मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

रोटेरी त्वचा दान निबंध प्रतियोगिता


विषय -त्वचा दान ,संक्षिप्त परिचय एवं उसका महत्व

 सुधा भार्गव

त्वचा दान की अवधारणा एवं उसकी जागरूकता 


 


    ईश्वर ने हर जीव को एक सुरक्षा कवच के साथ इस दुनिया में भेजा है और वह है त्वचा। यह प्रदूषण ,बदलते परिवेश में रासायनिक तत्वों और कीटाणुओं से उसके शरीर की  रक्षा करता है। लेकिन आजकल इसके क्षत -विक्षत होने में देर नहीं लगती। आए दिन सड़क दुर्घटनाएँ , जलने-जलाने,आग से झुलसने -झुलसाने की आकस्मिक घटनाओं ने इंसान का जीना दूभर कर दिया है। तेजाब फेंककर किसी का जीवन बर्बाद करने की वीभत्स जानलेवा लीला और शुरू हो गई हैं। चोटों और जलने के छोटे घाव पर तो रोगी के बिना जले हिस्से से त्वचा को काट कर डाल दिया जाता है। पर 60-80%शरीर के जल जाने पर रोगी की त्वचा का उपयोग नहीं हो सकता  । ऐसे में दान की त्वचा वरदान सिद्ध होती है। जो छ्ह घंटे के अंदर मृतक शरीर के पीठ,पेट या जांघ-पैर से निकालकर त्वचा बैंक में सुरक्षित कर दी जाती है।  वैसे तो त्वचा की आठ परतें होती है पर सिर्फ ऊपर की परत ही निकाली जाती है। कैडेवर त्वचा संक्रमण को रोकने, यंत्रणा  को कम करने,  घावों या जले  भाग की चिकित्सा में अद्भुत मददगार  है।  हालांकि मृत व्यक्ति की  त्वचा से की गई अस्थाई ड्रेसिंग विकल्प के रूप में ही कार्य करती है, लेकिन रोगी की त्वचा के उत्थान में यह एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसी मनोदृष्टि से त्वचा दान की अवधारणा विकसित हुई । पर जागरूकता की कमी के कारण यह अपने विकास की प्रथम सीढ़ी पर ही प्रतीत होती है।

    कुछ दिनों पूर्व मुझे ही नहीं पता था कि त्वचा  दान  क्या है? इसके बारे में अपने मित्रों से बातें कीं  तो जाना, शहरी शिक्षित वर्ग भी मेरी तरह अंजान है। डॉक्टर रिश्तेदारों को खखोड़ा। उन तक को नहीं मालूम त्वचादान किस चिड़िया का नाम है। पर मैंने उनके दिमागी दरवाजे पर दस्तक दे ही दी । उन्होंने अपने परिवार में चर्चा की,मित्रों से बातें की।एक दूसरे के विचार  मेरे साथ साझा हुये । कहने का अभिप्राय केवल इतना है कि त्वचा दान के प्रति दूसरों में जागरूकता फैलाने से पहले यह अभियान हम अपने से ही क्यों न शुरू करें।कड़ियाँ तो उसमें स्वमेव ही जुड़ती चली जाएंगी।   

   हमारा देश विविधता का देश है। धार्मिक कट्टरपंथी और अंधविश्वासी आत्मा-परमात्मा ,पाप -मोक्ष के कुंड में स्नान करते रहते हैं । अगले जन्म से जुड़े अंतिम अनुष्ठानों से हर भारतीय का अटूट संबंध है । उन्हें समझना -समझाना दहकते अंगारों पर लोटने से कम नहीं।  

    ऐसी परिस्थिति में त्वचा दान कहने की बात बहुत भारी पड़ती है। हम भारतीय जानते हैं मरने के बाद शरीर नश्वर  है पर तब भी भावनाओं -संवेदनाओं के वशीभूत अधिकांशतया मृतक शरीर के छिन्न -भिन्न होने की कल्पना से ही सिहर जाते हैं ।

    लोगों की सोच तो लेकिन बदलनी होगी। उन्मादी इंसान के अमानवीय कृत्यों के परिणामस्वरूप 60%से 80 %जले लोगों को बचाने के लिए मृतक की त्वचा  सुरक्षित करनी  ही होगी  वृहद पैमाने पर लोगों में चेतना  लानी होगी । इसके लिए उनके दिमाग में उठने वाले हर प्रश्न का उत्तर देना होगा। जैसे  त्वचा दान की आवश्यकता क्यों है  ?त्वचा कब  कैसे और किसकी  ली जाती है ? त्वचा  सुरक्षित कहाँ रखी जाती है? इससे किस तरह से लोगों की जान बचाई जा सकती है?आदिआदि। मानसिक तौर से पूर्ण संतुष्ट होने पर ही लोग त्वचा दान की ओर कदम बढ़ाएँगे।

   इन सब प्रश्नों का उत्तर वही दे सकता है जिसको त्वचा और त्वचा दान से संबन्धित पूरा पूरा ज्ञान हो। इसके लिए अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे।

    मेडिकल स्नातक के पाठ्यक्रम में त्वचा बैंक ,त्वचा दान जैसे विषय भी शामिल होने चाहिए। उसके बाद लेखक प्रकाशक व स्नातक के सहयोग से ऐसी पुस्तकें प्रकाशित होनी चाहिए जिनमें शरीर रचना विज्ञान और सर्जरी को त्वचादान से जोड़ दिया जाय। 80%जले हुए लोगों के पुन :जीवन दान में त्वचादान के महत्व का उल्लेख हो।  त्वचा विशेषज्ञ डॉक्टर्स किताबें लिखें। वे  अपने सकारात्मक प्रेरक अनुभव बताकर लोगों की सोच बदलने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं । मेडिकल स्नातक छुट्टी के दिन स्वयंसेवक के रूप में जन संपर्क द्वारा त्वचा दान के महत्व को उजागर कर लोगों का  ध्यान इस ओर आकर्षित  करने में सफल रहेंगे।

     त्वचा दान जैसे गंभीर विषय को बाल साहित्य व किशोर साहित्य से भी जोड़ सकते हैं। कहानी -कविता  द्वारा खेल खेल में अति दिलचस्प तरीके से त्वचा दान की जरूरत व महत्व पर प्रकाश डाला जा सकता है । इससे यथार्थता की भूमि पर पैर टिकाये इस विषय से वे एकदम अनभिज्ञ न रहेंगे।

    तेजाब हमले से पीड़ित लक्ष्मी अग्रवाल के जीवन पर आधारित मूवी छपाक देख इंसान दर्द से कराह उठता है । जनता का बहुत बड़ा वर्ग एसिड अटैक के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है । जलने -जलाने की घटनाओं पर शॉर्ट मूवीज बनाकर फिल्म इंडस्ट्री अहम भूमिका निभा सकती है।

     त्वचा दान द्वारा स्वस्थ हुये रोगियों की कहानियों का प्रचार किया जाना चाहिए फिल्में, वृत्तचित्र ,मीडिया इस के प्रसार में मदद करेंगे।  त्वचा बैंक के लाभार्थी भी जोरदार अभियान चलाकर लोगों को प्रेरित कर महसूस करा सकते हैं कि जीवन समाप्त होने के बाद भी समाज को कुछ देना है ।

     अंगदान के नाम से ही लोग डरते हैं । डॉक्टर्स तक किडनीदान ,नेत्रदान के लिए आगे नहीं आते हैं। फिर गैर चिकित्सा व्यक्ति से उम्मेद लगाना बेईमानी सी लगती है। डर दूर करने के लिए उन लोगों से  संपर्क किया जाय जिनके रिशतेदारों ने मृत्यु पर्यंत त्वचा का दान किया  या जिन्होंने त्वचा के दान का मन बना लिया है।उनके अनुभव से अवश्य भय को  राहत मिलेगी।  

    फौलादी इरादों वाली असहनीय यंत्रणा भोगी लक्ष्मी अग्रवाल ,एसिड अटैक सरवाइवर प्रज्ञा प्रसून जैसे लोगों को विशेष कार्यक्रमों में  निमंत्रित कर जनता से साक्षात कराया जाए तो उनकी कही-अनकही व्यथा वास्तविकता के कपाट खोले बिना न रहेगी ।

    त्वचा को सुरक्षित रखने के लिए त्वचा बैंकों की संख्या भी बढ़ानी पड़ेगी । डॉक्टर्स को बर्न विशेषज्ञ बनने के लिए उत्साहित करना होगा। तभी तो जागरूकता के परिणाम अच्छे  होंगे।

   माना त्वचा दान की प्रक्रिया अभी शैशव अवस्था में है, प्रौढ़ता तक पहुँचने में उसे वर्षों लग जाएँगे। पर अंधेरे में बैठने से तो अच्छा है उम्मीद का एक दिया जलायें! क्या जाने उसकी रोशनी में अनगिनत दिये झिलमिला उठें और हजारों बिलखते- तड़पते लोगों को जिंदगियाँ मुस्करा उठें।



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रविवार, 23 जनवरी 2022

निबंध -प्रकाश प्रदूषण

 प्रकाश प्रदूषण 

सुधा भार्गव 

    स्वस्थ जीवन के लिए स्वस्थ वातावरण की आवश्यकता है। प्राकृतिक व्यवस्था को अव्यवस्थित करने की चेष्टा में पर्यावरण दूषित होने लगता है, तब प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होती है। यह आधुनिक औद्योगिक शहरी सभ्यता की देन है।

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दिन की जगमगाहट 



प्रकाश प्रदूषण पर्यावरण को बहुत कुछ प्रभावित करता है। बिजली के आविष्कार से जन जीवन आरामदायक तो हो गया पर जब इस कृत्रिम रोशनी का दिन -रात जरूरत से ज्यादा उपयोग होने लगा तो प्रकाश प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गई। 


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रात की चकाचौंध 

     पृथ्वी का वातावरण ग्रीन हाउस की सतह के रूप में काम करता है और यह पृथ्वी की सतह को गरम रखने में सहायक है ।वरना ठंड के कारण जीवन दूभर हो जाता। सूर्य की ओर से आने वाली ऊर्जा, प्रकाश किरणों के रूप में एक सतह को पार कर ग्रीनहाउस  तक आती है। ग्रीनहाउस में कार्बनडाय आक्साइड ,नाइट्रस ऑक्साइड आदि होती हैं जिससे धरती का तापमान बढ़ जाता है। कृत्रिम रोशनी के कारण इन गैसों की मात्रा में वृद्धि होती है और पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ावा मिलता है। जलवायु में बदलाब आ जाते हैं। ग्लोवल वार्मिंग का यह मुख्य कारण है।  

    आधुनिक प्रकाश व्यवस्था में दुनिया की एक चौथाई बिजली नष्ट हो जाती है,मनों टन कोयला फूँक जाता है। यदि हम चाहे तो इसको अपनी कुशलता से बहुत हद तक  रोक सकते हैं। प्रदूषण से भी मुक्ति मिलेगी और  बिजली भी बचेगी। इस बची बिजली से न जाने कितने घर रोशन हो जाएँगे,कितने ही उद्योग पनप सकते हैं। 

    शहरी सड़कों की जगमगाहट और सिनेमा हॉल ,रेस्टोरेन्ट ,मॉल विज्ञापन ,कार्यालय और उत्सवों में फील्ड लाइट,ट्यूब लाइट  का ऐसा चलन हुआ है कि बाहर तो यह आँखों को चकाचौंध करती ही है, 

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रेस्टोरेन्ट-उत्सव 

खिड़कियों और दरवाजों से घुसकर घरों में भी आसान जमाये है। कोठियों और इमारतों में रात को सुरक्षा की दृष्टि से होने वाली रोशनी से प्रदूषण बढ़ता है। यह रात में साफ दिखाई देता है। रात के वक्त आकाश की चमक-दमक पर दृष्टि डालें तो उसमें मध्यम रोशनी की धुंध भी नजर आएगी। यही प्रदूषण हैं। 

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प्रकाश प्रदूषण

 इस प्रदूषण से पूरा भूमंडल खतरे में है। पौधों को अंधेरा और रोशनी दोनों की जरूरत है।  अंधेरा बीज को फूल में बदलने और रोशनी पौधों को ज़िंदगी देने में मदद करती है।रात की कृत्रिम रोशनी के कारण वे खिलने से पहले ही मुरझा जाते हैं। कुछ पौधों की तो प्रजाति ही लुप्त हो रही है। 

     ऊंची जगरमगर करती इमारतों के कारण प्रवासी पक्षी अपने रास्ते से भटक जाते हैं। न जाने कितने रोशनी से आकर्षित होने के कारण इनसे टकराकर मरते  हैं। पक्षी -अंधेरा होते ही अपने घोंसलों में बच्चों के साथ विश्राम करते हैं पर रात में भी रोशनी देख उलझन में पड़ जाते हैं कि यह दिन है या रात। उनकी नींद में खलल पड़ता है। परेशान से एकांत जगह में पलायन करने की कोशिश में लग जाते हैं। कुछ की तो दिनचर्या ही अंधेरे से शुरू होता है। 

उल्लू को भूख लगी तो शिकार की तलाश में असमंजस सा निकाल पड़ता है क्योंकि प्रकाश प्रदूषण के कारण उसे तारे ही नहीं दिखाई पड़ते। कृत्रिम रोशनी उसकी दृश्य शक्ति को कम कर देती है।

रात में स्पष्ट दिखाई देने के कारण चमगादड़,हिरण आदि  गतिशील रहते है पर उनकी भी दृष्टि बाधित होती है । न ठीक से पेट भर पाते हैं और न उड़कर या चौकड़ी भरते दूर जा पाते हैं। कछुए और मेढक की तो  एकांत व अंधेरे में ही प्रजनन क्रिया व यौन संबंध संभव है।रोशनी से उनकी एकाग्रता में बाधा पड़ती है। 


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    खगोलीय वेधशालाओं के कार्य भी सुचारुरूप से नहीं हो पाता है। याद आते हैं बचपन के वे गर्मियों के दिन जब रात को खाने के बाद छत पर चढ़ जाते थे।चमकते चंद्रमा और तारों की बारात देख ठंडक सी महसूस होती थी और मन खिल-खिल उठता था। हमारी नजरें पल में ही  सप्त ऋषि और चमचमाते ध्रुव तारे को खोज लेती थीं। बाबा बालक ध्रुव की कहानी सुनाया करते थे। आज के बच्चे प्रकृति की इस छटा से अछूते हैं।  महिलाएं अपने पति की दीर्घायु के लिए बड़े चाव से करवाचौथ का व्रत करती हैं। सारे दिन भूखी रहकर चंद्रमा के दर्शन करके ही उपवास तोड़ती हैं। पर उस दिन बेचारी आकाश में चंद-सितारे  खोजती ही रह जाती हैं। निकलने पर भी प्रदूषण के कारण वे देर से दिखाई देते हैं या दिखाई ही नहीं देते हैं। 

बिजली का प्रकाश सूर्य के प्रकाश से बराबरी नहीं कर सकता। सूरज की रोशनी से विटामिन डी मिलता है, और दिमाग अपना कार्य सुचारूरूप से करता है। सूर्य की रोशनी से दिमाग में सेरोटोनिन (serotonin)हारमोन रिलीज होता है जिससे मिजाज ठीक रहता है। चिड़चिड़ाहट उदासीनता कोसों दूर  भागती है। चित्त शांत होने से एकाग्रता में वृद्धि होती है। रोशनी के साथ-साथ तंदरुस्ती के लिए रात का अंधकार भी आवश्यक है। क्योंकि अंधेरे में मेलाटोनिन (melatonin)हारमोन रिलीज  होता है जिससे जीव नींद का अनुभव करता है। गहरी निद्रा से हमारी सारी थकान तनाव जाता रहता है। सुबह एक नई ताजगी और जोश लिए उठते है। दिन में बिजली के प्रकाश में घिरे रहने से कार्य क्षमता कम हो जाती है। साथ ही आलस और तनाव के शिकार होते हैं।

घरों में भी तो फ्लोरेन्स ट्यूब और शानशौकत के मारे तेज रोशनी का आलम रहता है। अनिद्रा, सिरदर्द ,माइग्रेन दर्द  हमारा पीछा करने लगते हैं। । तेज रोशनी आँखें बर्दाश्त नहीं कर पातीं। इससे  देखने की शक्ति कुम्हला उठती  है। बूढ़ी और कमजोर आँखें तो दर्द करने लगती है। 

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विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार –महिलाओं में स्तन कैंसर का एक कारण अति प्रकाश भी है। जहां तक हो सके अंधेरे में सोएँ और रात में घर के लैपटॉप ,दूरदर्शन भी बंद कर दें। खिड़की के पर्दे डाल लें ताकि सड़कों के प्रकाश से बचा जा सके। 

    मनुष्य की आँखों के रेटीना में फोटो सेनसिटिव सैल होते हैं जो मस्तिष्क की पिटयूटरी ग्लेण्ड से जुड़े रहते हैं । सूर्य की रोशनी से ही ये सेल उत्तेजित होते हैं।  

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इसका प्रभावन केवल दिमाग पर ही नहीं बल्कि पूरे शरीर पर होता है। इससे रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है।  

    इस तरह से स्वास्थ्य  की दृष्टि से  सूर्य की रोशनी ही उत्तम है पर बिजली की रोशनी के बिना भी काम नहीं चलेगा। इसके प्रयोग में थोड़ा सावधान रहना पड़ेगा। 

    कृत्रिम रोशनी देने वाले उपकरणों की फिटिंग इस प्रकार की जाय  कि उससे निकलने वाली रोशनी ऊपर की ओर कम जाय। बल्ब,ट्यूब लाइट नीचे की तरफ झुकाकर लगाए जाएँ जिससे हमारे शरीर पर उनका प्रकाश कम पड़े और आँखों में चौंध न पैदा हो।सजावट विज्ञापन व उत्सवों में आवश्यकता के अनुसार ही बिजली का प्रयोग हो और सूर्य की प्रथम किरण के साथ ही बत्तियाँ गुल कर दी जाएँ । जन -जन को समझना होगा कि बिजली के दुरुपयोग से ऊर्जा ही खर्च नहीं होती अपितु धन का अपव्य भी होता है । उसे बचाकर हम देश के विकास में हाथ बंटा सकते हैं।  खुशी है रोशनी प्रदूषण के प्रति देशवासियों को सचेत किया जा रहा है। कल की ही तो बात हैं टी॰ वी॰ में बच्चे नारा लगा रहे थे- - - 

बिजली बचाओ,देश बढ़ाओ। 

इतनी सूझबूझ! उनके चार शब्दों में मेरे हजार शब्द समा गए। मुझे अपना कद छोटा नजर आने लगा।

शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

कनाडा डायरी कड़ी -40


कनाडा डायरी के पन्ने
प्रकाशित 


काव्य गोष्ठी

सुधा भार्गव 

26 8 2003
       शाम को 8 बजे रश्मि जी के निवास स्थान पर पहुँचने के लिए बेटे के साथ निकली। ओह,कितनी तेज बारिश! कार चलाना भी मुश्किल। पर चाँद ने उफ तक न की बल्कि मेरे लिए खुश था--- माँ का कुछ  साहित्यकारों से परिचय होगा,कविता सुनने- सुनाने का मौका मिलेगा। मैं भी बहुत उत्तेजित थी। रास्ते से संतोष जी को भी लेना था। मूसलाधार बरसते पानी में बेटे का कार चलाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। मेरे मुंह से निकल पड़ा- मैं तुझे बहुत तंग कर रही हूँ। पानी को भी अभी बरसना था। मैंने कितना परेशानी में डाल दिया तुझे बच्चे।’’
        “माँ बारिश तो कनाडा में बिन बुलाये मेहमान की तरह चाहे जब आन धमकती है। यहाँ रहकर मुझे आदत पड़ गई है । बस आप इसी तरह अपने को व्यस्त रखना। इस प्रकार आपका कुछ न कुछ करते रहना मुझे अच्छा लगता है।’’ उसकी आँखों में चमक थी । कैनवास के ब्रुश ,लेखनी और रैकी हीलिंग आर्ट  मेरे इर्द-गिर्द गिर्द चक्कर काटते प्रतीत हुए मानो कह रहे हो –हमें भूल न  जाना। । मैं अपने भावी जीवन के बारे में सोचने के लिए मजबूर हो गई।
      संतोष जी के दरवाजे पर कार रुकी। वे इंतजार कर ही रही थीं। उनका चेहरा मुझे परिचित सा लगा। उन्होंने मुझे देखते ही पूछा –“क्या आप ऋचा संस्था की सदस्य हैं?”
     “हाँ जी।”
      “मुझे आपने कुछ लेख व कहानी दी थीं। कहानी तो रिचा पत्रिका में छप चुकी है। लेख आगामी अंक के लिए है।
      “ओह आप हैं!” एकदम मेरे दिमाग में संतोष जी का चेहरा घूम गया जिनसे दिल्ली में मिल चुकी थी और अब वे अपने बेटे से कनाडा मिलने आई थीं।
       कार में बैठ गए मगर वार्तालाप ने बंद होने का नाम ही नहीं लिया।  “देखिए दुनिया कितनी छोटी हैं। हम आपके पीछे -पीछे चले ही आए। भारत में इतनी देर का साथ कभी न मिल पाया जितना यहाँ नसीब होगा।’’
      “आप ठीक फरमा रही हैं। मैं हर वर्ष छुट्टियों में आती हूँ। बहू-बेटे दोनों डॉक्टर हैं। हर जगह अकेले जाने की हिम्मत नहीं होती। इसीलिए आपके बेटे से मुझे घर से ले जाने को कहा। कोई परेशानी तो नहीं हुई?”
      “नहीं आंटी ,कोई परेशानी नहीं हुई। शीतल भी आपसे मिलना चाहती थी मगर वह अवनि के कारण नहीं आ पाई। अभी वह बहुत छोटी है। आपने उसे मिरान्डा हाउस में पढ़ाया है।”
       “हाँ,उससे एक बार फोन पर बातें हुई थीं। अभी तो मैं यहाँ 15 सितंबर तक हूँ। मिलेंगे।’’
     “अवश्य आंटी!’’ 
      रश्मि जी के घर में घुसे। वे चाँद से पहले ही मिल चुकी थी। देखते ही बोलीं-“तुमने हमें अपनी मम्मी से और पहले क्यों नहीं मिलवाया। तुम तो हमें जानते थे।
      “हाँ आंटी,बस भूलभुलइया में रह गए।”
      चाँद तुम्हें दुबारा आने की जरूरत नहीं। मैंने अपने बेटे से कह दिया है कि वह हमें 11 बजे लेने आ जाये। तुम्हारी मम्मी को भी पहुंचा देंगे। किसी बात की चिंता नहीं करना।’’
     उनकी समझदारी ने हमें उबार लिया । वरना मेरी ममता सोच- सोचकर अधमरी हुई जा रही थी --- रात में मेरे बेटे को फिर 15 किलोमीटर आना और 15 किलोमीटर जाना पड़ेगा जबकि मौसम का मिजाज निहायत बिगड़ा हुआ है।कहीं बीमार न पड़ जाये।  
        रश्मि जी के ड्राइंग रूम में कदम रखते ही भारतीय संगीत वाद्य उपकरणों पर नजर टिकी तो टिकी ही रह गई। हारमोनियम-तबला,ढोलक - मजीरे भगवान कृष्ण की मूर्ति एक चौकी पर विराजमान थी । उसके समक्ष कालीन पर हारमोनियम-तबला,ढोलक - मजीरे रखे थे जो भारतीय संस्कृति में रंगी रश्मि जी के व्यक्तित्व व हुनर का परिचय दे रहे थे। पिछले 30 वर्षों से कनाडा में रहते हुए भी अपनी जड़ों को सुरक्षित रख छोड़ा था।वे बड़ी आत्मीयता से मिलीं। अपने बेटे से हमारा परिचय कराया। हाथ जोड़कर उसने नम्रता से नमस्कार किया। हाथ क्या जुड़े दिल जुड़ गए।
     गायन विदद्या में निपुण कवयित्री सपना जी वहाँ पहले से ही आ चुकी थी। एक दूसरे से परिचित होने के बाद चाय के साथ भरपेट भारतीय व्यंजनों का स्वाद लिया। छोटी बड़ी कविताओं व शेरो शायरी के दौर चले। साथ ही पूरबी - पश्चिमी सभ्यता को टटोलते रहे। उन सबका हृदय देश प्रेम से ओतप्रोत था चाहे शरीर उनका कहीं भी हो।
      महादेवी वर्मा,सुमित्रानंदन पंत –बच्चन जी की काव्य रचना पर चर्चा होती रही। रश्मि जी की कविताओं पर छायावाद की छाप थी। सपना जी ने बड़े मधुर स्वर में कविता पाठ किया जिसमें सुरों की तालमतेल था। कविताएं पौराणिक कथाओं पर आधारित थी। सीता,राम और रावण के चरित्र लेकर उन्होंने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति बहुत सुंदर ढंग से की थी। मन का आक्रोश फूट फूट पड़ता था। हमने भी अपने देश की महानता को लेकर कविता पाठ किया।
       अंत में हमने मिष्ठान खाया। डिनर के बाद बिना मिठाई खाए तो  हम भारतीयों को संतोष होता ही  नहीं हैं। दुनिया के किसी भी कोने में चले जाएँ अपनी आदतें अपने साथ ले जाते हैं।जीवन का माधुर्य और मित्रत्व  की भावना को समेटे हम अपने घरों की ओर चल दिए। अगले दिन मैंने रश्मि जी का धन्यवाद किया जिन्होंने  मुझे अपना अमूल्य समय व सहयोग दिया। 

क्रमश:  



शनिवार, 21 सितंबर 2019

कनाडा डायरी कड़ी । । 39। ।


कनाडा डायरी के पन्ने
प्रकाशित 
अंतर्जाल पत्रिका कनाडा साहित्य कुंज 


चित्रकार का आकाश
सुधा भार्गव 
24 8 2003
      
       इस  विराट आकाश के नीचे जहां-तहां अद्भुत रंगों की झलक देखते ही उस ओर खींची चली जाती हूँ। कनाडा में तो रंग-बिरंगे फूलों ने मेरा मन ही मोह लिया।मॉल(shopping centre) में अनोखी आभा से दमकते हुए  प्रसून –गुच्छे  के गुच्छे  लटके देख उनकी खुशबू में नहाने के लिए पास ही जाकर खड़ी हो गई। ज़ोर से सांस ली पर पर महकती हवा का जरा एहसास नहीं हुआ। छूकर देख भी नहीं सकती थी कि ये नकली है या असली क्योंकि उनपर प्लास्टिक कवर था। दूसरे वहीं एक तख्ती लगी थी-लिखा था Don’t touch’।  
        बेटा-“ लगता है ये फूल नकली हैं?” मैंने अपना संदेह निवारण करना चाहा।
       नहीं माँ-- ये असली ही हैं। इनमें केमिकल्स लगाकर असंक्रामक बनाया जाता है। इसी चक्कर में वे अपनी प्रकृति प्रदत्त सुगंध खो बैठते हैं। उन्हीं को घरों में ले जाकर लगाते हैं और उनसे बने गुलदस्ते भेंट में देते हैं।’’
      “ ऊँह! बिना खुशबू के फूल किस काम के! फूलों की महक तो यहाँ के निवासियों को भी बहुत अच्छी लगती है और पुष्पों से प्यार भी है। तभी तो समय मिलते ही पूरा का पूरा परिवार मिट्टी खोदता,फूलों के बीज डालता ,पानी देता या जंगली घास उखाड़ता नजर आता है। इस मेहनत से जल्दी ही हर छोटे से  बगीचे में नन्हें- नन्हें फूल हँसते हुए  खुशबू फैलाने लगते हैं। ताज्जुब! इनकी खूबसूरती व मन को गुलजार कर देने वाली गंध का घर में प्रवेश निषेध है। लोग न इन्हें सूंघ सकते हैं और न उनकी माला बनाकर भगवान को पहना सकते हैं। फिर तो अपने जूड़े या चोटी में  इन फूलों को लगाने की महिलाएं कल्पना भी नहीं कर सकतीं।
      “माँ ठीक कह रही हो। सब डरे हुये है कि सूंघने से उनमें बैठे सूक्ष्म कीड़े नाक से अंदर प्रवेशकर कोई बीमारी न फैला दें।
      “सब  मन का बहम है। हमारे यहाँ तो पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी-देवता श्रंगार फूलों से ही करते थे। पूजा हो या विवाहोत्सव,फूलों के सौंदर्य व उनकी मदमाती सुगंध के बिना सब अधूरा और फीका फीका लगता है।’’
       “माँ विज्ञान  के अनुसार फूलों के बारे में कनेडियन्स के विचार सारयुक्त ही प्रतीत होते  हैं। फिर अपनी सोच हम दूसरों पर थोप भी तो नहीं सकते ’’
       यहाँ फूलों से आच्छदित जितनी रंगीन धरा है उतनी ही संध्या समय आकाश में  बादलों की छटा अद्भुत है।रोज शाम को दरवाजे पर बैठकर ठहरे ,फुदकते रंग-बिरंगे बादलों को निहारते थकती नहीं। सच में सृष्टि रचने वाले की चित्रकारी का कोई मुकाबला नहीं।
        खरगोशिया से नन्हें बादल और हंसिका से उड़ते-घुमड़ते बादलों की टुकड़ियों को क्या कभी मैं विस्मृत कर पाऊँगी। मुझ पर छाया विविध फूलों के रंगरूप का नशा क्या कभी उतर पाएगा! नहीं ---कभी नहीं। इसीलिए मैंने निश्चय कर लिया  कि इन्हें कैनवास पर जरूर उतारूंगी।साथ ही उस महान चित्रकार का दिल से धन्यवाद किया जिसके कारण मेरी सोई उँगलियाँ ब्रुश थामने के लिए पुन: जाग उठीं। 
        इस काम मे सहयोग देने वाले मेरे दो साथी हैं । बुक शॉप चैप्टर और सेंट्रल लाइब्रेरी। इस सेंट्रल लाइब्रेरी में एक बार में दस दस किताबें मिलती हैं। किताब की अवधि समाप्त होने पर ई मेल द्वारा उसे बढ़ाया जा सकता है। इतनी सुविधा! घर बैठे बिठाये ही काम पूरा। मन खुश हो गया। लेकिन किताबें लौटाने में  एक दिन की भी देरी होने पर जुर्माने की काफी राशि का भुगतान करना पड़ता है। अनुशासन की दृष्टि से यह ठीक भी है। ग्राहक इससे सावधान भी रहता है।
        मेरा बेटा सेंट्रल लाइब्रेरी का सदस्य था। इसलिए उसके कार्ड पर बहुत सी किताबें निकलवा लेती थी। कम समय में ही  किताबों के जरिये हिन्दी कहानियों और चित्रकारों से मुलाक़ात हुई। ऐक्रलिक,ऑयल पेंटिंग,वाटर कलर और स्केचिंग की किताबों की तो यहाँ  भरमार है। घर में किचिन गार्डन में बड़ी सी  प्लास्टिक की मेज व कुरसियाँ पड़ी हैं । वहीं अकसर पेड़ों की छाँह में गुनगुनी  घूप का मजा लेती हुई ब्रुश थामे बैठ  जाती हूँ और रंगों से करने लगती हूँ खिलवाड़।    
       चैप्टर बुक शॉप हमारे घर के पास ही है । मैं भार्गव जी के साथ ऊपर से नीचे तक गरम कपड़ों से लदी पैदल ही चल देती हूँ । इस बहाने कुछ घूमना भी हो जाता और खाना भी हजम हो जाता ।ज़्यादातर लंच के बाद 1 बजे के करीब ही निकलते हैं ।3-4 घंटे के बाद बहू को फोन करना पड़ता है  ताकि वह हमें लेने आ जाए।हमें तो कार चलानी आती नहीं है। 
      चैप्टर बुक शॉप में मुझे बड़ा आनंद आता है। कोई ऐसा विषय नहीं जिस पर किताब न मिलती हो।घंटों मन चाहे विषय पर किताब चुनकर उसके पन्ने पलटती रहती हूँ। सामने ही बिछे आरामदायक सोफे पर बैठकर नोटस भी ले लिए हैं। ताजगी के लिए हम दोनों कॉफी पीने बैठ जाते हैं। यह कॉफी डे, ‘CHAPTER’ का ही एक हिस्सा है।
       असल में सेंट्रल लाइब्रेरी और चैप्टर बुक शॉप  का उद्देश्य लोगों में पढ़ने की आदत डालना है। पर चैप्टर बुक शॉप  में घंटों बैठे किताबों को पढ़ा भी जा सकता है और पसंद आने पर किताब खरीदी भी जा सकती है। जगह -जगह रिसर्च स्कॉलर किताबों के ढेर में अपना सिर खपाते नजर आ जाते हैं। जो पुस्तकों को अपना मित्र समझता है वह किताब खरीदे बिना भी नहीं रहता। सेल में किताब सस्ती मिल जाती हैं। मैंने दो किताबें खरीदीं। एक –वैन गोघ(Van Gogh)की पेंटिंग्स बुक दूसरी में फूलों की पेंटिंग्स ही पेंटिंग्स हैं जिसका सम्पादन रेचल रूबिन बुल्फ (रेचल Rubin Wolf)ने किया है।
       मैंने इन किताबों  में से देखकर कैनवास पेपर पर फार्म यार्ड के कुछ दृश्य व आकृतियाँ उभारी हैं।  चाहती हूँ - बेटा किचिन गार्डन में बारवैक्यू के पास लगाए। शीतल ने उन्हें फ्रेम में जड़कर उनकी सुंदरता  दुगुन कर दी है । मैं कोई बड़ी चित्रकार तो नहीं ,पर पल-पल खूबसूरती से गुजारने व मन बहलाने के लिए यह एक बहुत अच्छा साधन है। बच्चे जब भी मेरे तैलीय चित्रों को प्रशंसा भरी नजरों से देखते हैं तो रोम-रोम जगरमगर करने लगता है।

क्रमश:  

कनाडा डायरी कड़ी ।। 38 ।।


कनाडा डायरी के पन्ने 
प्रकाशित 
अंतर्जाल पत्रिका साहित्य कुंज

साहित्य चर्चा 
सुधा भार्गव 

23 8 2008
      
     कनाडा में भी हिन्दी प्रेमियों की कमी नहीं। ओटावा में रहते हुए मैंने काफी प्रयास किया कि यहाँ के कुछ वरिष्ठ प्रेमियों से मुलाक़ात हो जाए पर निराशा ही हाथ लगी। असल में मैंने यह प्रयास देर से शुरू किया दूसरे मैं भागीरथ महाराज के चक्कर में फंस गई।  पिछले माह उन्होंने बहुत से कवियों और लेखकों  के नाम गिनाकर हमें बहुत प्रभावित कर दिया था साथ ही वायदा भी किया कि आगामी कवि सम्मेलन में मुझे अवश्य बुलाकर ओटावा की कवि मंडली से परिचय कराएंगे। साथ ही कविता पाठ करने का मौका देंगे। सुनते ही हम तो गदगद हो गए और  अपना  कविता संग्रह रोशनी की तलाश में तुरंत उन्हें भेंट किया। कुछ ज्यादा ही  मीठी जबान में उनसे बातें करते रहे जब तक वे हमारे घर रहे। बड़ी ही बेसब्री से इनके आमंत्रण की प्रतीक्षा करने लगे पर वह दिन आया कभी नहीं। एक लंबी सी सांस खींचकर रह गए।
      सविता जी से जो शीतल से परिचित है  पता लगा कि 28 जून को तो वह कवि सम्मेलन हो भी चुका है जिसकी चर्चा मि॰भागीरथ ने की थी। उस कवि सम्मेलन के संगठनकर्ता पूरा तरह से वे ही थे। अब हम क्या करते?हाथ ही मलते रह गए। लेकिन हमसे इतनी नाराजगी! कारण कुछ समझ नहीं आया। कम से कम सूचना तो दे देते । हम इंतजार की गलियों में तो न भटकते।
सविता जी के कारण रश्मि जी से फोन पर मेरा परिचय हुआ।वे साहित्यिक गतिविधियों में बहुत गतिशील रहती हैं। उनके प्रयास से निश्चित हुआ कि 25 अप्रैल को सेंटर लाइब्रेरी के ओडोटोरियम में होने वाले कवि सम्मेलन में मुझे भाग लेने का मौका मिलेगा। दुर्भाग्य से यह कार्यक्रम नहीं होने पाया क्योंकि उस दिन ओटावा के अधिकांश भागों में बिजली चले जाने के कारण सभागार बंद कर दिया गया। ताकि बिजली की खपत कम से कम हो। ओफिस  भी 3-4 दिनों को बंद कर दिए गए ताकि एयरकंडीशन ,कंप्यूटर के चलने से बिजली कम खर्च हो । घरों में बिजली न होने से जन जीवन मुश्किल में पड़ गया। 25 अगस्त का कार्यक्रम 2 सितंबर तक  स्थगित कर दिया गया। हम तो 28 अगस्त को ही भारत आने वाले थे। अब क्या करें?समझ नहीं आ रहा था। ऐसे समय रश्मि जी ने हमें उबार लिया।
       उन्होंने 26 अगस्त की शाम को एक छोटी  सी काव्यगोष्ठी का  अपने ही घर पर आयोजना किया । देखा तो न था उन्हें अब तक पर उनकी मिलनसार प्रकृति सर चढ़कर बोलने लगी।
      फोन पर ही उन्होंने बताया –भारत से संतोष गोयल भी आई हैं। मिलने पर शिकायत भरे स्वर में उन्होंने मीठा सा उलाहना दिया-“आप इतने दिनों से आईं ,हम से बातें भी नहीं कीं। 2-3 कार्यक्रम रखते ,दूसरों से आपको मिलवाते। वैसे भी भारत से आए कलाकारो और साहित्यकारों का हम सम्मान करते हैं।” सुनकर हर्ष हुआ और संतोष कर लिया कि चलो 4-5 लोगों से तो मिल ही लेंगे।
      असल में हमने ही वहाँ की साहित्य मंडली में शामिल होने का समय गंवा दिया। पोती के जन्म  की खुशी में कुछ दिनों को  हम अपने को ही भूल गए। वह जब तीन माह की हो गई तब पेंटिंग या कविता जैसे शौक़ों को खँगालने का मौका मिला। वह नन्ही सी जान तो खुद एक कविता है। यह कविता मैंने जब-जब पढ़ी। जीवन के रंग और भी चटकीले हो गए।
क्रमश:  




शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

कनाडा डायरी कड़ी।। 37।।

कनाडा डायरी के पन्ने 



प्रकाशित 
अंतर्जाल पत्रिका साहित्यकुंज कनाडा 


सुधा भार्गव 
20 8 2003
      समय बीतते देर नहीं लगती। एक दिन वह था जब हम यहाँ आए आए थे। कुछ दिनों तक तो बेटे की मित्रमंडली से भोज का निमंत्रण मिलता ही रहता था। स्वागत में वे आँखें बिछा देते। बेटे के दोस्तों का अनुराग देख हम उनकी प्रशंसा किए बिना न रहे।  वे मेरे बच्चों के समान ही हैं । मैं भी जब उनसे मिलने जाती एक न एक अपने हाथ से व्यंजन बनाकर उनके लिए ले जाती।
       अब फिर से जल्दी- जल्दी भोज के लिए हम  आमंत्रित किए जा रहे हैं।पर पहले जैसा उत्साह नहीं है। हमें लगता है लास्ट सपर हो रहा है। लौटते समय दर्द की हूक छिपाकर लाते हैं। उनके प्यार में डुबकियाँ भी लगाना अच्छा लगता है। बस एक ही अफसोस रहा:यहाँ पाँच माह रही पर किसी के लिए कोई भी पेंटिंग नहीं बना पाई। भारत से कुछ कलात्मक चीजें भी नहीं लाई कि उन्हें उपहार स्वरूप दे पाती। सभी तो भारतीय हस्तकलाओं व दस्तकारी के प्रेमी निकले। 
        इस मित्रमंडली के ज़्यादातर युवक आई ॰आई ॰टी के छात्र रह चुके हैं। कोई मद्रासी है तो कोई बंगाली, कोई गुजराती है तो कोई मारवाड़ी । पर अपनी संस्कृति व भाषा की पूरी तरह रक्षा किए हुए हैं।पिछली बार मैं सौम्य चटर्जी के गई थी। वह बंगाली में बातें कर रहा था। हम लोग अनेक वर्ष कलकत्ता रहे,बंगाली भाषा भी जानते हैं सो खूब पट रही थे। इतने में उसका दो वर्षीय लड़का बाबुली आँखें मलते हुए आया और  अपने पापा की गोद में बैठ करने लगा बंगाली में ही बातें। मैं हैरान—बोली –“अरे यह तो खूब अच्छी बंगाली बोलता है।”
      “हाँ आंटी,घर में हम इससे बंगाली में ही बोलते हैं। वरना अपनी भाषा कैसे सीखेगा?अँग्रेजी के लिए मोंटेसरी ही बहुत।”
      “तुम एकदम ठीक कह रहे हो।” मेरी आँखें मुसकाती उसकी तारीफ कर रही थीं।
      “आंटी ,इससे मिलिए –यह तारक है। अगले माह भारत लौट रहा है। रात –दिन इसे अपनी माँ की याद सताती है।”
      “सच में तारक तुम जा रहे हो –वह भी अपनी माँ के कारण ?”मेरे कान सुनी बात पर विश्वास न कर सके।
      “हाँ जी।बहुत पैसा कमा लिया। पैसा ही तो सब कुछ नहीं , मेरे माँ-बाप, मेरा देश मुझे बुला रहा है। अपने हुनर से अपने देश को बढ़ाऊंगा। पैसा तो कहीं भी कमा लूँगा। 10 नहीं तो 8 ही सही। भारत भी अब किसी से कम नहीं।”
       इतना आत्मविश्वास! आत्मसम्मान से सिर ऊंचा करके जीने की इतनी चाहत! इन नवयुवकों पर मुझे गर्व हो आया।
       भारत जाने के अब कुछ ही दिन शेष हैं। उन्हें अपनी उंगली पर गिनने लगी हूँ-एक -दो-तीन----।  मन करता है चाँद मेरे सामने ही बैठा घूमता रहे ताकि उसे देख सकूँ ताकि  अलगाव की कसक अभी से न घायल करने लगे।पोती को कसकर छाती से लगा लेती हूँ । सुना है स्पर्श में भावों के स्पंदन की अटूट शक्ति है। एक साल के बाद बहू-बेटे का भारत आने का प्रोग्राम है। क्या वह मुझे याद रख पाएगी?कोई उसे मेरी याद दिलाएगा भी या नहीं । बस ऐसी ही उलझनों में उलझ कर रह जाती हूँ।
       आज मैंने काफी सामान बांध लिया है। कुछ अपने लिए कुछ बड़ी बहू व बेटी के लिए। लगता है सब समान मैं ही रख लूँ। इसलिए नहीं कि मुझे चाहिए बल्कि इस लिए कि वह सब मेरे बेटे की कमाई का है। भूल जाती हूँ कि मेरे बेटे-बेटी उसके भाई-बहन भी हैं। मैं –मेरे के चक्कर में माँ होकर भी कभी-कभी इतनी स्वार्थी कैसे हो जाती हूँ—बड़ा ताज्जुब होता है।
       आजकल मेरे ख्यालों में बेटा चाँद ही समाया रहता है। कभी-कभी चुपके से आकर गंभीरता से पूछता-“माँ यहाँ खुश तो रहीं। मुझसे या शीतल से कोई गलती तो नहीं हुई। गलती हो जाय तो बता देना –रहूँगा तो तुम्हारा छोटा बच्चा ही।” जी भर आता –बोलते कुछ न बनता
--- बस उसके सिर पर हाथ फेरने लगती।
        चाँद सामान तौलता तो छाती फटती है—30-30 किलो की बड़ी-बड़ी अटैचियाँ!दिल्ली से जब चली थी तो सोचा था भविष्य में कभी इतना समान लेकर नहीं चलूँगी। मगर बच्चों के मोह और मृग मारीचिका की जकड़न ने फिर अति का समान इखट्टा कर लिया। चाहती थी खाने का सामान वजन के अनुसार सबसे बाद में खरीदूँगी। मगर शीतल ने मनपसंद बिस्कुट,स्विस केक ,मुच्छी चिप्स,बादाम-पिस्ते न जाने क्या क्या खरीद लिया। ऐसा लग  रहा है मानो मैं माँ के घर से विदा होकर जा रही हूँ।
      पैकिंग के बाद चाँद बोला-माँ अभी जगह है ,चलो बाकी का समान खरीद कर ले आते हैं। चुटकियों में तैयार हो उसकी कार में जा बैठे और टोयटा केम्री शीघ्र ही हवा से बातें करने लगी। उसने बड़े चाव से अपने जीजाजी के लिए राई वाइन और वाइन ग्लास खरीदे । कॉफी का बड़ा सा मग हाथ में लिए जल्दी ही लौट आए।
       मेरे पास स्मृति वस्तुओं (souvenir collection)का अच्छा खासा संग्रह हो गया है  । जहां भी जाती हूँ यादगार के तौर पर एक चीज जरूर ले लेती हूँ ।प्रीति उपहार भी बहुत आकर्षक हैं । विचारों के फंदे  तो हमेशा से समय की सलाइयाँ बुनती चली आई हैं सो एक फंदा और तैयार होने लगा है -जिस प्यार व चाव से गिफ्ट दिये गए हैं और स्मृति पदार्थ खरीदे हैं,उन्हें शौक से अपने घर में सजाऊँगी।”
      26 जनवरी को अवनि के नाना-नानी एडमिंटन से आने वाले हैं । इसलिए आज ही ऊपर का कमरा छोड़कर नीचे सामान ले आए। सोने ऊपर ही चले जाते हैं पर 26 ता: से दूसरे कमरे में सोना पड़ेगा। दो दिन की ही तो बात है फिर तो भारत चले ही जाएँगे। चार दिन को आए पर ऊपर वाला कमरा अपना लगने लगा।उसे छोड़ते समय मन खिन्न था। सच कहूँ –मैंने महसूस किया कि अधिकार खोना कितना खराब लगता है! भूल गई कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। थोड़ी देर के लिए अतीत की भूलभुलैया में खो गई।
      फरीदाबाद में माँ छोटे भाई के साथ रहती थी। उनका कमरा अलग व आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित था।ज्यादातर मैं कलकत्ते से आकर उन्हीं  के पास सोती थी ,उनका ज्यादा से ज्यादा साथ चाहती थी। बदकिस्मती से हार्ट अटैक के कारण उनकी अचानक मृत्यु हो गईं। अंतिम क्रिया के बाद दुबारा भाई से मिलने गई । चुंबक की तरह पैर माँ के कमरे की ओर बढ़ गए। सोचा-माँ नहीं तो क्या हुआ!अलमारी में टंगे उनके कपड़े,मेज पर रखी दवाइयाँ, पूजा की माला देखकर ही संतुष्ट हो जाऊँगी। उनकी उपस्थिति का कुछ तो अहसास होगा। पर यह क्या! दरवाजे पर पैर रखते ही बिजली का झटका सा लगा—जो दिखाई दे रहा था उस पर विश्वास करना मेरे बूते के बाहर था । वह कमरा भतीजे-भतीजी का अध्ययन कक्ष बन गया था।माँ का नामोनिशान मिट चुका था।  इस बदलाब को न मन मानने को तैयार था न आँखें ही अभ्यस्त थीं। तभी विवेक ने सिर उठाया- जो आया है वह जाएगा ही और उसके जाने के बाद अन्य उसकी जगह लेगा—यह तो प्रकृति का नियम है । इस कमरे में रहने वाली तुम्हारी माँ थी,अब भी रहने वाले तुम्हारे ही हैं। यहाँ तो अन्य कोई है ही नहीं फिर शिलागिलवा कैसा! इस सोच ने मुझे स्थिरता दी,तब कहीं जाकर चित्त शांत हुआ। 
क्रमश: