मंगलवार, 7 मई 2019

कनाडा डायरी कड़ी-॥ 28॥


कनाडा डायरी के पन्ने 

प्रकाशित 
अंतर्जाल पत्रिका  साहित्य कुंज 

विदेशी बहू
सुधा भार्गव 

26 6 2003                   
      भार्गव जी को हल्की सी डायबिटीज़ है। खूब घूमते फिरते हैं पर कभी कभी बदपरहेजी कर ही लेते हैं।
     एक दिन बहू शीतल बड़ी गंभीरता से बोली-“मम्मी जी आप पापा जी को हर दो घंटे बाद खाने को दिया करें। यदि एक समय ज्यादा या नुकसान देने वाली चीज खाने  लगें तो मना कर दें।“
     “बेटी,मैं एक बार कहती हूँ दुबारा नहीं। यदि उसका मोल नहीं समझा जाता तो मुझे बुरा लगता है।”
      “अरे मम्मी जी,अपनों का कोई बुरा माना जाता है। यदि कुछ अनहोनी हुई तो सबसे ज्यादा आपको ही सहन करना पड़ेगा। आपके बेटे अगर कोई गलत काम करेंगे तो मैं बार –बार टोकूंगी चाहे उनको कितना ही बुरा लगे।”
     मैं चुप आज्ञाकारी बच्चे की तरह उसकी बातों की गहराई में डुबकी लगा रही थी। कौन कहता है नई पीढ़ी बुजुर्गों का ध्यान नहीं रखती। शायद समझने में गलती हुई है बड़ों से।
     यह वही शीतल है जिसे मेरे बेटे ने खुद पसंद करके अपना जीवन साथी चुना था। उस समय मैं भारत में थी और वे दोनों एडमोनटन(admonton) में। मुझे वह रात याद आ रही है जब फोन की घंटी बजी और बेटे की खनखनाती आवाज सुनी-माँ, मैंने तुम्हारे लिए बहू ढूंढ ली है।”
          एक बार तो लगा आकाश से नीचे  आन गिरी हूँ। पर यह सोचकर कि बेटे के प्यार और उसकी आजीवन खुशी का सवाल है—जल्दी ही संभल गई। फिर  माँ-बाप की खुशी तो बच्चों की खुशी में ही है सो हम मियाँ-बीबी ने तुरंत सहमति दे दी। हमें पूरा-पूरा विश्वास था कि वह जो भी कदम उठाएगा सोच -समझकर उठाएगा।
       मेरी जिज्ञासा चुप बैठने वाली न थी। उसने सर उठा ही लिया  –“बेटा,पर वह है कैसी?”
      “अब आप खुद ही देख लेना। बहुत प्यारी है।” सैकड़ों दूर बैठे भी प्रेमी हृदय की तरंगे बहुत कुछ कह रही थी।
      “अच्छा एक बात और बता --मेरी होने वाली बहू सुबह उठकर एक प्याला चाय तो दे देगी?’ठिठोली करते  कहा। 
          “हाँ माँ,उससे भी ज्यादा ।”
      “तब ठीक है। हम उसको अपने घर में लाने की तैयारी करते हैं।”
      “माँ—माँ ,पापा तो खुश है !”
      “हाँ --हाँ सब ठीक है –तू चिंता न कर।” मैंने फोन रख दिया।
       मैंने अपनी हिम्मत पर हाँतो कह दिया लेकिन भार्गव जी खामोश से हो गए थे। मैं एक एक पल इनके मनोभावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी। शायद बेटे के निर्णय के अनुरूप अपने को ढालने की कोशिश में थे। पर इन्होंने उस समय व बाद में भी विरोध में एक शब्द नहीं कहा।इससे मुझे बल मिला।  
      सहमति देने के बाद  अच्छी - ख़ासी मेरी परीक्षा शुरू हो गई। कई रातें ठीक से कहाँ सो पाई ।संशय की दीवार रह-रहकर मुझे दबोच लेती- -विदेश में पली और पढ़ी-लिखी लड़कियों के मानसपटल पर पश्चिमी सभ्यता की छाप अवश्य लगती है। जो उनके व्यवहार , पहनावे और खान-पान में परिलक्षित होती है। कहीं---तेरी बहू के विचार तुझसे न मिले तो---। मैं विचलित हो बैठती। मुझे लव मेरिज से शिकायत न थी –शिकायत थी तो विदेशी छाप से।
      इसके अलावा अतीत का साया भी तो मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था। जिसके कारण  मेरा मानस मंथन शुरू हो जाता और  चचेरे  भा
      आलोक की पत्नी बहुत गोरी थी इसलिए प्यार से उसे श्वेता कहने लगे।2-3 साल तो वे सर्दियों में हर वर्ष भारत आते थे।  पर बाद में आना बंद हो गया। श्वेता को भारत में बड़ी परेशानी सी होती थी। पानी न पीकर हमेशा कॉफी लेती थी। ज़्यादातर सोफे पर बैठी रहती थी। उसे इस बात का भ्रम था कि भारत में बहुत गंदगी है। पानी,हवा,वातावरण सब प्रदूषित हैं। शाम को नहाती थी क्योंकि उसे सुबह नहाने की आदत नहीं थी। उसकी आदतें बड़ी हैरान करने वाली थी। इसके अलावा उसे केवल जर्मनी व इंगलिश आती थी। इससे सबसे ज्यादा आत्मीय वार्तालाप न हो सका।
      असल में दो विभिन्न संस्कृतियों के बीच सामंजस्यता का पुल नहीं निर्मित हो पाया।  कुछ वर्षों के बाद भाई को हृदय संबंधी रोग हो गया। वह ठीक तो गया पर इसी बीच उनका तलाक हो गया। संस्कारों का पौधा अलग -अलग मिट्टी में पनपा –शायद इसी कारण वैवाहिक जीवन में भी दरारें पड़ती गई। भाई मानसिक रूप से इसके लिए तैयार न था। इसलिए कई  वर्षों तक सँभल न सका।
      ऐसे कड़वे अनुभव के बीच मेरी  मानसिक दशा घड़ी के पेंडुलम की भांति होनी स्वाभाविक थी। बार बार खिचड़ी पकाती- बेटे की जो पसंद है उसके भाई भी तो कनाडा में बस गए हैं। लड़की ने कई वर्षों कनाडा रहकर शिक्षा प्राप्त की है। अब वहाँ का असर आना तो निश्चित है। आधी यूरोपियन होगी। अब सब सहना तो होगा ही।
      इस नकारात्मक सोच पर विजय पाने मैं  भार्गव जी ने काफी सहयोग दिया। मैं शीघ्र ही  दिमाग की खिड़कियाँ खोलने के लिए कटिबद्ध हो गई ताकि कार्बन सा अँधियारा  दूर हो और आक्सीजन मिले एक नई रोशनी में भीगी हुई।  चंद दिनों में ही मैं नई स्फूर्ति व उमंग के साथ अपनी बहू का स्वागत करने को तैयार हो गई ।
     इतनी दास्तान के बाद यह तो पता लग ही गया होगा कि मेरी बहू और कोई नहीं शीतल ही है । सच,शीतल से जितनी मान-सम्मान और प्यार मिला उसकी उम्मीद न थी। अब हमें उनके निर्णय पर गर्व होता है।
क्रमश:


    





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