शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2017

कनाडा डायरी कड़ी -15


डायरी के पन्ने 
                     नाट्य उत्सव “अरंगेत्रम”
                 सुधा भार्गव 
5॰ 5॰ 2003

“अरंगेत्रम”

शाब्दिक अर्थ है रंगमंच पर प्रथम प्रदर्शन । “अरंगेत्रम”के अवसर पर शिष्या अपनी कला की दक्षता को सार्वजनिक रूप से प्रमाणित करती है और इसके बाद गुरू उसे स्वतंत्र कलाकार की तरह अपनी कला के प्रदर्शन की अनुमति देता है।


   डॉक्टर भार्गव की पुत्री नेहा का अरंगेत्रम(Arangetram)नाट्य उत्सव 4 मई सेंटर पॉइंट थियेटर,ओटावा में होना था। उसका निमंत्रण कार्ड पाकर बहुत ही हर्ष हुआ। विदेश में ऐसे भारतीय कला प्रेमी!आश्चर्य की सीमा न थी। शाम को जब हम वहाँ पहुंचे,हॉल खचाखच भरा हुआ था। केवल भारतीय ही नहीं उनके अमेरिकन ,कनेडियन मित्रगण भी थे। करीब चार घंटे का कार्यक्रम था। नेहा ने भरत नाट्यम नृत्य शैलियों पर आधारित लुभावने नृत्य प्रस्तुत कर दर्शकों का मन मोह लिया। हॉल करतल  ध्वनि से बार बार गूंज उठता।
  इस रस्म में मंच पर सार्वजनिक रूप से नृत्य के प्रथम प्रदर्शन के बाद छात्र यह सिद्ध कर देता है कि वह इस कला में पूर्ण पारंगत है। दक्ष कलाकार की हैसियत से वह स्वतंत्र रूप से विभिन्न कार्यक्रमों का प्रस्तुतीकरण कर सकता है।
  नेहा की गुरू डॉ बासंथी श्रीनिवासन(Dr Vasanthi Srinivasan) हैं जो ओटावा में नाट्यांजली स्कूल की संस्थापक है। वे आजकल स्कूल की डायरेक्टर हैं। उन्होंने ओटावा यूनिवर्सिटी से PhDकी और 1989 से ही फेडेरल गवर्नमेंट मेँ काम कर रही हैं। उन्होंने अनेक एक्ज्यूटिव पदों पर काम किया। आजकल ओंटोरियो क्षेत्र में कनाडा स्वास्थ्य विभाग में रीज़नल एक्जूयटिव डाइरेक्टर हैं। वासनथी जी ने भारत नाट्यम  की तंजौर शैली को आगे बढ़ाया ।     इनके गुरू श्री॰टी॰के मरुथप्पा थे। कलाविद डॉ वासनथी को नृत्यकलानिधि की उपाधि से भी सम्मानित किया गया।
  नेहा उनकी 50वीं छात्रा है जिसने अरंगेत्रम किया। हायर सेकेन्डरी की इस छात्रा के लिए सभी की शुभकामनाएँ थीं कि अध्ययन के साथ साथ नृत्य के क्षेत्र में भी नाम कमाए,उसके परिवार और भारत का नाम सूर्य किरणों की भांति झिलमिलाए।
  इस उत्सव की सफलता का श्रेय नेहा की दस वर्ष की नाट्य साधना को जाता हैं। राजस्थान के लोकनृत्यों में उसकी सदैव से रुचि रही है। उसने न जाने कितनी बार मंच पर अपना कला प्रदर्शन किया है। कई बार स्वेच्छापूर्वक नृत्य शिक्षिका रही है। खेलों  में भी वह किसी से कम नहीं । हॉकी मेँ उसकी विशेष दिलचस्पी है। शेक्सपीयर  और मीरा उसके प्रिय कवि है। इस प्रकार हिन्दी – अंग्रेजी दोनों साहित्य में उसने योग्यता पा ली है। उसका कविता लेखन इस बात का प्रमाण है।
  
डॉ भार्गव काफी समय से यहाँ हैं।  मेरे बेटे –बहू को अपने बच्चों के समान समझते हैं।किसी भी पारिवारिक –धार्मिक पर्व पर वे उन्हें बुलाना नहीं भूलते। चाँद भी उनके नेह निमंत्रण की अवहेलना नहीं कर पाता। सच,प्रेम से इंसान खिंचता  चला जाता है।
   विशेष -यह संस्मरण काफी पहले लिखा गया है। प्रिय नेहा और उनकी गुरू इस समय उन्नति के चरम शिखर पर होंगे। उनको मेरी ओर से मुबारकबाद । 

साहित्य कुंज में प्रकाशित  
02.01.2017 
 :                                                         क्रमश :

कड़ी 14-कनाडा डायरी



डायरी के पन्ने

                            स्वागत की वे लड़ियाँ
                         सुधा भार्गव  
3.5.2003 

गृह प्रवेश 

शीतल जब तब सुप्रसिद्ध महादेवी वर्मा की पंक्तियाँ गुनगुनाती रहती है-

चारु चंद्र की चंचल किरणें खेल रही हैं नभतल में
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अंबर में।

     शायद उसने पहले से ही निश्चित कर रखा था-बेटी हुई तो अवनि नाम रखा जाएगा । बेटा होने पर उसे अम्बर  कहेंगे। इसलिए उस फरिश्ते  को जन्म के बाद से ही उसे अवनि कहा जाने लगा।
    जैसे ही नन्हें से शिशु को लेकर चाँद और शीतल घर में घुसे उनके स्वागत के लिए हम दोनों दरवाजे की ओर दौड़ पड़े और दिमाग के तंतुओं ने आपस में ही टकराना शुरू कर दिया---
    अवनि,प्यारी बच्ची ,तुम  तीन दिन अस्पताल रहीं  पर कह नहीं सकती तुम्हें  देखे बिना ये तीन दिन कैसे कटे?लगता था मेरे शरीर का कोई अंग छिटक कर दूर जा पड़ा है।अस्पताल में ही तुम्हारे पापा ने फोटुएँ खटखट खींचनी शुरू कर दी थीं। चेहरे पर बस बड़ी बड़ी आँखें ही नजर आईं । एकदम अपने बाबा पर गई हो । उनकी आँखों में गज़ब का आकर्षण है। बड़े होने पर तुम्हारी आँखें भी उनकी तरह हँसती और बोलती लगेंगी।
    तुम्हारे पापा के तो अंग अंग से उल्लसित किरणेँ फूट फूट पड़ रही हैं।थका हुआ है फिर भी एक मिनट मिलते ही डिजिटल कैमरे के तार टी॰वी॰से जोड़ दिए हैं और तुम्हारी अपनी मम्मी के साथ प्यारी प्यारी  फोटुएँ स्क्रीन पर आ जा रही हैं पर मेरी  तो हंसी फूट रही है –24 घंटे के बच्चे की इतनी सतर्क निगाहें और खुला मुँह। तुम्हें देख तुम्हारे  पापा का बचपन याद आ रहा है। उसका भी सोते समय मुँह खुल जाता था। मैं तो उसकी टुड्ढी के नीचे तह किया रुमाल रख देती थी कि कोई मक्खी –मच्छर न घुस जाए। देखो तो –--“मेरे बेटे से कितनी मिलती है मेरी पोती” चिल्ला-चिल्लाकर यह  कहने को मन करता है जिससे दसों दिशाएँ जान जाएँ कि तुम मेरे बेटे की बिटिया हो। मेरा वंश बढ़ रहा है।
*
आत्मीयता का सैलाब

     पोती के जन्म पश्चात एक सुबह  मैंने चाय का प्याला मुँह से लगाया ही था कि चाँद और शीतल सीढ़ियाँ उतरकर जल्दी से आए। बेटा बोला –माँ ,हमें बचा लो ---हमें बचा लो।
   -क्या हुआ? मैं घबरा उठी ।
   -आज करीब दस लोग मिलने आएंगे।मेरी छाती पर  मूंग दल कर  जाएंगे। मूंग-बेसन की पकोड़ियाँ बना दो माँ,बचा लो माँ।
   उसके कौतुक देख मेरी हंसी फूट पड़ी।
   मेहमानों की आवभगत के लिए पूरा परिवार फिरकनी की तरह नाचने लगा। किसी ने रसोई संभाली,किसी ने अवनि को नहला धुलाकर नन्ही परी बना दिया,कोई घर की साज संवार मेँ लग गया।
   समय के  पाबंद डा दत्ता ने ठीक 11बजे दरवाजे पर दस्तक दे दी। घर मेँ प्रवेश करते ही उनकी पत्नी ने भारतीय मिठाइयों का डिब्बा मेरे हाथों मेँ थमा दिया ,जिसे देखते ही मुंह मेँ पानी भर आया। खोलकर देख लेती तो न जाने क्या दशा होती। जबसे भारत छोड़ा हल्दीराम,नाथूराम,गंगूराम की मिठाई सपने की बात हो गई।
   ये डॉक्टर साहब बाल विशेषज्ञ थे। उनके आते ही अवनि के बारे मेँ बातें शुरू हो गईं। मालिश किस तेल से हो,कब नहलाया जाए आदि –आदि।  प्रश्नों का अंबार लग गया। उन्होंने अपने अभ्यस्त हाथों से अवनि को फुर्ती से उठाया और नाल देखने लगे,पर मेरा तो दिल धडक उठा –कहीं नाल हिल न जाए और छोटी सी जान को कष्ट हो। अभी तो वह सूखकर गिरा भी नहीं है।
    डॉक्टर दत्ता ने बड़े अपनेपन से शिशु पालन संबंधी बातें बताईं। बच्ची को बहुत देर तक गोद मेँ लिए बैठे रहे। उनके व्यवहार मेँ चुम्बकीय अदा थी। हम भी उनकी ओर खींचे चले गए । अब तो अवनी जरा छींकती भी तो दत्ता अंकल याद किए जाते।
   दत्ता साहब के जाने के बाद मिठाई का पैकिट खोला गया और बच्चों  की तरह उसे चखा जाने लगा। हाथ के बने नुक्ती के लड्डू,काजू की बर्फी खाकर हम मिसेज दत्ता की प्रशंसा किए बिना न रहे। भारतीय स्टोर और टोरेंटों मेँ मिठाइयाँ मिलती तो हैं पर उनको चखते ही मुंह का स्वाद कड़वा हो जाता है इसी वजह से भारतीय घर मेँ मिठाई-नमकीन बनाकर पाक कला मेँ खूब निपुण हो गए हैं। पुरुष भी इन कामों मेँ महिलाओं की खूब मदद करते हैं।
पिछले तीस वर्षों से दत्ता परिवार ओटवा मेँ बसा हुआ है पर हिन्दी, बंगाली और संस्कृत भाषा व      भारतीय संस्कृति से ,रीतिरिवाजों व त्यौहारों से बेहद जुड़े हैं। विदेश मेँ भी रहकर अपनी मिट्टी से उन्हें बहुत प्यार है। उनका घर मुझे जरूर म्यूजियम नजर आता है। परंतु भारत के हर राज्य की झाँकी उनके विशालकाय भवन मेँ देखने को मिल जाएंगी।उसे देख एक सुखद अनुभूति भी होती है।
*
नर्स का नजरिया

   उसी शाम को स्वास्थ्य विभाग से एक नर्स आई। उसने हमारे घर आए नवजात शिशु की जांच की और नए बने माँ –बाप को पालन पोषण संबंधी तथ्य बताए। 2घंटे तक समस्याओ का समाधान करती रही । मैं इस व्यवस्था को देख बहुत संतुष्ट हुई। पर एक बात मुझे बहुत बुरी लगी।
नर्स ने पूछा-घर मेँ कोई सहायता करने वाला है?
   -हाँ,मेरे सास-ससुर भारत से आए है। बहू शीतल बोली।
   -कब तक रहेंगे?
   -3-4 माह तक।
   -क्या वे तुम्हारी वास्तव मेँ सहायता करते हैं?
   -सच मेँ करते हैं।
   -पूरे विश्वास से कह रही हो?
   -इसमें कोई शक की बात ही नहीं है।
   -ठीक है,तब भी शरीर से कम और दिमाग से ज्यादा काम लो।
   नर्स के शंकित हृदय की बहुत देर तक थाह लेती रही,कंकड़ों के अलावा कुछ न मिला।  
   न जाने ये पश्चिमवासी सास –बहू के रिश्ते को तनावपूर्ण क्यों समझते हैं?जिस माँ की बदौलत मैंने प्यारी सी पोती पाई उसे क्यों न दिल दूँगी। इसके अलावा माँ सबको प्यारी होती है। बड़ी होने पर जब अवनि देखेगी कि मैं उसकी माँ को कितना चाहती हूँ तो वह खुद मुझे प्यार करने लगेगी। उसके प्यार के लिए मुझे तरसना नहीं पड़ेगा। दादी अम्मा कहकर जब वह मेरी बाहों मेँ समाएगी तो खुशियों का असीमित सागर मेरे सीने मेँ लहरा उठेगा। शायद उस नर्स ने कभी साफ नीला आकाश देखा ही नहीं । उसकी नजर केवल धुंधले बादलों पर ही टिकी रहती है।
क्रमश
  
साहित्य कुंज में प्रकाशित 
11.3.2016

लिंक-http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/14_swagat_kee_vah_laDiyan.htm