शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

मेरा घुमक्कड़ी शास्त्रम् काव्य -सिंगापुर





यात्रा चाहे काल्पनिक हो या वास्तविक  उसके विस्तार से मन का भी विस्तार हो जाता है । इस मन के विस्तार से  न जाने मैं कब से  अभिभूत हुये बैठी हूँ । कभी –कभी ये मेरी विकलता का कारण भी बन बैठता हैं क्योंकि मेरे देश विदेश की यात्राएं –यात्राएं नहीं मेरी गतिशीलता की कथाएँ हैं । इनसे मुझे व्यापक  जीवन दृष्टि और अनुभवों की विविधता मिली । मैंने देश –विदेश की यात्राओं की स्मृति को खँगालने और उन्हें सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास  किया है और यह भी प्रयास  रहेगा कि यह घुमक्कड़ी शास्त्र के साथ –साथ घुमक्कड़ी काव्य भी हो जिसमें सामाजिक ,सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश का  आत्मीय समन्वय हो । निवेदन हैं कि थोड़ा समय निकालकर आप भी इस यात्रा में मेरे साथ चलें और अपनी प्रतिक्रिया देकर अनुगृहित करें ।   



मेरे वे चार दिन (रोचक समुद्री यात्रा-सिंगापुर ) 


पहला दिन रविवार - 11 .8 .05
मेरे वे चार दिन और तीन रातें सुपर स्टार वर्गो क्रूज में कैसे बीतीं इसकी अभिव्यक्ति के लिए शब्द कम ,अपने में  सुनाई देने वाले स्पंदन ज्यादा हैं । बचपन से ही कल्पना के उड़नखटोले में बैठकर कभी समुद्र तल में गोताखोर की तरह डुबकी लगाकर रंग बिरंगे कोरल ,शंख सीपियों से मुट्ठी भर लेती तो कभी समुद्री सतह पर लहरों से अठखेलियाँ करते हुए सुनहरी मछली बन जाना चाहती । उम्र की दहलीज पार करती रही पर समुद्री सैर की दिली तमन्ना में कोई कमी न आई ।
एक दिन प्रतीक्षा की घड़ियाँ समाप्त हो गई । हमने एशिया पैसिफिक समुद्री मार्ग पर आने वाले स्टार क्रूज में दो टिकटों का आरक्षण करा लिया । जहाज का नाम सुपर स्टार वर्गो था । क्रूज का अर्थ ही है समुद्री यात्रा ।
मैं और मेरे हमसफर भार्गव जी बैंकाक-पटाया होते हुए 9सितंबर 2005 को सिंगापुर पहुँच गए ।

वहाँ हम गोल्डन लैंडमार्क होटल में ठहरे । 11 सितंबर की सुबह 9बजे के करीब लक्जरी टूर वालों की कार हमें लेने आ गई । हमें सिंगापुर हार्बर जाना था । ड्राइवर ने बड़ी ज़िम्मेदारी से समान कार में रख दिया । । उसके विनीत व्यवहार से हम बहुत प्रभावित हुए । यूरोप टूर के समय तो हम बोझा ढोते ढोते खच्चर हो गए थे । अक्ल भी आ गई कि यात्रा करते समय कम सामान तो भार भी हल्का ,मन भी हल्का ।
दोपहर के 1बजे हम सिंगापुर हार्बर पहुँच गए । दूर से ही स्टार क्रूज पर निगाह पड़ी । मुँह से बरबस निकल पड़ा –वाह !आधुनिकता और सुंदरता का क्या अद्भुत संगम है । इंसान की कारीगरी का बेजोड़ नमूना विराट समुंदर से अपना तालमेल बैठाकर अवर्णनीय समा बांध रहा है । हार्बर पर अटैची और बैग जलयान के कर्मचारियों के सुपुर्द कर के हम बेफिक्र हो गए । क्रूज में सीढ़ियों द्वारा अंदर प्रवेश करना था परंतु सीढ़ियाँ चढ़ने से पूर्व ही हमें अपना पासपोर्ट और कन्फर्मेशन स्लिप एक अधिकारी को दिखानी पड़ी । यह एक तरह से क्रूज टिकट होता है । मखमली सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर पहुँचे तभी एक जोकर आकर झूमने लगा । अपनी विभिन्न हँसोड़ मुद्राओं से यात्रियों की थकान मिटाने में लग गया ।क्लि –क्लिक की आवाज से हम कुछ चौंक पड़े । पता लगा –जलयान के कुशल फोटोग्राफर क्रूज की पिक्चर गैलरी में लगाने के लिए आगुन्तकों की फोटो खींच रहे हैं । हमारे पीछे आने वालों में भारतीय ,पाकिस्तानी ,यूरोपियन ,अरेबियन सभी थे । राष्ट्रीय –अंतर्राष्ट्रीय जातियों –भाषाओं का निराला मिलन था ।
स्वागत कक्ष में हमने बड़ी शान व उत्सुकता से प्रवेश किया । 

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चेक इन काउंटर पर पहुंचते ही  तीन प्रवेश द्वार दिखाई दिये । यात्री भी तीन श्रेणियों  में विभक्त थे । उन्हें 
पृथक –पृथक रास्तों से जाना था । जिनके केबिन के साथ बालकनी थी वे बालकनी क्लास के कहलाए । उन्हें बाईं ओर लाल गलीचे पर चलकर जाना था । वर्ल्ड क्रूजर्स को दाईं ओर नीले गलीचे से जाना था । एड्मिरल क्लास के यात्रियों के लिए पीले गलीचे की व्यवस्था थी । इनको चैक - इन में प्रधानता दी गई । बालकनी क्लास का टिकट होने पर हमें तो पंक्ति में खड़ा होना पड़ा । स्वागत कक्ष में यात्रियों के पासपोर्ट की जगह एक्सेस कार्ड (Acces Card )दे दिये गए । कार्ड देखने में छोटा था पर था बड़ा महत्वपूर्ण । यही बोर्डिंग पास स्टेटरूम की चाबी था । यही चार्ज कार्ड और बोर्ड पर मिलने वाली विभिन्न सुविधाओं का द्वार था । उसके पीछे मैंने हस्ताक्षर किए ताकि गुम होने पर कोई इससे अनुचित लाभ न उठा सके ।
स्वागत कक्ष में वैलकम ड्रिंक देकर बड़ी हर्मजोशी से नवागंतुकों का अभिनंदन किया गया । हॉल में खड़े होकर हम चारों ओर आँखें फाड़ –फाड़कर देख रहे थे । प्रतीत होता था हम कुबेर नगरी में आ गए हैं ।
 संगमरमर के चमचमाते फर्श के मध्य धातु के बने समुद्री घोड़े ,उनके पीछे चढ़ती उतरती पारदर्शी लिफ्ट ,तरतीब से लगाए गुदगुदे सोफे ,करीने से लगे विशाल फूलदान ,चारों तरफ बिछे ईरानी कालीन ,उनसे लगी मदिरा की लुभावनी दुकानें ,क्रय –विक्रय करती अप्सराओं सी हसीन युवतियाँ हमें हैरानी में डालने के लिए पर्याप्त थीं ।
 सोमरस को चखने की लालसा लिए अनेक देशी विदेशी भौंरे मदिरा पर नजर जमाये थे । समुद्री घोड़े हवा से बातें करते नजर आए । मानो इस बात का आश्वासन दे रहे हों –आपकी यात्रा शुभ होगी । शीघ्र ही हमारी तरह सरपट भागता सुपर जलयान समुद्र की लहरों से अठखेलियाँ  करेगा और आप आत्मविभोर हो उठेंगे ।


 दीवारों पर लकड़ी की नक्काशी और पोत का ढांचा पोत निर्माताओं व शिल्पियों के हुनर का गवाह था । । अनुशासित कर्मचारी नौ चालक ,मार्ग निर्देशक अपने –अपने कर्तव्य का पालन करते हुए यात्रियों की मदद करने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे । 
तभी घोषणा हुई –जहाज दोपहर के चार बजे सिंगापुर पोर्ट से चलेगा । आप लोग विभिन्न रेस्टोरेन्ट में जाकर जलपान कर सकते हैं । हमें तो अपने सामान की चिंता थी । फिर केबिन में जाकर बालकनी से लहराते समुद्र के ऐश्वर्य का अवलोकन भी करना था । अगले दिन के रात्रि –समारोह –भोज (Gala Dinner)के लिए आरक्षण भी कराना था । उसमें सीटों की व्यवस्था सीमित होती है । निशुल्क होने से सभी यात्री उसमें जाना चाहते  हैं । इसीलिए जो पहले आ गया वह पा गया वाला नुस्खा अपनाया जाता है । हम आरक्षण के लिए भागे –भागे रिसेप्श निस्ट डेस्क पर गए । वहाँ पहले से ही टिकट लेने वालों की दीर्घ कतार थी । मेरा तो दिल धड़कने लगा । जब तक हमारा नंबर आए कहीं टिकट ही न खतम  हो जाएँ । पिछले महीने यहाँ आए मेरे भाई को  टिकट नहीं मिल पाए थे । पर हम सौभाग्यशाली निकले और दो टिकट मिल गए ।
रहरह कर सवाल उठ रहे थे -सुपर स्टार 13 डेक वाले विशाल यान के बारे में कैसे जानेंगे ?कहाँ क्या करने जाना है ?पता करते –करते कहीं पैर  जबाव न देने लगें । इसी  मानसिक उथल –पुथल के बीच हम अपने ओंठ सिए  मार्ग निर्देशक की सहायता से अपने केबिन नंबर 9658 के सामने जा पहुंचे । हमारी दो अटेचियाँ पहले से ही उसके दरवाजे पर रखी थीं । एक्सेस कार्ड से केबिन खोलकर अंदर घुसे । सीधे हाथ की ओर छोटा सा आधुनिक शैली का बाथरूम था । उल्टे  हाथ की  ओर लकड़ी की अलमारी में यात्रियों के सामान रखने की व्यवस्था थी । उसमें लाइफ जैकिट ,स्लीपर ,बाथ गाउन भी थे । उसी के बराबर में चाय की केतली व दूरदर्शन हमारा इंतजार कर रहे थे ।
दरवाजे के सामने ही बिछे हुए डबल बैड पर एक पेपर रखा था । जिस पर लिखा था –स्टार नेवीगेटर –वैल्कम एबोर्ड। केबिन के अंदर –बाहर --!हर जगह स्वागत होता देख हर्ष की सीमा न रही । पेपर में जहाज की समस्त गतिविधियों का अच्छा –खासा विवरण था । ।पलंग से कुछ कदम दूर प्यारी सी छोटी सी बालकनी थी जिसमें दो आरामकुरसियाँ व मेज रखी थीं  । बालकनी और कमरे के बीच शीशे का दरवाजा था । हमने फटाक से शीशे का दरवाजा और उस पर पड़ा पर्दा हटाया और बालकनी में जा खड़े हुए । सिंगापुर बन्दरगाह का अद्भुत दृश्य उपस्थित था । हमने जी भरकर उसे आँखों से पी जाना चाहा ।




 नौ परिवहन नौकाएँ बड़ी कुशलता से अतुल जलराशि को चीरती आगे बढ़ रही थीं मानो कोई साहसिक समुद्री अभियान चल रहा हो ।
इतने में कमरे में लगा स्पीकर बोल उठा –आवास सुविधा युक्त शक्ति चालित जलयान पर आपका स्वागत है ।  आज समुद्री यात्रा का प्रथम दिन है । कृपया लाइफ जैकिट लेकर इमरजाइनसी ड्रिल के लिए डेक 7 जोन z पर हाजिर हो जाइए ।
हम तुरंत गंतव्य की ओर चल दिये । जरा सी भी देरी करके हम बदनाम नहीं होना चाहते थे । विदेश जाकर अपने देश की प्रतिष्ठा के लिए ज्यादा ही सजग रहना पड़ता है । सेफ्टी डेमो में यात्रियों को अलग अलग वर्गों में विभक्त करके सेफ्टी जैकिट पहनना और उसका इस्तेमाल करना सिखाया । साथ में संकट कालीन परिस्थिति में इमरजेंसी बोट की जानकारी प्रदान की गई ।
अभी जहाज के चलने में समय था । हम डेक 7 पर व्यू पोइण्टपर जाकर खड़े हो गए । 


 जहाज के आगे के हिस्से पर खड़े होकर ऊपर से नीचे तक प्रकृति के निखरे सहज रूप को देखकर मैं रोमांचित हो उठी । कैमरे का बटन दबाकर उसे उसमें कैद करना चाहा । एक क्षण को हमें ऐसा अनुभव हुआ जैसे टाईटैनिक अँग्रेजी पिक्चर के हीरो की तरह वहाँ खड़े हैं । यह फोटोग्राफी जहाज के चलने के पहले ही हो सकती है क्योंकि बाद में सुरक्षा की दृष्टि से व्यू पाइंट का दरवाजा बंद कर दिया जाता है । जैसे ही हम वहाँ से नीचे उतरे ,जहाज हिल उठा । मैं अप्रत्याशित खुशी से छलक गई । जहाज धीरे –धीरे चलता हुआ सिंगापुर बन्दरगाह से बाहर खुले समुद्र में निकाल आया ।


 अब समुद्र तट पीछे छूट चुका था । सिंगापुर में चार रातें बिताकर आई थी इसलिए अपनापन सा लगा और अंजाने ही हाथ हिलाने लगी मानो परिचित को छोड़े जा रही हूँ । फिर सोचा –कुछ दिन बाद ही तो लौट रही हूँ ,विदायगी –बिछुड्ने का दर्द कैसा ?
स्टार नेवीगेटर के कार्यक्रमों को पढ़कर विदित हुआ कि आज का लीडो शो देखने लायक है । शाकाहारी –मांसाहारी दोनों तरह के रेस्टोरेन्ट हैं । कुछ में नि:शुल्क भोजन मिलता है ,कुछ में बिल चुकाकर । हमको भोजन के लिए 300सिगापुर डॉलर के कूपन मिले थे । उनको क्रूज में ही खर्च करना अनिवार्य था । क्रूज से बाहर उनकी कीमत शून्य थी । पेट में चूहे खलबली मचा रहे थे सो शुद्ध शाकाहारी स्वादिष्ट भोजन की तलाश में बाहर आ गए । शाकाहारी भोजन के लिए ज़्यादातर लोगों की जुबान पर मेडिटेरियन का नाम था । यह डेक 12 पर था । हमने वहाँ एक्सेस कार्ड दिखाकर अंदर बैठने के लिए सीट नंबर ले लिया । वहाँ फल –सलाद ,केक –पेस्ट्री ,जैन भोजन ,चाय-काफी ,जूस –आइसक्रीम का निहायत उम्दा इंतजाम था । भाग्य से हमारी सीट ऐसी मिली कि खिड़की से लहराते समुद्र पर चाँदनी की बिछी चादर दिखाई पड़ने लगी ।
मेरे मुंह से निकाल पड़ा –यह सोनजूही सी चाँदनी /नव नीलम पंख कुहर खोसे /मोर पंखियाँ चाँदनी ।




कुछ देर में बादलों  की भागदौड़ से बाहर का बदलता दृश्य प्रतिपल लुभाने लगा और याद आने लगीं  कवि नरेश मेहता की पंक्तियाँ--
नीले अकास में अमलतास
झर –झर गोरी छवि की कपास
किसलियत गेरुआ वन पलास
किसमिसी मेघ चीवर विलास
मन बरफ शिखर पर नैन प्रिया
किन्नर रंभा चाँदनी ।
प्रकृति के सौंदर्य का पान करते –करते कुछ ज्यादा ही खा गए । डकार लेते हुए यूनिवर्सल जिम और कार्डरूम का जायजा लेने चल दिये । जिम में तो इक्के –दुक्के ही नजर आए पर कार्डरूम में अच्छा –खासा जमघट था । रईसजादों की जेबें खाली होने के लिए कुलबुला रही थीं ।
गुलाबी आकाश के सम्मोहन से खिंचे हम सबसे ऊपर डेक 13 पर पहुँच गए । वहाँ हवा के इतने तेज थपेड़े लग रहे थे  कि एक पल को लगा –अगर अपना ठीक से संतुलन न बनाए रखा तो पवन देवता हमें जरूर उड़ाकर ले जाएंगे
इतनी ऊंचाई से उदधि गहरे नीलवर्ण का लग रहा था । वह बड़ी शांत तथा गंभीर मुद्रा में था । उसके इस रूप रंग –गंध के उन्माद में ख्यालों की पतंग उड़ाने लगी । । प्रभाती हवा सी ताजगी लिए स्पोर्ट्स डेक की ओर घूम गई । वहाँ कुछ युवक बास्केटबॉल खेल रहे थे और  दर्शक उन्हें घेरे उल्लसित से खड़े थे । वहाँ तो सबका  एक –एक पल मोती के समान कीमती और पुलकित करने वाला था ।




रात के साढ़े नौ बजते ही हम डेक 7पर चले गए।वहाँ लीडो शो होने वाला था जिसका नाम था -सौर प्रेसा (SORPRASA) । उसमें सुपरस्टार के कलाकारों ने भाग लिया था । नर्तकियाँ यूरोप और ब्राज़ील की थीं । अपनी कला में वे पूर्ण दक्ष थीं । फोटोग्राफी पर वहाँ बंदिश थी । मंचसज्जा को देख तो मेरी आँखें चुंधिया गईं । युवती के रूप में युवक का मेकअप इतनी कुशलता से किया गया था कि  संदेह की दृष्टि से कोई देख ही नहीं सकता था ।
गैलेक्सी ऑफ स्टार्स में संगीत भरे मनोरंजक कार्यक्रम शुरू होने का समय हो गया । । बच्चों की तरह हम वहाँ के लिए भागे । आगे की सीटें घिर चुकी थीं । मन मारकर पीछे सोफे पर बैठना पड़ा । वहाँ से कैबरे डांसर ठीक से दिखाई भी नहीं दे रही थी । थोड़ी देर इसी ताक में रही कि कोई आगे से उठकर जाये तो  मैं वहाँ जाकर धम्म से बैठ जाऊँ। । उस दिन म्यूजिक इज माई लाइफ नामक विनोदपूर्ण प्रोग्राम था । आस्ट्रेलियन प्रदर्शन कर्ता मिस मारिसा बारगीज कैबरे शैली में उसे प्रस्तुत कर रही थीं । उनके साथ  पेरिस के विश्व प्रसिद्ध मूलिन रौग (Moulin Rough)थे जो हास्यपूर्ण शैली में दक्ष थे । ।दोनों अपने अनुभवों का पिटारा खोले हास –परिहास की फुलझड़ियाँ छोडने लगे ।
गैलेक्सी में हँसते –हँसते पेट फूल गया था मगर वहाँ से निकलते ही उदर ज्वाला भड़क उठी । । उसे शांत करने के लिए मेडिटेरियन में सपर करने जाना पड़ा । सोच रहे थे गुदगुदे बिस्तर पर लुढ़कते ही सो जाएँगे मगर लेटते ही हमें लगा समुद्र की उठती लहरें पलंग से टकरा रही हैं और पलंग केबिन में न होकर खुले समुद्र में तैर रहा है ।


रात्रि की नीरवता को चीरती सागर की साँय –साँय कानों में फुसफुसाकर हृदय को कंपायमान करने वाला राग अलापने लगती । प्रतीत होता कोई अजगर जहरीली फुंफकार छोडता हमें डसने आ रहा है । संदेह के घेरे में घिरी कायर की तरह सोचती –जहाज की पेंदी में छेड़ हो गया तो क्या होगा !समुद्री तूफान के आने से तो हमारा जहाज और हम डूब ही जाएँगे । हड्डी –पसली तक का पता नहीं लगेगा । । अंजाने में भार्गव का हाथ थाम लिया ,मुझ डूबते को तिनके का सहारा मिला ।

छवि योजना -सुधा भार्गव 

क्रमश : 

यह यात्रा वृतांत -यादों के झरोखों से (यात्रा संस्मरण संकलन )साहित्यिकी प्रकाशन के अंतर्गत 2008 में प्रकाशित हो चुका है ।  


शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

हमारी सुकीर्ति दी और उनकी यादें


  विशिष्ट साहित्यकार 
सुकीर्ति गुप्ता(कोलकाता )


सुकीर्ति जी  के शब्दों  में ही-- 
संग -संग की गंध 
मौसम की गंध में  रच- बस गई 
उमंग भरी बाहों से दूर 
पर याद की सुगंध में खोता मन 
डूबता उतराता है ।  


बड़े दुख  की बात है कि महानगर कोलकाता की साहित्यिकी नामक संस्था की अध्यक्ष सुकीर्ति गुप्ता का पिछले मास देहांत हो गया । वे कुछ समय से बीमार चल रही थीं । यही संस्था  हस्तलिखित पत्रिका साहित्यकी का प्रकाशन भी करती है । हम सब उन्हें प्यार से सुकीर्ति  दी कहते थे जिन्होंने करीब 50   बुद्धिजीवी महिलाओं को एक सशक्त नारी मंच दिया ताकि उनसे संबन्धित मुद्दों पर विचार विनिमय हो सके और लेखनी की गतिशीलता से ऊर्जावान लहरें उठ सकें ।

'एक बार उन्होंने मुझे 'शब्दों से घुलते मिलते हुए ' अपना कविता संग्रह दिया था  ।बहुत सी कविताएं मर्म को छू -छू जाती हैं ।  कस्बे की बिटिया,बाघ ,दो औरतें उपन्यासों के अंश विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं ।

शास्त्रीय संगीत ,चित्रकला और नाटकों में उनकी विशेष रुचि थी । कवि गोष्ठियों में जब वे स्वर में कविता पाठ किया करती थीं तो श्रोतागण मुग्ध हो उठते ।

सुकीर्ति  दी ने स्वात्ंत्र्योत्रर हिन्दी लघु उपन्यासों में नारी व्यक्तित्व पर कलकत्ता  विश्वविद्यालय से पी .एच .डी की थी । कहानी संग्रह दायरे ,अकेलियाँ आदि प्रकाशित हो चुके हैं ।

सुप्रसिद्ध साहित्यकार रवीन्द्र कालिया ने 'अकेलिया' कहानी संग्रह के  संदर्भ में लिखा है –उनकी कहानियों की  सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे  धारा के साथ नहीं ,धारा के विरुद्ध लिखती हैं ।





उनकी कहानियों का मूल राग प्रेम ही है पर वे प्रेम के  श्रंगार पक्ष में  नहीं खो जातीं बल्कि प्रेम की  जटिलताओं ,विडंबनाओं और अंतर्विरोधोंकों अपनी कहानियों का आधार बनाती हैं । यद्यपि उनकी नायिकाएँ प्रेम में ठगी जाती है ,प्रेम की हिंसा की शिकार होती हैं मगर वे परास्त नहीं होतीं ,उम्मीद और जिजीविषा का दामन नहीं छोडतीं । जैनेन्द्र की मृणाल की तरह अपनी राह स्वयं खोजती हैं ।

आकर्षक व्यक्तित्व वाली सुकीर्ति दी मृदुभाषी थीं । सबसे बड़ी विशेषता उनकी यह थी कि वे सबको साथ लेकर आगे बढ़ना चाहती थीं और हमें उत्साहित करती थीं । सामूहिक कवि गोष्ठियों में अनेक कवि –कवियित्री व  साहित्यप्रेमियों से भेंट होती रहती थी । कविता पाठ के बाद यदि उनसे प्रशंसा के दो बोल सुनने को मिल जाते तो धन्य हो उठते ।
शब्दों से घुलते मिलते हुये –कविता संग्रह में उन्हों ने लिखा है --





कविता मेरे लिए एक आत्मीय सखी की तरह है जो मेरे दुख में दुखी होती है और सुख में मेरा हृदय उल्लास से भर देती है । भावनामयी समवेदनाओं ने मेरी  रिक्तता को भरा तो है पर भीड़ में अकेला करके ।

इसी संग्रह से उनकी दो कविता उद्घृत कर रही हूँ  –


एक हारी प्रतीक्षा

टिक-टिक  चलती घड़ी सी सुई
मिश्र के कैदियों सी
पत्थर का भार धोती
हृदय पर पिरेमिड बना रही है
थोड़े सी देर में
बहुत कुछ दफना दिया जाएगा
आशा ,अपेक्षा,गुंगुनाता मिलन संगीत
सब कूछ खामोश हो जाएगा
किलोपैट्रा मृत्यु का वरण करती है
संदेह सर्प सिर पर मँडराता रहेगा
अपराजित  अभिमान
ढलते सूरज की लाली में बादल जाएगा
सुंदर से ताबूत में
हरी डूब सा कोमल विश्वास है
जो जीवन की अंतिम लय तक
गर्माहट देगा ।

नारी मन

पुरइन के पत्तों पर
फिसलती बूंदों सा
नारी मन
पानी की आद्र्ता
हरियाली में डूबापन
रह रहकर कंपती
छाहों में सींजती
पंखुराया शरीर ले
करती केली गुनजन
छुई –मुई  कोमलांगी
ममता की दूधिया चाँदनी

स्रोतस्विनी स्त्री समर्पिता
को वहाँ  मिला सागर
पल –पल रिसकर
बूंद सी गई ढल
विशेषण के अभिशापों में
बांधा छ्ल से ओ मनस्विनी !

मुझे अच्छी तरह याद है –साहित्यिकी की कार्यकारिणी समिति  का गठन हो रहा था तो मुझे भी जिम्मेवारी दी गई । मैंने कहा
–न जाने मैं अपना कर्तव्य पूरी तरह निभा पाऊँगी या नहीं ।
सुकीर्ति दी ने बड़े स्नेह से मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा –शुरूआत तो होने दो -- –जरूर  कर लोगी फिर में तो हूँ ।
ऐसी थीं हमारी सुकीर्ति दी ।
एक बार वे पूना गई हुई थीं । तब उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा था । अब तो वह मेरे लिए अमूल्य निधि बन गया है। 

पूना से लिखा पत्र 



आज वे हमारे बीच नहीं हैं –बस उनकी यादें है  परंतु उनकी यादें भी साहस और शक्ति का संचार करती हैं ।

सुधा भार्गव बैंगलोर

9731552847
subharga@gmail.com









गुरुवार, 18 जुलाई 2013

साहित्यिकी संस्था कोलकाता


 लघुकथा गोष्ठी
 व 
उसकी अंतरंगता 



कोलकाता में ४० वर्ष बिताने के बाद  2 0 01 में मैं  दिल्ली आकर बस गई । उस समय तक सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुकीर्ति गुप्ता की अध्यक्षता में साहित्यिकी संस्था की स्थापना हो चुकी थी ।





 मैं कार्य कारिणी समिति में   जिम्मेवारी बखूबी निभा रही थी  कि अचानक दिल्ली आना पड़ा । लेकिन इसकी सदस्यता के कारण मैं इससे निरंतर जुड़ी रही और जुड़ी भी क्यों न रहती ----बंगाल के रहनसहन ,खान-पान  और वातावरण में पूरी तरह घुलमिल जो गई थी .। 


बार बार कलकत्ते की कवि गोष्ठियाँ याद आतीं ,साहित्यिकी की सभाएं मुखर हो उठती जहाँ वेदना -संवेदना के पट खोल ठहाके लगाने में दीन -दुनिया भुला बैठते थे । जब यादें बहुत खलबली मचाने लगीं तो 2013 से हमने वायदा किया कि नए वर्ष में कोलकता जरूर जायेंगे । हम भी वायदे के पक्के निकले --चल दिए 14 जनवरी को कलकत्ता । कुछ मित्रो को अपना प्रोग्राम पहले ही बता दिया था जो फ़ोन ,कम्प्यूटर द्वारा मुझसे जुड़े रहे । 


             वहाँ  पहुँचते ही साहित्यिकी की सचिव किरण सिपानी और रेवा जाजोडिया जी   को फ़ोन खटखटा दिए --भई  हम आगये हैं ।अब बताओ सबसे कैसे मिला जाये ?
-मैं शीघ्र ही निश्चित करके बताऊँगी ।वैसे 23तारीख को नेता जी जन्मदिन की छुट्टी रहेगी ।उस दिन अपना कोई ख़ास प्रोग्राम न बनाना ।उस दिन आपके आने की खुशी में एक गोष्ठी रखनी  ठीक रहेगी  ।लोगों को आने में सुविधा भी रहेगी ।किरण जी  की आत्मीयता का  स्वर खनखना उठा  ।
उनकी बात भी ठीक थी और हमारा तो रोम -रोम चहक उठा --आह !वर्षों बाद मिलने  -मिलाने का रंग कैसा होगा ?
मैं अपनी सहेली जयश्री दास गुप्ता के यहाँ रासबिहारी एवेन्यू में ठहरी थी यदि वह वहां न होती तो न जाने सबसे मिलना हो पात़ा या नहीं  । 



तकदीर से  रेवा जी  का घर उसके पास ही था ।अत : उन्होंने  सभा में जाने के लिए 23 तारीख   
को मुझे अपने साथ ले लिया और मैंने अपने साथियों के लिए नववर्ष की मिठाई ।
जवाहर लाल नेहरू रोड में स्थित जनसंसार  में हमें 3 बजे पहुंचना था ।कलकत्ते महानगरी की भीड़ को चीरती हमारी कार गंतव्य स्थान की और बढ़ चली । 




इस समय कार चलाना सरल न था पर रेवा जी कुशलता से चला रही थीं और कार सधे हाथों  की कठपुतली बनी हुई थी ।हमारे पहुँचने से पहले ही किरण जी  तथा कुछ सदस्य आ चुके थे ।तपाक से बड़े प्यार से मिले ।लम्बी अवधि के बाद मिल रहे थे ।ऐसा लगा दूर रहने से स्नेह धारा का वेग कुछ ज्यादा ही हो गया है ।
-क्या आप अपनी लघुकथाएँ  साथ लाई हैं ?किरण जी ने पूछा । 
-हाँ !
-हम हर माह एक गोष्ठी रखते हैं ।जिसमें साहित्यिक -सामजिक विषयों पर चर्चा होती है ।बाहर  से अतिथियों को समय -समय पर आमंत्रित करते हैं । स्थानीय विशिष्ठ व्यक्तियों को भी बुलाया जाता है ।आज के हमारे अतिथि आप हैं और परिचर्चा का विषय होगा -लघुकथाएँ -वे भी आपकी ।
मैं असमंजस में पड़  गई -अपनी -अपनी हांकना तो ठीक नहीं !परिवर्तन हमेशा सुखद होता है ।अत ;  मन ही मन निश्चय किया ,दूसरों  से भी लघुकथा सुनाने की प्रार्थना करूंगी ।

इतने में अन्य सदस्या  भी आ गईं  ।काफी अनजाने चेहरे  थे ।सुकीर्ति गुप्ता तो अस्वस्थता के कारण नहीं आ पाई थीं पर परिचितों में कुसुम जैन ,सरोजिनी शाह ,विद्या भंडारी ,विजयलक्ष्मी मिश्र आदि थे ।किरण जी ने मेरा नए सदस्यों परिचय कराया ।गर्म -गर्म चाय के सिप लेते हुए हम आपस में घुल मिल गए ।

मैंने संक्षिप्त में बताया किस तरह मैं  काव्य धारा से मुड़कर साहित्यिक विधा लघुकथा की ओर मुड़ गई ।इस सन्दर्भ में उन लघुकथाकारों का परिचय देना भी जरूरी था जिन से मुझे लिखने की प्रेरणा मिली ।उनमें बलराम ,बलराम अग्रवाल ,रामेश्वर काम्बोज ,कमल चोपड़ा आदि हैं ।
तकदीर से 2011का संरचना अंक मेरे पास था । उसमें से मुझे स्वरचित मन पंछी लघुकथा पढनी थी जिसमें एक माँ के मनोभावों को दर्शाया गया है जो विदेश में बसे बेटे और छोटी सी पोती से मिलने गई है ,वह हर परिस्थिति का सामना खुशी -खुशी करने को तैयार है । इस लघुकथा में बदलते परिवेश के अनुसार बदलती मनोवृति की झलक मिलती  है । उस पत्रिका में अनेक रचनाकारों  ने दिलचस्पी दिखाई ।इसके अलावा इंटर जाल पत्रिकाओं --हिन्दी चेतना  ,उदंती ,अविराम पर चर्चा छिड गई ,कुछ देर तक  सबको लगा उन तक कम्प्यूटर  की गति से पहुंचा जा सकता । 
विविध विषयों से सम्बंधित अन्य लघुकथाएं भी सुनी सुनाई गईं। 
पुरस्कार ( प्रकाशित -हिन्दी चेतना अंतरजाल पत्रिका लघुकथा विशेषांक  कनाडा  )
माँ (अविराम साहित्यिकी  -लघुकथा विशेषांक )
अनुभूति और परिवर्तन (ब्लॉग -तूलिका सदन sudhashilp.blogspot.com )
आदि  मैंने पढ़ीं ।

विद्या जी ने भी लघुकथा सुनाई -मंगलसूत्र ।जो नारी चेतना का प्रतीक थी ।



साहित्यिकी लघुकथा अंक के बारे में बलराम अग्रवाल ने अपने बहुमूल्य विचार दिए थे वे आगामी अंक 'व्यस्तता के बीच अकेलापन 'में प्रकाशित हो चुके हैं ।


सबके बीच मैं बहुत खुश थी ।काफी समय हो गया था ।अँधेरा घिर आया था ।चाय -नाश्ता करते समय एक दूसरे के संपर्क सूत्र लिए और अपने -अपने घरों की दिशा की ओर  बढ़ गए ।मैं, रेवा जी और किरण जी जनसंसार सभागार से साथ -साथ उतरे ।रेवा जी कार लेने  चली गईं तभी मुझे ध्यान  आया -
 -अरे फोटोग्राफी तो की ही नहीं ।
-किरण जी आप ठीक से खड़े हो जाओ ।एक फोटो तो आपकी खींच लूँ ।
मेरा मान रखने के लिए वे जहाँ थीं वहीं स्थिर हो गईं पर----



 मन में जरूर सोचा होगा --फुटपाथ पर खड़े मुझे यह क्या पागलपन सवार हो गया ।असल में उस क्षण को तो नहीं गँवाना चाहती थी ।
असल में  बीच -बीच में हम बातों में इतने मशगूल हो जाते थे कि कैमरा मोबाइल भी सोते रह गए ।
रेवा जी के आते ही कार में सवार हो गए ।वे तो कार के स्टेयरिंग को घुमा -घुमाकर अपनी कार को भयानक ट्रैफिक से निकालने के चक्कर में थीं पर अपना दिमाग कहीं और चक्कर लगा  रहा था ---जयश्री का घर आते ही रेवा जी से कहूँगी -ज़रा कार से उतरो ।मैंने वैसा ही किया -वे उतरी और मैंने उन्हें खटाक से कैमरे में बंद कर लिया ।


वे  भी मेरी  इस हरकत पर जरूर हँसी होंगी ।क्या करूँ --दिल की आवाज के आगे झुक जाती हूँ ।

रेवा जी को उस रात एक शादी में भी जाना था सो बिलम्ब किये बिना वे चल पड़ी  और  मैं भी मुट्ठी में बहुत कुछ बंद किये जयश्री के घर की सीढ़ियाँ चढ़ गई ।वह मुट्ठी आज तक नहीं खुली है ,इस डर से ---कहीं यादों के सुमन सरक न जाय  ।


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रविवार, 28 अप्रैल 2013

प्रतिभाशाली भारतीय विद्यार्थी

एम. आई. टी.( M.I.T, U.S.A) में जाने  वाला 

 भारतीय कैम्ब्रिज छात्र 

ऋषभ भार्गव 




समय-समय पर मेधावी छात्रों के बारे में सुनने को मिलता है तो विश्वास –अविश्वास के हिंडोले में झूलते रहते हैं ।कहा जाता है  स्वामी विवेकानंद को  कुछ ही दिनों में एनसाइक्लोपीडिया के दसों भाग याद हो गए थे । स्वतंत्र इंडोनीशिया राष्ट्र के प्रथम राष्ट्रपति सुकारनो की तो याददाश्त ऐसी थी कि एक बार जो पढ़ लिया या देख लिया वह सदैव के लिए मसितिष्क पटल पर अंकित हो गया। 

कई वर्षों पहले जब बुद्धि के धनी एक  ऐसे ही  बच्चे के संपर्क में आई तो पढ़ी –पढ़ाई ,सुनी सुनाई बातों पर विश्वास  होने  लगा । यह बालक करीब ढाई –तीन वर्ष  का होगा, उसकी माँ खाना खिलाते समय इंगलिश व हिन्दी बालगीतों के ट्रान्जिस्टर मेँ कैसट्स लगा दिया करती थी जिनको वह बड़े  ध्यान से सुनता और पेट भरकर बना किसी बाल नखरों के खा भी  लेता । नतीजा यह हुआ कि उसे वे सब याद हो गई और जब नर्सरी में गया तो जो बच्चों को सिखाया जाने लगा वह उसे पहले से ही याद था । माँबाप दोनों ही सुशिक्षित ,उस पर भी डाक्टर !

डॉ राजन -डॉ रंजना
कानपुर(भारत)

शायद इसी कारण बाल मनोविज्ञान समझते हुये उन्होंने उसे आगे बढ़ाने के प्रयोजन से  उच्च स्तर  की बाल पुस्तकें घर में पढ़ाना  ठीक समझा ताकि बच्चा उकताए भी नहीं और ज्ञान के  अंकुर पनपते जाएँ  ।
घर में सभी को पढ़ने का शौक !इसके लिए भी नित नयी बाल कहानियों की पुस्तकें व सी. डी .आतीं । रिश्तों की महक से भरपूर संयुक्त परिवार में दादी –बाबा की छ्त्र छाया में वह बालक  हर जन्म दिन मनाता  ,
प्रथम जन्मदिन की केक कट रही है
दादी-बाबा के साथ!


 अनुशासन की डोर में बंधा खूब सबसे कहानियाँ सुनता, सी. डी. की सहायता से दूरदर्शन पर कोमिक्स देखता ।धीरे -धीरे ज्ञान का घड़ा भरने लगा । 

कहते हैं -पूत के पाँव पालने मेँ ही दिखाई दे जाते हैं यह बात इसके मामले में सोलह आने सच है ।

वह  तीव्र स्मरण शक्ति का बादशाह है , बचपन में ही पता लग गया था । घटना उस समय की है जब वह मुश्किल से 2-3 वर्ष का रहा होगा ,उसकी माँ कहानी सुनाने को एक पन्ना खोलकर बैठी । किताब का चित्र देखते ही उसने वह कहानी पढ़नी शुरू कर दी जो उस पेज पर लिखी थी ,माँ ने अवाक होकर दूसरा पन्ना पलटा –उसने पन्ने के अनुसार फिर बोलना शुरू कर दिया और आखिरी पंक्ति के अनुसार रूक गया  उस समय वह पढ़ना नहीं जानता था ,केवल अक्षर पहचानता था । पर कहानी सुनने से उसे वह याद हो गई थी और पता लग जाता था कि किस पेज पर क्या लिखा है 

जब भी उससे पूछो –क्या चाहिए ?केवल एक माँग—किताब !उसके पापा किताबों की दुकानों पर ले जाते ,उसके लिए किताब का चुनाव करते । 
एक बार वह अपने मम्मी –पापा के साथ किताबों की दुकान पर गया । भाग्य से मैं भी साथ थी । कोई काफी पीने बैठ गया कोई किताबों पर सरसरी निगाह ही डाल रहा था । यह बच्चा एक स्टूल पर जम कर बैठ गया और बाएँ –दायें –ऊपर के रैक से किताबें निकालता ,जल्दी –जल्दी किताब के पेज पलटकर पढ़ता और रख देता क्योंकि उसकी पढ़ने की स्पीड बहुत तेज थी । पढ़ने में इतना तल्लीन था कि अपने चारों ओर का कुछ पता ही न था । दुकानदार टकटकी लगाए इसी की ओर देख रहा था । जब उससे न रहा गया तो बोला –भैया यह दुकान है ,लाइब्रेरी नहीं

वैसे भी उसकी बातें चौंकाने वाली ही होती थीं । ऋषभ करीब रहा  होगा पाँच वर्ष का ,उसके पापा दो वर्ष को लंदन गए । साथ में वह और उसकी  मम्मी भी गईं ।उसका स्कूल में दाखिला हो गया ,नया वातावरण बहुत रास आया।  
प्यारा बचपन

कारणवश मम्मी को भारत जल्दी लौटना  पड़ा।  ऋषभ को जब मालूम हुआ कि मम्मी के साथ उसका भी टिकट ले लिया गया है ,वह अनमना हो उठा और बोला --किससे  पूछकर मेरा टिकट लिया गया ,पापा के साथ भी मैं जा सकता था ।कुछ पलों को  माँ -बाप भौचक्के से उसकी ओर देखते रहे । 

क्रिकेट ,टेबिल टेनिस का खिलाड़ी होते हुये भी यह बच्चा साधारण बच्चों से कुछ अलग था । शोर –गुल ,धूम –धड़ाका,शादियों की भीड़भाड़ से  दूर रहना ही पसंद  करता था । शांत ,मितभाषी व किताब मंडली से घिरा बच्चे का  बुद्धि बीज धीरे –धीरे पनपता हुआ प्रतिभा पुंज में परिवर्तित हो गया ।

इस प्रतिभा को जानने की जिज्ञासा जरूर होगी । यह और कोई नहीं  बल्कि मेरा नाती और ऋचा का अग्रज प्यारा भाई ऋषभ है ।
भाई-बहन
अगर चंचल मन और शैतान बचपन की थाह लेनी हो तो इन  भाई -बहन की तकरार देखते ही बनती है  ।

ऋषभ सफलता की सीढ़ियाँ लगातार पार करता चला गया और कर रहा है । उसकी प्रारम्भिक शिक्षा कानपुर (भारत )में ही हुई और सेठ आनंद राम जयपुरिया का छात्र रहा । हाई स्कूल और 12वीं कक्षा में सिटी टोंपर बनने का गौरव प्राप्त हुआ । 2011 में तो उसने आई .आई .टी. कानपुर में 24वीं रैंक लाकर कमाल कर दिया ।
 उसके रिजल्ट के समय दूसरे उत्तेजित होते हैं ,उत्साह से भर जाते हैं पर वह अपनी उपलब्धियों को बहुत सहजता से लेता है जैसे कुछ विशेष हुआ ही नहीं या उसका अंदाज उसको पहले से ही लग जाता होगा ।
ऋषभ का आई .आई. टी.जाने का पूर्ण निश्चय था पर भाग्य तो उसे कहीं और ले जाना चाहता था ।

उसके मामा जी लंदन निवासी हैं । 

रवि भार्गव
उनकी बेटी का कैम्ब्रिज इंजीनियरिंग में चयन हो चुका था । उन्होंने सुझाव दिया -क्यों न ऋषभ के लिए वहाँ कोशिश की जाए । बस पूरा परिवार चाहत के पंखों पर सवार हो इस दिशा की ओर मुड़ गया । 
जहां चाह होती है वहाँ राहें अपने आप निकल आती हैं । ऋषभ की मेहनत रंग लाई । लिखित परीक्षा और साक्षात्कार में सफलता प्राप्त कर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी ( U.K. ) गिरटन कालेज में इंजीनियरिंग में दाखिला पा ही लिया 

भारत में हर वर्ष विभिन्न स्ट्रीम –इंजीनियरिंग ,साइंस ,और हयूमनिटीज़ से कैम्ब्रिज में केवल तीन छात्रों को प्रवेश पाने का अवसर मिलता है । ऋषभ 2011 में उनमें से एक था और तकदीर से उस को  कैम्ब्रिज कॉमन वेल्थ ट्रस्ट द्वारा डॉ मनमोहन सिंह स्कालरशिप भी मिल गई ।

कैम्ब्रिज में ऋषभ अपने मित्रों के साथ 

आजकल वह इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष की पढ़ाई में व्यस्त है । कैम्ब्रिज में पढ़ाई का घमासान युद्ध तो है ही ।एक से एक टॉपर अपना  भविष्य बनाने  में लगे हैं  पर वहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भी भरमार है । जिसने कभी गाना न गाया हो वह गाना सीख जाता है जिसने कभी अभिनय न किया हो वह नाटक में भाग लेने लगता है  ! 

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जिसने कभी डांस न किया हो उसके पैर  सुर की ताल पर थिरकने लगते हैं ।


 एक बार किसी ने पूछा -यहाँ पढ़ना भी बहुत पड़ता है और कार्यक्रमों में भाग भी लेना पड़ता है । दोनों काम कैसे करोगे ? एक ही कर सकते हो ।
 उत्तर मिला - हम दोनों करेंगे । 
-कैसे ?
-नींद कम कर देंगे । 
 तो ---यह है राज वहाँ के योग्य अपने को बनाने का । ऋषभ ने इस चुनौती को भी स्वीकार किया ।अध्ययन के साथ -साथ रचनात्मक ,व्यवहारिक व  सांस्कृतिक गतिविधितों में कोई कमी न आने दी । 

वहां की कुछ झलकियाँ ---


कैम्ब्रिज छात्रों के साथ प्रिंस चार्ल्स

वह मारा  छक्का !

ज्ञान व स्मृति का सागर 

जीवन के रंगों में है एक प्यार का रंग--
होली है !


मार्च 28 (2013 )को मुझे उसके M.I.T. यूनिवर्सिटी(  Massachusetts Institute Of Technology)   में जाने की सूचना मिली ।

M.I.T.University
U.S.A.

खुशी और आश्चर्य की रिमझिम बरसात होने लगी । खुशी इसलिए --- खुशियों के फूल  आँगन में वसंत की तरह छा गए  और आश्चर्य इसलिए कि ऋषभ अकेला नहीं जा रहा है बल्कि उसकी बहन निहारिका का भी चयन  M.I.T.के लिए हो गया है । इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष की पढ़ाई वे वहाँ  करेंगे  । 


निहारिका

कैसा संयोग है !एकही  परिवार से दो इंजीनियर कैम्ब्रिज छात्र और अब M.I.T. में भी साथ साथ । 
यह  (U.S.A.)  में है । कैम्ब्रिज और एम्. आई .टी .  के बीच एक वर्ष के लिए कुछ विद्यार्थियों की अदला बदली होती है । इस वर्ष करीब 85 ने कोशिश की थी और 15 चुने गए ।शिक्षा और रिसर्च की दृष्टि से यह विश्व की सर्वोत्तम यूनिवर्सिटी है जहाँ बुद्धि  को और  वही ज्यादा तराशने व प्रतिभा को विकसित करने  का अवसर मिलता है । 
ऋषभ भार्गव व निहारिका भार्गव जैसे छात्रों ने सिद्ध कर दिया कि  भारत माँ की संतान भी किसी से कम नहीं !जहाँ भी जायेगी  खुद चमकेंगी और रिश्तों की मधुरता ,पारिवारिक एकता व संस्कारों के उजास में अपने देश  का नाम रोशन करेगी । 


भारत माँ की संतान

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