कनाडा डायरी के पन्ने
प्रकाशित
अंतर्जाल पत्रिका साहित्य कुञ्ज
झिलमिलाती
फिलीपी झील
सुधा भार्गव
28जून 2003
अप्रैल मास से कनाडा में बर्फ पिघलने लगी है और करीब सितंबर तक यहाँ के निवासियों का जश्न मनाने का समय हो गया है । मनाए भी क्यों न !हिमपात में घर से निकालना दूभर होता है। चारदीवारी में ऊब भी होती है। मुझे भी तो ऊब होने लगी है । बेटे के पास आए करीब दो माह हो गए पर ज़्यादातर घर में ही रहना हुआ।
जून में बसंत गुनगुनाने लगा है । आकाश में
मनमोहक बादलों के टुकड़े मृगछौना की तरह आँख-मिचौनी खेलने लगे हैं । पृथ्वी का
सौंदर्य एक बारगी में इतना निखर पड़ा है कि
पवन उसे आलिंगन किए कौतुकपूर्ण विहंस रहा है।
ऐसे में तीन घनिष्ठ मित्रों ने आज अपने परिवार सहित फिलीपी झील के किनारे पिकनिक
मनाने क्यूबैक की तरफ जाने का इरादा कर लिया है। क्यूबैक कनाडा का एक प्रोविन्स
है। इन तीन दोस्तों में एक मेरा बेटा भी है । हमारी तरह से पंकज के माता-पिता भी
भारत से अपने बेटे –पोते से मिलने आए हैं । जब हमने सुना कि वे भी साथ चलेंगे तो
खुशी का ठिकाना न रहा ।
तीनों
परिवारों की कारें हमारे आवास से साथ –साथ चल दीं। कार 80 किलोमीटर प्रति घंटा की
रफ्तार से सड़क के दोनों ओर लगे सशक्त और विशाल पेड़ों की छाया में भागी जा रही है।
वसंत के आगमन से ठूंठ से खड़े पेड़ पीले, हरे, लाल कोमल पल्लवों से ढक गए हैं। लग रहा है उनकी तरफ देखते ही रहो –देखते
रहो –सौंदर्य व सौंदर्यपान की होड़ लगी है। चिनार ,देवदार
हृदय खोले कह रहे हैं –“आओ, हमारे समीप आओ। पहचान बढ़ाओ और
हममें घुलमिल जाओ । हम तुम्हारे ही हैं।”
न
जाने कहाँ से उड़ते बादल का आवारा सा टुकड़ा वृक्षों के मध्य आ गया । अंधेरे की कैद
में पेड़ों के इर्द गिर्द कालिमा ने पैर पसार लिए पर प्रकृति का चमत्कार दूसरे ही
पल काले में हरा ,हरे में पीला,पीले
में हर सिंगार उभरने लगा और सूर्य की किलक ने सुकुमार कोंपलों की सुंदरता दुगुनी
कर दी । विचारों की श्रृखलाओं से अपनी को मुक्त नहीं कर पा रही हूँ। एक ही बात
जुगनू की तरह रोशन हो रही है –
काश!
एक पल को चिनार
मैं हो पाती तुम
तुम हो पाते मैं
पेंग बढ़ाकर
छू लेती आकाश
छुद्र से बनती विशाल
अंजुरी में भरती प्रकाश
छिटका देती
धरा पर
बन पात-पात की सांस।
कार को
जब ब्रेक लगा ,तंद्रा से छिटककर मैं दूर जा पड़ी । मुंह से
निकला –अरे हम तो क्यूबैक पहुँच गए । गेटनों टाउन से फिलीपी झील साफ नजर आ रही है
। सड़क पार करते ही चारों तरफ आँखें घुमाकर देख रही हूँ –एक तरफ बड़ी –बड़ी मनोविनोदात्मक
कारें खड़ी हैं जिनमे कुर्सियाँ,तम्बू ,खाना
पकाने का सामान,साइकिलें,छोटी नावें आ
जाती हैं। साइकिल पर दौड़ लगाना ,लेक में तैरना ,नौका विहार ,सूर्या स्नान आदि पिकनिक के मुख्य अंग
हैं ।
झील के
किनारे दो तीन चादरें बिछाकर हमने सारा सामान उस पर रख दिया हैं ताकि तेज हवा के
झोंकों से चादर उड़ न जाए। यहाँ पेड़ों से छनती धूप में बदन सेकना बड़ा अच्छा लग रहा
है । हमारे आसपास अलग-अलग समुदाय के परिवार बैठे हैं । लगता है ये लोग हमसे काफी
जल्दी आ गए हैं। बड़े आराम से तम्बू के
नीचे कोई बारबैक्यू लगाकर भुट्टे भून रहा है
तो कोई मुर्गी पका रहा है। कोई घर से लाई पेस्ट्रीज और कुकीज़ को खाने –बांटने
में व्यस्त है ।
हम तो घर से पका पकाया वही भारतीय व्यंजन –आलूमटर
की चटपटी सूखी सब्जी ,पूरियाँ और आम का आचार ले आए हैं
।साथ में मठरी लड्डू आलू की चिप्स लाना नहीं भूले ।
हम
बुजुर्ग तो चादर पर बैठकर गप्प ठोंकने की योजना बना रहे हैं पर बेटा मित्रों सहित तैरने के लिए झील में उतर
पड़ा है। मैंने बैठे –बैठे गौर किया कि
तैरने के क्षेत्र की एक सीमा निश्चित है।
किनारे पर ऊंची सी बनी लकड़ी की बुर्ज पर जीवन रक्षक पहरेदार बड़े सतर्क होकर बैठे
हैं । दूरबीन घुमा-घुमाकार तैरनेवालों पर नजर रखे हुए हैं। डूबते को बचाना और
असावधान को सावधान करना उनका दायित्व है । यहाँ बच्चे तक पानी से नहीं डरते। वाताशय की सहायता से लहरों से अठखेलियाँ करते
वे एक दूसरे पर पानी उछाल रहे हैं । आह कितने खुश !
नटखट
बच्चों व किशोरों के लिए तो यहाँ एक मिनट भी बैठना असंभव है । वे तो अपनी-अपनी
साइकिल ले दौड़ लगाने निकल गए हैं। अपने साथी को
पीछे छोड़ने की धुन में साइकिल इतनी तेज चला रहे हैं कि अनहोनी की आशंका में
मेरा दिल दहल उठा है पर इन्हें न गिरने का डर और न चोट खाने का गम । इन बच्चों को
देखकर अपने बचपन की मस्ती के दिन स्मरण हो आये हैं। । कनाडा में साइकिल रखन
निम्नवर्ग या गरीबी की निशानी नहीं समझी जाती अपितु यह मनोरंजन व सेहत बनाने का
साधन है
महिलाएं भी यहाँ ऊर्जायुक्त स्वस्थ और
प्रसन्नचित्त दीख रही हैं । मेरे देखते ही देखते दो युवतियाँ एक नाव उठा लाईं और
उसमें बैठकर चप्पू चलाती झील की गहराई में चली गईं । बीच बीच में लहरे उन्हें अपने
आगोश में लेने का प्रयास करतीं पर वे जलपरी सी उनके ऊपर बैठ जातीं ।
भूख
का समय हो गया था । हमने घरों से लाया भोजन बाँट-बांटकर खाया और कागज की प्लेटों को
कूड़ेदान में फेंक दिया । सार्वजनिक स्थानों पर कहीं भी कूड़ा फेंका ,तुरंत
जुर्माना भुगतना पड़ता है।
सूर्य
का ताप कम होने लगा तो हम पानी के किनारे से हट गए। ठंडी हवा ज्यादा चुभने लगी थी और जल भरे बादलों
ने भी धमकाना शुरू कर दिया। यहाँ के निवासियों के लिए तो स्वर्ग सा मौसम हो जाता पर भारत से आने
वाले हम जैसों की तो कुकड़ी बन जाती। सामान
को कारों में रखकर विराट झील का आनंद उठाते हुए उसके किनारे –किनारे घूमने चल दिये
। यहाँ भी सुरक्षा दल के आदमी खड़े हैं। सार्वजनिक स्थानों में भी ज़िंदगी इतनी
सुरक्षित! चकित रह गई।
सुबह
9बजे के निकले-निकले शाम 7बजे घर में घुसे
। थककर चकनाचूर पर वहाँ से हटने का जी नहीं चाह रहा था। रास्ते भर झील की अद्भुत
छटा की चर्चा करते रहे।
आज भी
झील के किनारों पर ऊंची –ऊंची पहाड़ियाँ ,लाल मिट्टी पर
बिछा हरी घास का नरम –नरम बिछौना कहाँ भूली हूँ। नील जल में कल्लोल करते श्वेत
पक्षी ,जलक्रीड़ा प्रेमी ,सूर्यस्नान
करते अर्द्ध्नग्न सभी तो अपने तरीके से पिकनिक के लहराते आँचल में बंध जाना चाहते
थे । मैं तो झील के झिलमिलाते रंगों में ऐसी रंगी कि यत्र –तत्र उन रंगों में ऐसी
रंगी कि यत्र –तत्र उन रंगों को बिखेर देना चाहती हूँ ।
क्रमशः
क्रमशः
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें