रविवार, 25 फ़रवरी 2018

कनाडा डायरी की तेईसवीं कड़ी


अंक जनवरी 2018
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डायरी के पन्ने


सुधा भार्गव
    
30 5 2003
    
    समय के तो पंख लगे है। देखते ही देखते मेरी पोती  एक मास की हो गई। आज ही के दिन वह नटखट गुड़िया की तरह अपनी मम्मी को अस्पताल में सता रही थी।
    सुबह उठते ही उसका पापा बोला “माँ,आज कुछ मित्र अपने  छोटे बच्चों के साथ आएंगे।फिर मिलकर अवनि का जन्मदिन मनाएंगे।”
    “अरे जन्मदिन मनाने के तो बहुत दिन हैं। अभी तो एक माह की ही हुई है।”
    “हाँ तो एक माह वाला जन्मदिन ही तो मनाएंगे।”
    मैं तो हैरान सी उसकी ओर ताकने लगी।मेरे लिए तो यह अनोखी बात थी।
     मेरे मनोभावों को ताड़ते हुए बोला-“अवनि की एक एलबम तैयार करनी है। इसलिए उसकी तरह तरह की मतलब हँसते हुए,रोते हुए,मुंह बनाते हुए की फोटूएँ खींचनी हैं। । जिससे याद रहेगा एक माह की वह क्या -क्या गुल खिलाती थी। फिर अगले माह भी ऐसा ही करेंगे। इस तरह एक साल तक हर माह उसका जन्मदिन मनाएंगे। उसकी सारी गतिविधियां कैमरे में कैद कर लेंगे। एक साल के बाद जब अपनी फोटुयें देखेगी तो उसे बड़ा मजा आएगा।”
   “विचार तो बहुत अच्छा है। एक साल तक बच्चे का विकास बहुत तेजी से होता है। हमें भी उसके विभिन्न रूप देख आनंद आएगा। तरह तरह के मुंह बनाने में तो वह उस्ताद है। अच्छा एक काम कर।”
    “क्या माँ?
    “एक माह तक तो उसके मालिश नहीं हुई। सोच रही हूँ आज से उसके तेल मालिश शुरू कर दूँ। एक फोटो मालिश करते समय की ले लेना। बड़ी होकर अवनि को पता तो लगेगा कि मैंने उसके तेल लगाया था।”
    “हाँ—हाँ एक नहीं दस ले लूँगा।”
    ‘आज तो नहलाने के बाद उसे उसकी बुआ के कपड़े पहनाऊंगी।‘ यह सोचकर उठी और छटुलनी का पिटारा खोल बैठी। उसकी बुआ ने छ्टुलनी का सामान पैक करके मेरे साथ भेजा था। हमारे यहाँ यह रस्म हैं कि नवजात शिशु की बुआ उसकी जरूरत का सामान  सँजोकर भेजती हैं। उसी को छ्टुलनी कहते हैं। उसमें से चादर तकिये निकालकर उसका पालना पहली बार सुसज्जित किया। बहुत सुंदर लग रहा था उसका कमरा। मुझे लगा -रेशम के तारों से कढ़ी चादर में हँसते फूल उसका अभिनंदन करने में बाजी लगा रहे हैं कि देखें किसको वह प्रथम छूती है।
    बेटा तो ओफिस चला गया । शाम को ही पार्टी फार्टी होनी थी। मैंने महसूस किया कि अवनि के आने से मोह का धागा बड़ा मजबूत हो गया है। जितना  इसे समेटने की कोशिश करती हूँ  उतना ही फैलकर एक कसक पैदा करने से बाज नहीं आता –तू यहाँ से चली जाएगी तो पोती को बिना देखे कैसे रहेगी?मगर मैं मजबूर हूँ। बस एक गहरी सांस लेकर रह जाती हूँ।
    दोपहर को मोंटेसरी वार्षिकोत्सव में चली गई थी पर शाम होते होते लौट आई। उस समय तक आत्मीय मित्र अपने बच्चों के साथ आ गए थे। बच्चे बच्चों को देख बड़े खुश। उनके कारण अच्छी ख़ासी चहल-पहल थी ।  
    मेज पर चाकलेट की परतों से ढका सजा केक देखकर बाँछें खिल गईं। मेरी पोती तो अपनी मम्मी की गोद में समाई केक को एकटक देख रही थी। लगता था उसके मुंह में पानी आ रहा है।  बेटे ने अपनी बेटी के मन की शायद बात समझ ली।,इसीकरण उसने केक का छोटा सा टुकड़ा काट कर उसके होंठों से लगाया और बाद में खुद खा गया।
    रोना –मचलना,हँसना-मुसकराना सभी रंग फैले हुए थे। बड़े बच्चे अवनि को गोद में लेने को उत्सुक थे। कभी उसे छूकर देखते ।कभी मुट्ठी खोल नाजुक सी उँगलियों को अपने हाथ में लेते। वह इन्हें गुड़िया सी लग रही थी। एक तरह से यह बच्चा पार्टी थी।सबको ही चिंता थी-बच्चे भूखे न रह जाएँ। कैमरे भी बच्चों की भोली-भाली सूरत ही को अपने कलेजे से लगाना चाहते थे। पार्टी जल्दी ही खतम हो गई। क्योंकि बच्चों के सोने -सुलाने का समय हो गया था।
    चाँद और शीतल काफी थक गए हैं। एक बार मेरा मन हुआ कि कहूँ-रात में अवनि जागे तो मुझे दे जाना। अपनी बाहों का पालना बनाकर उसे झुलाती रहूँगी।इससे  तुम्हें 2-3 घंटे सोने का समय भी मिल जाएगा। इतना कहने की लेकिन हिम्मत न जुटा पाई।शायद बच्चों को रखने का मेरा तरीका 30 वर्ष पुराना हो। पालन पोषण का तरीका चाहे बदल गया हो परंतु वात्सल्यमयी गोद ,प्यार पूरित हृदय की परिभाषा में तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ।

क्रमश :