कनाडा डायरी के पन्ने
20॰ 7॰ 2003
प्रकाशित
अपनी भाषा अपने रंग
सुधा भार्गव
20॰ 7॰ 2003
पिछले माह डॉक्टर भागीरथ ने आकर हमें बहुत प्रभावित कर दिया था बहुत से कवियों और लेखकों के नाम गिनाकर। साथ ही वायदा भी किया कि आगामी कवि सम्मेलन में मुझे अवश्य बुलाकर ओटावा की कवि मंडली से परिचय कराएंगे। साथ ही कविता पाठ करने का मौका देंगे। सुनते ही हम तो गदगद हो गए और अपना कविता संग्रह ‘रोशनी की तलाश में’ तुरंत उन्हें भेंट में दिया। कुछ ज्यादा ही मीठी जबान में उनसे बातें करते रहे जब तक वे हमारे घर रहे। बड़ी ही बेसब्री से इनके आमंत्रण की प्रतीक्षा करने लगे पर वह दिन आया कभी नहीं। एक लंबी सी सांस खींचकर रह गए।
कल ही
पाटिल दंपति आए। ललिता शीतल की अंतरंग
सहेली है। उससे पता लगा कि 28 जून
को तो वह कवि सम्मेलन हो भी चुका है जिसकी चर्चा मि॰भागीरथ ने की थी। उस कवि
सम्मेलन के संगठनकर्ता पूरा तरह से वे ही थे। अब हम क्या करते?हाथ ही मलते रह गए। लेकिन हमसे इतनी नाराजगी! कारण कुछ समझ नहीं आया। कम
से कम सूचना तो दे देते । हम इंतजार की गली में तो न भटकते।
पाटिल
दंपति ओटावा में 25-30 वर्षों से हैं। पर कनेडियन
छाप एक दम नहीं लगी है। अनिता पाटिल पटना की रहने वाली हैं और शिक्षा –दीक्षा भी
पटना में ही हुई।हमारी बहू भी पटना मेँ रह चुकी है। तभी दोनों बिहारी बोल रहे थे
तो कभी हिन्दी मेँ बोलते। मजे की बात कि
मि॰पाटिल भी इटावा(यू॰पी॰) के रहने वाले निकल आए।वे उसी मोहल्ले में रहते थे जहां भार्गव जी का ठौर -ठिकाना था। फिर तो बातों का बाजार ऐसा गरम हुआ कि आश्चर्य ही होता था। था। सच दुनिया बहुत छोटी हो गई है। कब कौन कहाँ मिल जाए पता नहीं।
सद्व्यवहार से हर जगह एक प्यारी न्यारी छोटी सी दुनिया बस सकती है।
अनिता और रमेश दोनों ही मिलनसार शाकाहारी व
हिन्दी प्रेमी हैं पर इनके इकलौते शाहजादे एकदम विपरीत। मांसाहारी ,हिन्दी के नाम नाक भौं सिकोड़ने वाले
अँग्रेजी मेँ गिटपिट
करते हुए अंग्रेजों की दम। स्वभाव में इतनी भिन्नता! समझ न सकी गलती कहाँ हुई है पर गलती हुई तो है।
दूसरी भाषाएँ बोलना और सीखना तो सहृदयता की निशानी है पर मातृ भाषा को नकारते हुए
उसका अपमान करना अपनी जड़ों पर कुल्हाड़ी मारने के समान है।
वैसे गलती तो माँ-बाप की ही मानी जाएगी ।
दादी बाबा बनने पर उन्हें अपनी भूल का एहसास जरूर होगा जब नाती-पोते पूरे परिवेश
को ही बदल कर रख देंगे। रीति-रिवाज ,विचार व संस्कारों की भूल भुलैया में
ये दादी बाबा शतरंज के पिटे मोहरे बनकर रह जाएंगे।
इनसे मिलकर बार बार मुझे अपनी
सहेली डॉ॰कुलकर्णी की याद आ रही है। वह शादी के बाद कनाडा की ही होकर रह गई है। घर
से करीब एक किलोमीटर दूर रहती है। डिनर जल्दी लेने के बाद हम अकसर घूमते-घामते
उसके घर चले जाते हैं।वहाँ गरम गरम कॉफी पीते हुए गप्प-शप्प में शामिल हो जाते
हैं।उनके बच्चे हमारे सामने कम ही आते हैं--- नमस्ते करके 2 मिनट बैठे और बस चले गए
। एक दिन मैंने पूछा –“मन्नो,तेरे बच्चे बहुत कम बोलते हैं क्या?”
“अरे नहीं--- बड़े बातूनी और झगड़ालू है। सब समय कुट-कुट करते रहते हैं।”
“लेकिन हमारे सामने तो मौनी बाबा से बैठे रहते हैं।”
“हाँ सुधा यह बात तो है। असल
में उनको हिन्दी बहुत कम आती है। ठीक से समझ भी नहीं पाते।बोलने के लिए शब्द
ढूंढते ही रह जाते हैं।”
“अरे, भारत जाकर अपने नानी-दादी से कैसे बात करते
होंगे?”
“खाक करते हैं। जब छोटे थे तो
चले जाते थे पर अब तो जाने का नाम ही नहीं लेते। पापा तो इनसे मिलने को तरसते हैं। भारत से तो इंका संबंध छूटा ही समझो।”
“तुझे यह अच्छा लगता है क्या?”
“नहीं ---पर दोष भी तो मेरा
है। इनकी पैदाइश तो कनाडा है पर मेरी तो लखनऊ है। हिन्दी भाषा-भाषी होते हुए भी नई
पीढ़ी को हिन्दी न सिखा सकी।
“पर क्योंकर ऐसा हुआ!?
क्या तेरे पतिदेव को हिन्दी अच्छी नहीं लगती?”
“अरे नहीं—उन्हें इन बच्चों से
तो ज्यादा ही आती है। कहा न अपराधिन तो मैं ही हूँ। यहाँ आने पर अँग्रेजी का ऐसा नशा चढ़ा कि हिन्दी बोलनी एकदम बंद कर दी। लिवास
और रहन सहन भी अंग्रेजों जैसा कर लिया। बच्चों
ने बचपन में कभी हमें हिन्दी बोलते ही नहीं सुना –सीखते कहाँ से! भारत जाती तो
अपने बच्चों को भतीजों के मुक़ाबले अँग्रेजी फर्राटे से बोलते देखती । गर्व से फूल उठती।
सच बोलूँ -मैंने कभी चाहा भी नहीं कि बच्चे हिन्दी सीखें,हमारी
संस्कृति जाने। न रामायण –महाभारत की कहानियाँ सुनाई न ईश प्रार्थना में इन्हें
शरीक किया।
तुम्हें तो मालूम ही है कि
मुझे भजन गाने का और सितार बजाने का कितना शौक है। वह मैंने नहीं छोड़ा। पति रमेश
का ज़्यादातर टूर पर रहना बढ़ गया और बच्चे बड़े होने लगे । मुझे समय काफी मिलने लगा । मैं अपने गायन के इस
शौक को ज्यादा समय देने लगी। बच्चे ज़्यादातर अपने कमरे में बंद रहते।यह नहीं कि दो
मिनट को मेरे पास आकर बैठ जाये। तब मुझे एकाकीपन का अनुभव हुआ । अपने परिवार की
याद आने लगी। बच्चे तो उनसे अलग हो ही गए थे। मैं भी अपनी जन्मभूमि और खूंके मधुर
रिश्तों से कटकर रह गई हूँ। अपनी भूल सुधारने के लिए भारत से हिन्दी की किताबें
लाई –कलैंडर लाई। पूजा गृह में राम -कृष्ण की फोटो लगाई कि उनके बारे में इन्हें
बताऊँगी । बड़ी कोशिश के बाद टूटी-फूटी हिन्दी तो बोलने लगे है समझने का प्रयास भी
करते है । असल में बहुत :देर हो चुकी है। हम तो अपनी पहचान ही खो बैठे हैं। न
केनेडियन रहे और न भारतीय।"
उसके स्वर में टनों पश्चाताप
था औए चेहरे पर थी उदासी की मोटी परत।
उसकी बात सुन में सन्नाटे में रह गई। सच
पूछो तो मैं अपनी पोती को लेकर चिंतित हो उठी । अगर वह भी अँग्रेजी मेँ गिटगिट
गिटर- गिटर करने लगी तो मेरा क्या होगा! मैं तो अपनों के बीच में ही पराई हो
जाऊँगी। जो दिल और मन का तालम तेल अपनी भाषा में बैठता है वह पराई भाषा में कहाँ! पर ऐसा होगा नहीं। उसकी मम्मी घर में हिन्दी ही बोलती है और उसकी हिन्दी तो
उसके पापा से भी अच्छी है। मम्मी जब इतनी सजग है तो वह अपनी दादी माँ से हिन्दी
में जरूर बोलेगी। मेरे पास आएगी,मेरे साथ बतियायेगी। मैं वारी जाऊँ।
फिर तो उसे मैं अपने एक- दो काम भी गिना दूँगी। कभी मेरा चश्मा दूँढ़ कर लाएगी तो
कभी मेरी छ्ड़ी। और मैं--मैं फूल सी खिली
सौ बरस जीऊंगी। उड़ने लगी न कल्पना में---उसका नाम आते ही मेरी सोच को पंख लग जाते
हैं।
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