दादी माँ बताती हैं --
आप रोज मंदिर जाती थीं ।भगवान् से कहती थीं --मुझे एक गुड्डा चाहिए ।
उसने गुड्डे के रूप में मुझे भेज दिया ।उस समय मेरे दांत नहीं थे ,चल फिर भी नहीं सकता था ।आपने मुझे दूध पीना सिखाया ।रगड़ -रगड़ कर नहलातीं,गोदी में लिए घूमतीं ।
धीरे -धीरे दांत निकल आये ,चलने फिरने लगा ,पहले -पहले दाल चावल सटक जाता था ,अब खूब चबा -चबा कर खाता हूँ ।
लेकिन माँ यह सब एक दिन में नहीं हुआ ,धीरे -धीरे हुआ ।अभी तो मुझे बहत कुछ सीखना है ।आपको धैर्य तो रखना ही पडेगा ।क्यों जल्दी -जल्दी में अपनी आवाज भी कड़वी कर लेती हो ।लगता है मुझसे तंग आ गई हो ।पर मेरा क्या कसूर !
मैं खुद आपके पास चलकर नहीं आया बल्कि बुलाया गया ।मैं तो भगवान् का दिया उपहार हूँ ।इसकी देखभाल तो करनी ही पड़ेगी --चाहे खुश होकर करो या दुखी होकर ।दुखी होकर करोगी तो मैं मुरझा जाऊँगा ।
प्यार भरी छुअन ,प्यार भरी निगाहें तो मैं पैदा होते ही पह्चानता हूँ ।
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