सोमवार, 17 अप्रैल 2017

कनाडा डायरी की कड़ी-17


डायरी के पन्ने 

सुधा भार्गव 

14.5.2003

मातृत्व की पुकार 

अवनि,मेरी लाड़ली  जैसे -जैसे तुम बड़ी होती जा रही हो मेरा मन करता है तुमसे बातें करती ही रहूँ—करती ही रहूँ। पर तुम तो समझोगी नहीं!मुश्किल से 15 दिन की तो हो। अपने स्नेहसिक्त  भावों को मैं कागज के कोरे पन्नों पर उतार कर रख देती हूँ। बड़े होने पर तुम उन्हें पढ़ लेना।  इस बहाने अपनी दादी माँ को याद करोगी।  
-ओह! हाथ –पैर मारकर खूब व्यायाम कर रही हो। थकान होने पर निढाल होकर ज्यों ही तुम्हारी पलकें भारी होती है,तुम्हारी माँ को बहुत दया आती है और कलेजे से तुम्हें लगाकर अनिवर्चनीय सुख का अनुभव करती है। तुम्हारी अच्छी से अच्छी परवरिश करने की तमन्ना उसके दिल में है।

बहू-बेटे के चेहरे पर खिले गुलाबों को देख कभी -कभी तो मैं अपने मातृत्व को ही टटोलने लगती हूँ। जिन हाथों से मैंने अपने बच्चों की परवरिश की,अर्द्धरात्रि को यदि भूले से भी उनका ध्यान कर लूँ तो वे मेरी बाहों के झूले में झूलते नजर आने लगते हैं। फिर तो मजाल क्या कि पलकें बंद हो जाएँ।
आज तो चलचित्र की भांति नेत्रपटल पर वर्षों पहले के दृश्य आ-जा रहे हैं। बेटा- बेटी घुटनों चलने लगे है और मैं हाथ पकड़कर चलना सिखा रही हूँ। छोटा बेटा तोतली बोली में बोलने की कोशिश में है। मैं बार -बार उसके शब्दों को दोहराकर उच्चारण ठीक करने में लगी हूँ। जैसे ही वह एक शब्द बोलता मैं मुग्ध हो उसके गाल पर अपने प्यार की छाप लगा देती।

अतीत खँगालने में सारा दिन गुजर गया।रात में मेरा जीवन साथी बगल में लेटा खर्राटे भरे और में जागती रहूँ मुझसे सहन न हुआ। अंधेरे में निशाना लगा बैठी –सो गए क्या?
-मन में कुछ घूम रहा है क्या?सोते समय विचारों के दलदल में फँसकर हमेशा विचलित हो जाती हो। दिन में तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता?
-दिन में तो अंग क्रियाशील रहते हैं और  सुप्त मस्तिष्क के पीछे चलते द्वंद को मेरा जाग्रत मस्तिष्क नहीं जान पाता है।
-लेकिन मैं तो जान जाता हूँ।
-क्या जान जाते हो?
-तुम मुझसे अपने मन की बात कहकर भारहीन हो रुई की तरह हवा में उड़ जाना चाहती हो।
-कहाँ?
-कल्पना की बसाई अपनी नगरी में!
-क्या मज़ाक ले बैठे!जब आप जागे ही हो तो मेरी बात भी सुन लो। आप ही तो एक हो जिसे मैं भोगे अनभोगे पलों का हिस्सेदार बना सकती हूँ। 40 वर्षों का आपका साथ सच्चाई की तह में कुछ जल्दी ही ले जाता है।
-मेरे तारीफ ही करती रहोगी या मन की गांठ भी खोलोगी।
-आप देख रहे हैं ,बहू-बेटे हमारी पोती का कितना ध्यान रखते हैं। एक से एक सुविधा का सामान जुटा रहे हैं।
-हूँ! मैं देख तो रहा हूँ।
-क्यों जी ---हमने भी तो अपने बच्चे बड़े प्यार से और शान से पाले हैं। माना आजकल की तरह हमारे पास सुविधाएं न थीं पर जितना हो सकता था उसमें कोई कसर न छोड़ी थी।
- कह तो ठीक रही हो। 
- आपको याद है----फेरेक्स खिलाने के और दूध बनाने के बर्तन चांदी के थे जिन्हें मैं दूध की बोतल के साथ कीटाणुरहित करने के लिए उबाला करती थी। अम्मा ने तो कह भी दिया था –इतनी सफाई !बड़ी बहमी है।
-हा—हा—हा--, यह तो मैं भी सोचता था। पर चुप रहता था क्योंकि इसमें भी बच्चों की भलाई ही थी।
-आप भी तो एक अच्छे पिता हो। छोटू लेक्टोजन दूध ही पीता था। एकबार उसके डिब्बे कलकत्ते में नहीं मिले ,मैं तो चिंता के मारे अधमरी हो गई पर आपने तो  दिल्ली से एक साथ तीन डिब्बे मँगवा दिए।
-एक डिब्बे की कीमत केवल 60 रुपये ही थी पर उस समय 60 ही हमारे लिए बहुत थे। बच्चों का मोह सब करा लेता है। भार्गव जी की यादों की परतें उघड़ने लगीं।
-हमने बच्चों के लिए नौकरानी भी रखी थी जी पर बड़कू के लिए नहीं थी।
-पहले बच्चे के लिए तो हमारे पास काफी समय बच जाता था। उस समय तुम नौकरी भी नहीं करती थीं। घर के काम के लिए तो नायडू आती ही थी।  
-मुझे नौकरी करने का कोई शौक न था। हाँ बच्चे बहुत प्यारे लगते हैं। छुटपन में छोटे भाई बहनों के साथ खूब खेली –दौड़ लगाई। उनके साथ मेरा बचपन खूब इठलाता था।अपने बच्चे हुए तो उनमें रम गई पर उनके बड़े होने पर स्कूल का रास्ता देखना पड़ा। वहाँ भोले -भाले नाजुक से फूलों के बीच अपना सारा तनाव -चिंता भूल जाती थी।
-हम तो छह भाई बहन हैं। मिल जाएँ तो बातों का उत्सव शुरू !फिर तो न किसी पड़ोसी की जरूरत और न दोस्त की। अपने समय की हवा के अनुसार तो 2 बच्चे ही बहुत समझे जाते थे।  हमारे तीसरे बच्चे के समय तो मालती ने सुना ही दिया था –तीसरा बच्चा!oh too much .आई अंग्रेजी झाड़ने। तुम्हारे बॉस की बीबी थी इसलिए कुछ न बोली।बस,अंदर ही अंदर सुलग उठी।
-तुम्हें बच्चों का इतना ही शौक है तो दो-तीन बच्चे गोद ले लेते हैं। विनोदप्रिय पतिदेव दिल खोलकर हंस पड़े।
-अब तो बहुत देर हो गई –कहने के साथ ही एक लंबी सी मुस्कान मेरे अधरों पर छा गई।
 
फलभर चुप्पी के बाद मैं बोली-आप शायद जानते नहीं पिता जी मेरे बारे में क्या सोचते थे?
-तुमने कभी बताया ही नहीं।
-वे सोचते थे कि मैं धनी परिवार में पली शायद बच्चों के साथ मेहनत न कर सकूँ । इसी कारण एक दिन उन्होंने कहा था-
-बेटा,बच्चों को अपने कलेजे से लगाए रखना।ये ही तुम्हारा भविष्य हैं।
उनका शायद यही मतलब था कि बच्चों को अच्छे संस्कार व विदद्या दूँ और अपने खर्चे कम करके पैसे को सँभाल कर रखूँ। एक तरह से यह मेरे लिए चेतावनी भी थी और नसीहत भी। मैंने उनकी बात को सहेजकर रख लिया।
-हाँ,यह तो है ,तुमने सिद्ध कर दिया कि शिक्षित माँ कुशल व आदर्श गुरू भी हो सकती है। बेटी के होने पर तुमने एक लड़की उसकी देखभाल के लिए रखी तो थी  जो शाम को घुमाने ले जाया करती थी। पर तुम्हारे पैर में तो चक्र है। कुछ न कुछ करती ही रहती थीं। बेटी जब चार दिन की ही थी तभी से बेटे को गृहकार्य कराना  शुरू कर दिया। वह सिरहाने खड़ा हो जाता और तुम आँखें मींचे उसे उत्तर बताती रहती।जिद्दी भी तो इतना था कि माँ ही कराएगी। शुरू से ही बच्चों का झुकाव तुम्हारी तरफ है।
-माँ जो हूँ।
-और बाप!
-आप तो मेरे मार्गदर्शक व सहयोगी हो।
-फिर तारीफ---,कुछ चाहिए क्या!
-मुझे क्या चाहिए!मेरे पास सब कुछ है।हाँ, मैंने मेहनत तो बहुत की है पर आपकी बदौलत यह रंग लाई।

गुटरगूं करते हुए हम मियां -बीबी न जाने कब तक अपने बच्चों की उस दुनिया में खोए रहे जो चटकीले रंगों से भरपूर थी।जितना उसकी गहराई में उतरते उतना ही पुलकित हो उठते। 
क्रमश:
प्रकाशित-साहित्यकुंज अंतर्जाल पत्रिका -03.22.2017