप का क्या जो चंद दिनों को बाहर से अपने बच्चों से मिलने आते हैं, बीमारी आने पर भागदौड़ में उनको तो पसीना आ जाता है और पैसे पर चलती है
चक्की अलग। जब हमारे बच्चे इस देश को आगे बढ़ाने में लगे है तो उनके माँ-बाप की
अवहेलना क्यों? पर मैं ऐसा सोच क्यों रही हूँ? शायद भावनाओं का यहाँ कोई मूल्य नहीं!
भारत
में अधिकांशतया कर्मचारियों को बुजुर्ग माँ-बाप और बच्चों की चिकित्सा के लिए कुछ धन राशि मिलती है
क्योंकि वे सब एक ही परिवार के माने जाते हैं। यहाँ अलगाववादी प्रक्रिया ने
व्यक्ति विशेष को ही प्रधानता दी है। इसी कारण सब अलग-थलग ,आत्मकेंद्रित और संवेदनहीन नजर आते हैं।
भार्गव
जी के दर्द के लिए डॉक्टर सिन्हा ने दवा फोन पर ही बता दी। यह दवा पहले भी भारत
में ले चुके थे। पर डॉक्टर के बिना लिखित नुस्खे के दवा का मिलना असंभव था । तकदीर
से डाक्टर सिन्हा का पुराना नुस्खा भार्गव जी के पर्स में ही मिल गया। राहत मिली। दवा
से आराम होने लगा तो मैं भार्गव जी की तरफ से बेफिक्र हो गई।
*
छोटी पर
बात बड़ी
कुछ न
कुछ जीवन में घटता ही रहता है पर उन्हें
निरर्थक ,अर्थहीन समझकर भूलना ठीक नहीं। मेरे लिए तो छोटी छोटी बातें अर्थपूर्ण और
जीवन दायिनी हैं।
यह बात
उन दिनों की है जब भार्गव जी के दर्द के तेवर संभाले नहीं सँभल रहे थे। चाँद मेरे
पास आकर धीरे से बोला -माँ,आज से आप और पापा मेरे कमरे वाले
पलंग पर सोएँगे । मैंने उसे पिछले माह ही खरीदा है। किंग साइज डबल गद्दे पर सोने
से गर्दन का दर्द भाग जाएगा।
“न
बेटा,मैं तुम्हारे बैड रूम में नहीं सोऊँगी। तुमने कितने शौक से पलंग लगाया है
और हम सो जाएँ। यह कहाँ की रीति है?”
“लेकिन
बेटे की कमाई पर तो माँ-बाप का भी हक है।”
हमने
उसके इस निर्णय का दिल से समर्थन किया । खुशी के अतिरेक से नेत्र सजल हो उठे।
उसके
अनुरोध को टालने की गुंजायश न थी। उस समय मेरी पोती एक माह की थी।सारा समान दूसरे
कमरे में ले जाना पड़ा। उस कमरे में उससे जुड़ा स्नानागार भी न था। बच्चे के साथ बड़ी
असुविधा रही होगी।
हमें
उसके कमरे में सोना ही पड़ा।सोये तो कम ही,रात भर बस पलकें
झपकाते रहे और उसकी तारीफ करते रहे।
सुबह
की बेला में बेटे से आमना सामना हुआ। गले मिले। उसकी आँखें चमक रही थीं सोच सोचकर
कि माँ-बाप रात भर गहरी नींद में भरपूर सोए होंगे और दर्द भी कम होगा। पर अपनी गति
हम ही जानते थे।
संध्या
घिरते ही हमने निश्चय किया कि आज उनके बैड रूम में नहीं सोना है,वहाँ सोना उनके प्रति अन्याय होगा। उसको समझाना बड़ी टेढ़ी खीर साबित हुआ।
सब एक दूसरे के सुखों से जुड़े थे।