गुरुवार, 23 जून 2016

दसवीं कड़ी -कनाडा की डायरी

http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/10_poori_adhuri_rekhayen.htmपूरी -अधूरी रेखाएँ पूरी -अधूरी रेखाएँ
साहित्यकुंज की इस लिंक पर भी आप पढ़ सकते हैं।

 डायरी के पन्ने 
                                                                पूरी -अधूरी रेखाएँ 
                                                                          सुधा भार्गव 
19/04/2003 


    ऐसा लगता है मेरे आसपास पूरी -अधूरी रेखाओं का जाल बिछा हुआ है। एक तरह से इनके बीच रहने की आदत हो गई हैं, छुटकारा भी तो नहीं पड़ोसी जो ठहरे।
    सामने वाले  सफेद बंगले में शाम होते ही एक नवयुवक घूमने निकलता है । उसका साथी केवल झबूतरा कुत्ता है। वृद्ध माँ –बाप का निवास स्थान अलग है । पहले वे भी इसी के साथ रहते थे पर इस आशा में कि बेटे जॉन का घर बसना चाहिए ,इस बड़े घर को छोडकर दूसरे छोटे फ्लैट में चले गए । यहाँ उम्र व जरूरतों के अनुसार आवासस्थल बदलने में देरी नहीं लगती। जॉन के बूढ़े माँ-बाप विशाल 6 कमरे वाले बंगले को पूरी तरह व्यवस्थित करने में अपने को असमर्थ पा रहे थे । इसी कारण उसे जवान बेटे के हवाले कर दिया और उसने इसके बदले उनके लिए दो कमरे वाले फ्लैट की व्यवस्था कर दी। मुझे यह बात बहुत पसंद आई।उनका बेटा जरा ज्यादा ही संजीदा रहता है।न मैंने उसे कभी हँसते देखा न ही उसने किसी पड़ोसी से हॅलो किया। शादी अभी की नहीं क्योंकि बिना विवाह के वह सब कुछ हो रहा है जो भारत में विवाह के उपरांत होता है। यहाँ यौन संबंधों पर कोई प्रतिबंध नहीं है—न समाज का, न कानून का और न भावनाओं का। शायद उस नवयुवक को भी भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव पसंद नहीं।
   बगल वाले घर में रहने वाले पति –पत्नी बड़े खुशमिजाज़ लगे। उनके दो प्यारे प्यारे बच्चे हैं। उनके चेहरे पर भी मीठी मुस्कान गुनगुन करती  रहती है। उनकी माँ नताशा और मेरे बीच कुछ दिनों तक तो मौन संभाषण चलता रहा। फिर हमारा मिलन दोस्ती में बदल गया। कुछ वर्षों पहले यह परिवार ब्राज़ील से आकर यहाँ बस गया है। नताशा को फूलों से बहुत प्यार है। जरा सा समय मिला बस एप्रिन ,ग्लब्स पहन  खुरपी हाथ में थाम लेती है। धूप की कर्कशता से बचने के लिए टोपी पहनना नहीं भूलती। खुद तो पौधों की काँट- छांट करती ही है आज तो बच्चों के हाथों में भी छोटी सी बाल्टी और खुरपी थमा दी । छोटे –छोटे हाथों से मिट्टी खोदते माँ की नकल करते बड़े प्यारे लग रहे हैं।अरे ये तो एक दूसरे की तरफ मिट्टी भी उछाल रहे हैं। हैरानी है इतनी सफाई पसंद देश में बच्चे अपने कपड़े गंदे कर रहे हैं। पर बचपन तो बचपन ही है । सारे नियम –कानून ताक मेंरख दिए जाते हैं। असल में ये बच्चे शाम को नहाते हैं ।अंधेरा होते ही नहा -धोकर रात का भोजन करेंगे। वैसे भी मेरे ख्याल से बच्चों को मिट्टी से एकदम दूर भी नहीं रखना चाहिए क्योंकि उसमें कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो वैक्टीरिया से लड़ने की शरीर में क्षमता पैदा करते हैं।  एक प्रकार से बागवानी यहाँ की जीवन पद्धति का एक खास हिस्सा है।बच्चों इस तरह से खेल ही खेल में बहुत कुछ सीख जाते हैं।
    पार्टी –वार्टी में नताशा के यहाँ रिशतेदारों का अच्छा खासा जमघट रहता है। कनेडियन डे के अवसर पर उसके यहाँ भाई –बंधु बिहस्की-बीयर पी रहे थे। हमारे और उसके घर के बीच मुश्किल से चार –पाँच गज ऊंची दीवार खड़ी है। सो खूब  मौजमस्ती सुनाई –दिखाई दे रही थी। नताशा के पति मि॰ थामस अपने 6  के बालक को भी गिलास से घूंट भरवा रहे थे। मैं तो  यह सब देखकर दंग रह गई पर यथार्थ के धरातल पर उतरते ही सब कुछ स्पष्ट हो गया।  पीना- पिलाना तो इनकी परंपरा है । इसका अभ्यस्त करने के लिए बच्चों को बचपन से ही वाइन-बीयर देने लगते हैं दूसरे ठंड भी बहुत पड़ती है। उसका मुक़ाबला करने में यह सहायक होती है। परंतु बच्चों के जन्मदिन या अन्य अवसर पर बाल मित्रों को सोमरस नहीं दे सकते।
    सुबह शाम मैं पिछली गली का चक्कर लगाते अच्छी सैर कर लेती हूँ। अभी शाम को घूम कर दरवाजे की सीढ़ियों पर बैठ गई हूँ और निगाहें मेरी आकाश की ओर लगी है। लुभावने रंगों के अक्स में भीगा गगन—ओह कितना लुभावना है। अंदर जाने को मन ही नहीं करता। इस समय ज़्यादातर पड़ोसी अपने बगीचे में निकलकर  बागवानी करते हुए  प्रकृति प्रेम का परिचय दे रहे हैं। 
   शैली हमारे सामने रहती है। वह अपनी छोटी सी वाटिका में बारबैक्यू में मुर्गी(chicken) भून रही है। शायद उसकी दोनों बेटियाँ आने वाली है। ये अविवाहित माँ की संताने हैं।प्रेमी तो अपने प्रेम की निशानियाँ देकर अलग हो गया। शैली ने बड़ी मेहनत से पालकर बड़ा किया है। अब तो बड़ी हो गई हैं पर रहती अपनी माँ से अलग ही। नौकरी के कारण रविवार को ही बेटियाँ अपने बॉय फ्रेंड के साथ माँ से मिलने आ पाती हैं और पुराने कपड़ों की तरह अपना बॉय फ्रेंड बदलती रहती हैं। रविवार शैली के जीवन में अनोखा त्यौहार बनकर आता है। अलगाव,अकेलापन कितना दहला देने वाला होते है यह मैंने शैली से ही जाना। चुंबनों की तपिश और स्मृतियों की गर्माहट उसके प्रेमी को नहीं बांध पाई पर वह उन्हीं की जकड़न में तड़प उठती है। उसके इस अत्यंत नाजुक संवेदनशील मसले को छूने का साहस मुझ में न था ।कौमार्य रक्षा हेतु अपने पर नियंत्रण रखना तो उसके समाज में अनिवार्य नहीं पर इस स्वतन्त्रता में भी अतीत की छीलन उसे चैन से नहीं बैठने देती। समय –बेसमय भीतर बाहर की टूटन उसे दिन में सौ बार रुला देती है।
   ऐसे पूरे -अधूरों के बीच जब भी मैं चमकीले रंगों की कल्पना करती हूँ,सब गड्ड –सड्ड हो जाते हैं।
क्रमश :    


शुक्रवार, 3 जून 2016

नौवीं कड़ी

कनाडा डायरी के पन्ने 

16/4/2003
                             वह लाल गुलाबी मुखड़ेवाली 
                  
                                 
                                     सुधा भार्गव 


अप्रैल मास में उन दिनों मैं कनाडा की राजधानी ओटवा में ही थी । देखते ही देखते बसंत आ गया और देवदार को अपने आगोश में ले लिया । विरही सा कुम्हलाया जर्जर वृक्ष रंग –बिरंगे पत्तों से धक गया। हरे पीले लाल पल्लवों की पलकों के साये में बैठे खिन्न चित्त लिए पक्षी भी चहचहने लगे । ठंड से ठिठुरी कलियों की आँखें खुलीं तो सूर्यवाला के कपोलों पर लाली छा गई।
मुझे भी तो धूप दूध की तरह सुखद लगने  लगी । अप्रत्याशित खुशी मेरे उनीदे अंगों से छ्लकी  पड़ती थी। एक कवि की कुछ पंक्तियाँ गुनगुनाने लगी क्योंकि वे सत्यता उजागर करती प्रतीत हुईं।
                                   
वसंत आ गया
                    
महोत्सव छा गया
                                  
टटोलने लगी उँगलियाँ
                                 
 मादक भरी देह को।  
                                  
उन्माद की आंधी चल पड़ी
                                  
मन की नदिया उफन पड़ी
                                  
पोर पोर दुखने लगा
                                 
दहकने लगा।  
                                  
अनुराग का देवता
                                  
अंग –अंग में पैठ गया
                                  
वसंत के प्रेम पग देते संदेशा फूल को
                                  
लो मैं आ गया।                 
                                                                                 
व्यस्तता की सरिता चारों तरफ उमड़ पड़ी थी । हमें भी सुस्ती में समय गंवाना मंजूर न था। निश्चित किया गया सपरिवार पिकनिक के लिए चला जाए वह भी फलों के बाग में जहां जी भरकर स्ट्रावरी चुने,तोड़ें और खाएं।
यहाँ मई –जून में स्ट्रावरी पकनी शुरू हो जाती हैं और ज्वैल स्ट्रावरी की किस्म सबसे  उत्तम होती है –बेटे ने जब यह बताया मेरे बच्चों की सी हालत हो गई । शोर मचाने लगी जल्दी चलो।
जैसे –तैसे रात काटी और  अगले दिन 10 बजे के करीब सुबह चल दिए फार्म की ओर । साथ में अपने -अपने डिब्बे,टोपी धूप का चश्मा और पानी की बोतल ले ली ताकि धूप से बचा जा सके ।  खाली डिब्बे भी रख लिए ताकि उनमें पानी भरकर स्ट्रोवरी धोई जा सकें।

फार्म में स्ट्रावरी की लंबी कतारें थीं जिनके बीच में झंडियाँ लगी थीं ।
 समझ नहीं सके यह सब क्या है । फार्म के मालिक के पास जाने पर उसने हमे प्लास्टिक की चार डलियाँ पकड़ा दीं ताकि फल तोड़कर उसमें रख सकें। उसमें आधा किलो फल आता था । शर्त थी खूब स्ट्रावरी खाओ पर आधा किलो फल खरीदने जरूर हैं।
सौदा घाटे का नहीं था । उसने हमारे साथ एक गाइड कर दिया । मैं घबरा गई –यह साथ में रहेगा तो छक कर खाएँगे कैसे?। कहीं देखकर यह न सोचे –कैसे हैं ये लोग ,भुक्कड़ की तरह टूट पड़े हैं। अपनी प्रतिष्ठा का सवाल था।इसलिए अपने पर नियंत्रण रखना जरूरी लगा।
मैंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। वह उत्तर देता गया। पंक्ति में जहां तक फल का चयन हो जाता था वहाँ पहले स्थान से झंडी निकालकर चयन समाप्ति स्थल पर वह लगा दी जाती थी । उसने हमसे आग्रह किया गूदेदार कड़ी और लाल स्ट्रोवरी ही तोड़ें । डिब्बों में पानी भर कर रखें । 2 मिनट फल उसमें पड़ा रहने दें फिर उसे खाएँ। धूप तेज है ,खूब पानी पीयेँ और पेट को खाली न रखें वरना एंबुलेंस मंगानी पड़ेगी। कह कर हंस पड़ा। उसका मित्रभाव अच्छा लगा।
फल तोड़ने के विशेष कायदे पर उसने ज़ोर दिया। फल का बर्बाद होना उसे असहनीय था। गाइड ने पौधे की कोमल टहनी एक हाथ से पकड़ी,दूसरे हाथ से फल को ऊपर से धीरे से मोड़ते हुए तोड़ लिया और उसे हथेली पर रख लिया। ।उतावली में मेरा पाँव क्यारी में जा पड़ा। वह एकाएक चिल्लाया –मेमसाहब ,पौधे न कुचलो।
उसने एक खास बात का और जिक्रा किया। खाने वाली स्ट्रावरी को ही पानी से धोना चाहिए। फ्रीज़ करना हो तो बादली छाया या प्रभाती हवा में तोड़ो। उस समय तो सूर्य का प्रचंड ताप था । इसका मतलब आधा किलो खरीदा फल बेकार जाएगा। वह हमारी दुविधा भाँपते हुए बोला-स्ट्रावरी पेड़ की छाया में तोड़कर रख दीजिए । कार में सीट के नीचे ठंडक में वे आराम से सो जाएंगी । घर पहुँचने पर भी ताजगी से भरपूर होंगी।
उसका फल के बारे में अच्छा - खासा ज्ञान था। पर अब मुझे उसका ज्ञान खल रहा था । इंतजार में थी वह जाए तो स्ट्रोवरी पर धावा बोला जाए। बहू –बेटे को खाने का इतना लालच न था। वे पहले भी आचुके थे ,गले तक खा चुके थे । गाइड के जाते ही मैंने भार्गव जी की ओर देखा-मंद मुस्कान ओठों पर थी। शायद वे भी गाइड के जाने की प्रतीक्षा में थे।  



हमारे चारों तरफ स्ट्रावरी बिखरी पड़ी थीं। मंद बयार में पत्तों के पीछे से उनका लुकाछिपी का खेल चल रहा था। आहिस्ता से मैंने उनको छूआ। लाल गुलाबी मुखड़े वाली शिशु सी ---। तोड़ूँ या न तोड़ूँ---  असमंजस में थी । ज्यादा देर तक अपने पर काबू रखना असंभव सा लगा। मोटी –मोटी ,रसीली, अपनी महक फैलाती हुई मेरी टोकरी में समाने लगी। वश चलता तो तोड़ते ही अपने मुख में रख लेतीं पर उनपर छिड्के केमिकल को साफ करना भी जरूरी था। मैंने आठ –दस स्ट्रावरी मुंह में रख ली तब सुध आई दूसरे भी पास खड़े हैं उनके सामने भी पेश करना चाहिए।
बचपन में अपने गाँव में सुबह –सुबह नहर की पुलिया पार करके छोटे भाई के साथ मैं खेत में घुस जाती। कभी गन्ना तोड़ती,कभी टमाटर। बाग का मालिक बाबा को जानता था वरना हमें डंडे मारकर बाहर निकाल देता। मेरा वह बचपन कुछ समय को लौट आया था।
बेटा क्यारियों से बाहर निकल गया था। पहले तो मुझे खाता देखता रहा फिर बोला –बस भी करो माँ ,पेट खराब हो जाएगा ।
-ज़िंदगी में पहली बार तो इस  तरह खा रही हूँ ,कोई पेट –वेट खराब नहीं होगा।
एक स्ट्रोवरी खाकर नजर घुमाती –अरे यह तो और भी रसीली और बड्डी है। उसे तोड़ती,धोती और गप्प से खा जाती। यह सिलसिला गोधूलि तक चला। पेट भर गया पर नियत नहीं भरी। 
-माँ ,अब चलो ।अगली बार चेरी के फार्म पर चलेंगे। वहाँ और भी आनंद आएगा।  
-सच!वायदा रहा। मैं चिहुँक उठी और बालिका की तरह हिलती -डुलती उसके पीछे-पीछे कदम बढ़ाने लगी।

(अंतर्जाल पत्रिका साहित्य कुंज- जून प्रथम अंक 2016 में प्रकाशित) 
क्रमश: