प्रकाशित
साहित्य सुधा -साहित्यकारों की वेब पत्रिका
अंक अगस्त -2018
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स्मृतियों की संदूकची
आश्चर्य पर आश्चर्य
सुधा भार्गव
14मई ,2017
मेरे छोटे बेटे को आश्चर्य पर आश्चर्य देने की आदत
है। उसकी पत्नी भी उसका खूब साथ देती है। अचानक झोली में आन पड़ी खुशियों का भार
सँभालना कभी कभी मुश्किल भी हो जाता है। पर इतना अवश्य है कि एक अरसे तक आश्चर्य
के सम्मोहन से रोम -रोम पुलकायमान रहता है।
मुझे अच्छी तरह याद हैं बेटे की शादी के बाद हम पति-
पत्नी पहली बार उससे मिलने अमेरिका गए थे।
एक दिन रात को भोजन करने के बाद वह बोला-“पापा मैं अभी आता हूँ।’’वह और बहू खुसर-पुसुर करते गायब हो गए। हम सोचते ही रहे—‘इतनी रात गए अचानक कहाँ जाना पड़
गया! ऑफिस से आने के बाद तो वह हमारे बिना कहीं जाता ही नहीं है ।’
करीब एक घंटे के बाद दोनों लौट कर आए। चेहरे पर
हर्ष की लहरें तरंगित हो रही थीं । एकाएक इतना उल्लास!
बेटा खनकती आवाज में बोला-“पापा,खिड़की से जरा बाहर झांक कर तो देखो।”
“दरवाजे
पर तो कार खड़ी सी लगती है।कोई आया है क्या?”
“यह मैंने
आपके लिए खरीदी है। कल से खूब घूमेंगे।“
“अरे वाह!
तूने कार खरीद ली।” वे बच्चे की तरह चहक
पड़े और बेटे को गले लगा लिया ।
कुछ
वर्षों के बाद वह पूना आ गया। उन दिनों हम दिल्ली रहते थे। सर्दी के दिन थे इसलिए
जल्दी खा-पीकर लिहाफ में दुबक जाते।रूम हीटर और साथ में टी॰ वी। दोनों चालू कर
देते। उस रात भी टी॰ वी॰ बंद कर सोने का उपक्रम कर ही रहे थे कि दरवाजे की घंटी बज
उठी ।हम दोनों ही एक बारगी तो बुरी तरह चौंक पड़े, फिर मैं
बोली-“सो जाओ—सो जाओ। रात के बारह बजे हमसे मिलने कौन आयेगा?किसी
ने गलती से बजा दी है।”
एक मिनट बाद फिर घंटी बोल पड़ी। साथ ही मेरा मोबाइल
भी घरघरा उठा –हेलो माँ! कैसी हो?
“कौन,मन्नू! इतनी रात गए तेरा फोन! सब
ठीक तो है। मैं अनहोनी की आशंका से ग्रसित
हो उठी।
“हाँ माँ।’’
“जरा मन्नू से बात करो जी ,मैं जाकर दरवाजे पर देखती
हूँ –।’’ मैं फुर्ती से कमरे से बाहर हो गई।
ये ज़ोर से बोले –“दरवाजा न खोलना।’’
मैं सांस रोके दरवाजे के पास खड़ी थाह लेने
लगी, “कौन हो सकता है? निश्चय ही दरवाजे से बाहर कोई खड़ा
है।”
तभी दरवाजा किसी ने ज़ोर से थपथपाया। मैंने
कड़ककर पूछा–“कौन है?”
धीमी रेशम सी आवाज आई –“माँ मैं हूँ।”
“तू मन्नू !अभी तो पूना से तेरा फोन आया था।
यहाँ कैसे हो सकता है?”
“माँ मैंने यहीं से फोन किया था। दरवाजा
खोलो।”
पीछे से दहशत भरा स्वर गूँजा ---दरवाजा न
खोलो। मुझे रोकने को मेरे पति छटपटाते मेरी तरफ दौड़े दौड़े आए। तब तक मैं दरवाजा खोल चुकी
थी। मन्नू अंदर आते ही बोला- “पापा हैपी बर्थ डे।” एक मिनट को उन्हें अपनी आँखों
पर विश्वास न हुआ पर दूसरे पल ही वास्तविकता का भान हुआ तो गदगद हो बेटे को अपनी
बाहों के घेरे में ले लिया।
“बेटा आने की खबर भी न की।” प्यार भरा लहजा शिकायत
से भरपूर था ।
“ओह प्यारे पापा, आपके
जन्मदिन पर अचानक आकर दोनों को चकित कर देना चाहता था।”
“इतना बड़ा हो गया पर तेरी सरप्राइज़ देने की
आदत गई नहीं। अच्छा अचानक आना कैसे हुआ?”
“आपकी बर्थडे के लिए ही आया हूँ। पापा यह
रहा आपका गिफ्ट।”
“बेटा सबसे बड़ा गिफ्ट तो यही है कि तू हमसे
मिलने आ गया।” बड़ी देर तक मैं उसके हाथ को ममता से सहलाती रही।
हाँ अब तो वह दो बच्चों का बाप हो गया है। पर वक्त
- बेवक्त दूसरों को हैरानी में डालना नहीं छोड़ा है। ऐसी प्लानिंग करता है कि किसी
को कानों-कान खबर हो ही नहीं पाती।
कल ही हम गोवा से लौटकर आए हैं। दो हफ्ते पहले वह बोला
था – “माँ गोवा चलोगी?”
“हाँ हाँ क्यों नहीं। बाहर गए हुए भी बहुत दिन हो
गए हैं।” मैंने साधारण तौर से कह दिया।
गोवा जाने के लिए 14 मई की हवाई जहाज की टिकटें उसने
बुक करा दीं।
उस दिन बड़े सवेरे बेटी का फोन आया–“माँ, हैपी मदर्स डे। सुनते ही दिमाग को जोरदार झटका लगा और वह बड़ी तेजी से काम
करने लगा। अब समझ में आया बेटे ने गोआ जाने के लिए 14 तारीख ही क्यों चुनी। अधरों
पर वात्सल्य में डूबी मुस्कराहट फैल गई।
संयोग की बात, इस ट्रिप में तीन
माँ साथ साथ थीं।मैं, मेरी पोतियों की माँ और मां की माँ –मतलब
मेरी समधिन जी। गोवा ट्रिप की बजाय इसे मदर्स ट्रिप कहा जाय तो ठीक रहेगा।
अब मुझे अगले आश्चर्य का इंतजार है।बेटे का हर सरप्राइज़ मेरी उम्र बढ़ा देता है। ऐसा लगता है जैसे ईशवर ने
मेरे कंधे पर अपनी उँगलियों की छाप छोड़ दी हो।
समाप्त