शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

कनाडा डायरी कड़ी।। 37।।

कनाडा डायरी के पन्ने 



प्रकाशित 
अंतर्जाल पत्रिका साहित्यकुंज कनाडा 


सुधा भार्गव 
20 8 2003
      समय बीतते देर नहीं लगती। एक दिन वह था जब हम यहाँ आए आए थे। कुछ दिनों तक तो बेटे की मित्रमंडली से भोज का निमंत्रण मिलता ही रहता था। स्वागत में वे आँखें बिछा देते। बेटे के दोस्तों का अनुराग देख हम उनकी प्रशंसा किए बिना न रहे।  वे मेरे बच्चों के समान ही हैं । मैं भी जब उनसे मिलने जाती एक न एक अपने हाथ से व्यंजन बनाकर उनके लिए ले जाती।
       अब फिर से जल्दी- जल्दी भोज के लिए हम  आमंत्रित किए जा रहे हैं।पर पहले जैसा उत्साह नहीं है। हमें लगता है लास्ट सपर हो रहा है। लौटते समय दर्द की हूक छिपाकर लाते हैं। उनके प्यार में डुबकियाँ भी लगाना अच्छा लगता है। बस एक ही अफसोस रहा:यहाँ पाँच माह रही पर किसी के लिए कोई भी पेंटिंग नहीं बना पाई। भारत से कुछ कलात्मक चीजें भी नहीं लाई कि उन्हें उपहार स्वरूप दे पाती। सभी तो भारतीय हस्तकलाओं व दस्तकारी के प्रेमी निकले। 
        इस मित्रमंडली के ज़्यादातर युवक आई ॰आई ॰टी के छात्र रह चुके हैं। कोई मद्रासी है तो कोई बंगाली, कोई गुजराती है तो कोई मारवाड़ी । पर अपनी संस्कृति व भाषा की पूरी तरह रक्षा किए हुए हैं।पिछली बार मैं सौम्य चटर्जी के गई थी। वह बंगाली में बातें कर रहा था। हम लोग अनेक वर्ष कलकत्ता रहे,बंगाली भाषा भी जानते हैं सो खूब पट रही थे। इतने में उसका दो वर्षीय लड़का बाबुली आँखें मलते हुए आया और  अपने पापा की गोद में बैठ करने लगा बंगाली में ही बातें। मैं हैरान—बोली –“अरे यह तो खूब अच्छी बंगाली बोलता है।”
      “हाँ आंटी,घर में हम इससे बंगाली में ही बोलते हैं। वरना अपनी भाषा कैसे सीखेगा?अँग्रेजी के लिए मोंटेसरी ही बहुत।”
      “तुम एकदम ठीक कह रहे हो।” मेरी आँखें मुसकाती उसकी तारीफ कर रही थीं।
      “आंटी ,इससे मिलिए –यह तारक है। अगले माह भारत लौट रहा है। रात –दिन इसे अपनी माँ की याद सताती है।”
      “सच में तारक तुम जा रहे हो –वह भी अपनी माँ के कारण ?”मेरे कान सुनी बात पर विश्वास न कर सके।
      “हाँ जी।बहुत पैसा कमा लिया। पैसा ही तो सब कुछ नहीं , मेरे माँ-बाप, मेरा देश मुझे बुला रहा है। अपने हुनर से अपने देश को बढ़ाऊंगा। पैसा तो कहीं भी कमा लूँगा। 10 नहीं तो 8 ही सही। भारत भी अब किसी से कम नहीं।”
       इतना आत्मविश्वास! आत्मसम्मान से सिर ऊंचा करके जीने की इतनी चाहत! इन नवयुवकों पर मुझे गर्व हो आया।
       भारत जाने के अब कुछ ही दिन शेष हैं। उन्हें अपनी उंगली पर गिनने लगी हूँ-एक -दो-तीन----।  मन करता है चाँद मेरे सामने ही बैठा घूमता रहे ताकि उसे देख सकूँ ताकि  अलगाव की कसक अभी से न घायल करने लगे।पोती को कसकर छाती से लगा लेती हूँ । सुना है स्पर्श में भावों के स्पंदन की अटूट शक्ति है। एक साल के बाद बहू-बेटे का भारत आने का प्रोग्राम है। क्या वह मुझे याद रख पाएगी?कोई उसे मेरी याद दिलाएगा भी या नहीं । बस ऐसी ही उलझनों में उलझ कर रह जाती हूँ।
       आज मैंने काफी सामान बांध लिया है। कुछ अपने लिए कुछ बड़ी बहू व बेटी के लिए। लगता है सब समान मैं ही रख लूँ। इसलिए नहीं कि मुझे चाहिए बल्कि इस लिए कि वह सब मेरे बेटे की कमाई का है। भूल जाती हूँ कि मेरे बेटे-बेटी उसके भाई-बहन भी हैं। मैं –मेरे के चक्कर में माँ होकर भी कभी-कभी इतनी स्वार्थी कैसे हो जाती हूँ—बड़ा ताज्जुब होता है।
       आजकल मेरे ख्यालों में बेटा चाँद ही समाया रहता है। कभी-कभी चुपके से आकर गंभीरता से पूछता-“माँ यहाँ खुश तो रहीं। मुझसे या शीतल से कोई गलती तो नहीं हुई। गलती हो जाय तो बता देना –रहूँगा तो तुम्हारा छोटा बच्चा ही।” जी भर आता –बोलते कुछ न बनता
--- बस उसके सिर पर हाथ फेरने लगती।
        चाँद सामान तौलता तो छाती फटती है—30-30 किलो की बड़ी-बड़ी अटैचियाँ!दिल्ली से जब चली थी तो सोचा था भविष्य में कभी इतना समान लेकर नहीं चलूँगी। मगर बच्चों के मोह और मृग मारीचिका की जकड़न ने फिर अति का समान इखट्टा कर लिया। चाहती थी खाने का सामान वजन के अनुसार सबसे बाद में खरीदूँगी। मगर शीतल ने मनपसंद बिस्कुट,स्विस केक ,मुच्छी चिप्स,बादाम-पिस्ते न जाने क्या क्या खरीद लिया। ऐसा लग  रहा है मानो मैं माँ के घर से विदा होकर जा रही हूँ।
      पैकिंग के बाद चाँद बोला-माँ अभी जगह है ,चलो बाकी का समान खरीद कर ले आते हैं। चुटकियों में तैयार हो उसकी कार में जा बैठे और टोयटा केम्री शीघ्र ही हवा से बातें करने लगी। उसने बड़े चाव से अपने जीजाजी के लिए राई वाइन और वाइन ग्लास खरीदे । कॉफी का बड़ा सा मग हाथ में लिए जल्दी ही लौट आए।
       मेरे पास स्मृति वस्तुओं (souvenir collection)का अच्छा खासा संग्रह हो गया है  । जहां भी जाती हूँ यादगार के तौर पर एक चीज जरूर ले लेती हूँ ।प्रीति उपहार भी बहुत आकर्षक हैं । विचारों के फंदे  तो हमेशा से समय की सलाइयाँ बुनती चली आई हैं सो एक फंदा और तैयार होने लगा है -जिस प्यार व चाव से गिफ्ट दिये गए हैं और स्मृति पदार्थ खरीदे हैं,उन्हें शौक से अपने घर में सजाऊँगी।”
      26 जनवरी को अवनि के नाना-नानी एडमिंटन से आने वाले हैं । इसलिए आज ही ऊपर का कमरा छोड़कर नीचे सामान ले आए। सोने ऊपर ही चले जाते हैं पर 26 ता: से दूसरे कमरे में सोना पड़ेगा। दो दिन की ही तो बात है फिर तो भारत चले ही जाएँगे। चार दिन को आए पर ऊपर वाला कमरा अपना लगने लगा।उसे छोड़ते समय मन खिन्न था। सच कहूँ –मैंने महसूस किया कि अधिकार खोना कितना खराब लगता है! भूल गई कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। थोड़ी देर के लिए अतीत की भूलभुलैया में खो गई।
      फरीदाबाद में माँ छोटे भाई के साथ रहती थी। उनका कमरा अलग व आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित था।ज्यादातर मैं कलकत्ते से आकर उन्हीं  के पास सोती थी ,उनका ज्यादा से ज्यादा साथ चाहती थी। बदकिस्मती से हार्ट अटैक के कारण उनकी अचानक मृत्यु हो गईं। अंतिम क्रिया के बाद दुबारा भाई से मिलने गई । चुंबक की तरह पैर माँ के कमरे की ओर बढ़ गए। सोचा-माँ नहीं तो क्या हुआ!अलमारी में टंगे उनके कपड़े,मेज पर रखी दवाइयाँ, पूजा की माला देखकर ही संतुष्ट हो जाऊँगी। उनकी उपस्थिति का कुछ तो अहसास होगा। पर यह क्या! दरवाजे पर पैर रखते ही बिजली का झटका सा लगा—जो दिखाई दे रहा था उस पर विश्वास करना मेरे बूते के बाहर था । वह कमरा भतीजे-भतीजी का अध्ययन कक्ष बन गया था।माँ का नामोनिशान मिट चुका था।  इस बदलाब को न मन मानने को तैयार था न आँखें ही अभ्यस्त थीं। तभी विवेक ने सिर उठाया- जो आया है वह जाएगा ही और उसके जाने के बाद अन्य उसकी जगह लेगा—यह तो प्रकृति का नियम है । इस कमरे में रहने वाली तुम्हारी माँ थी,अब भी रहने वाले तुम्हारे ही हैं। यहाँ तो अन्य कोई है ही नहीं फिर शिलागिलवा कैसा! इस सोच ने मुझे स्थिरता दी,तब कहीं जाकर चित्त शांत हुआ। 
क्रमश:  
 




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