रविवार, 22 अक्तूबर 2017

कनाडा डायरी की 22वीं कड़ी



डायरी के पन्ने         
        

सुधा भार्गव

साहित्यकुंज में प्रकाशित
10.12॰2017
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/22_King.htm/


25.5.2003
किंग 

     कनाडा पहुँचने से पहले ही बेटे ने एक किंग खरीदा था। था। देखने में बड़ा सुंदर और शक्तिशाली!। जैसा नाम वैसा ही काम---–इतना मजबूत कि 10 मोटे –ताजे  भी उस पर चढ़  जाएँ तो थकने का नाम नहीं। आप बड़े असमंजस में होंगे कि यह कैसा किंग है! चलिए राज की बात बता ही दूँ। असल में यह एक किंग साइज पलंग है। यह मुझे बेहद पसंद है। इसलिए नहीं कि उसका मूल्य  डेढ़ लाख है  बल्कि इसलिए कि मोटे मोटे डबल गद्दे वाले पलंग पर मेचिंग  तकिये,लिहाफ चादर –कुल मिलाकर राजसी छ्टा  बिखरी पड़ती है ।
     चाँद का  दोस्त तुषार भी पलंग की तलाश में था । खरीद्ने से पहले उसने इस किंग से मिलना ठीक समझा और एक दिन अपनी माँ के साथ हमारे घर आन पहुंचा । वे तो उस भव्य पलंग की शान देख निहाल हो गईं और बोली-बेटा, तू तो आँख मींचकर ऐसा ही पलंग खरीद ले । कम से कम आखिरी दिनों में तो मेरे दिल की एकमात्र इच्छा पूरी हो जाए।
     “माँ इतना उतावलापन ठीक नहीं । मुझे सोचने –समझने का मौका तो दो।”
    “अरे क्या सोचना ?तेरे डैडी ने तो कभी मेरी  इच्छा के बारे में सोचा ही नहीं और तू, तू भी बस सोचता ही रह जाएगा।”
    तुषार से कुछ कहते नहीं बन रहा था। ऐसी नाजुक स्थिति से उसे बचाने के लिए मैं उसकी माँ को लेकर डाइनिंग रूम में ले गई।एकांत पाकर वे तो पूरी तरह बिखर ही पड़ीं। ऐसा लगा बहुत दिनों का दबा लावा फूटकर बाहर आना चाहता है।
   “बहन जी,रिटायरमेंट के बाद इन्होंने नया घर खरीदा और मेरी  दिली इच्छा थी कि गृह प्रवेश से पहले एक खूबसूरत पलंग खरीदकर कमरे को सजाऊँ पर तकदीर की मारी –मेरे घर में दाखिल होने से पहले ही राक्षसनुमा  पलंग ने आसान जमा लिया था । इनका कोई दोस्त उसे बेचकर अमेरिका जा रहा था और उनको वह पसंद आ गया। बोले –इसकी लकड़ी बहुत अच्छी है । बाजार खरीदने जाओ तो दुगुने दाम  में पड़ेगा।मैं इसे खरीद लेता हूँ ।  मैं मन मसोस कर रह गई।
    इस बात को तीन साल हो गए लेकिन आज भी जब तब महसूस होता है कि कोई इस पर करवटें बदल रहा है। कभी खिल्ली उड़ाने की आवाजें आती हैं—हा—हा—हमारे इस्तेमाल किए पलंग पर सो रहे हो। तुम दोयम दर्जे के हो ----दोयम दर्जे के।  हा—हा-।  
   यह आवाज मेरे कानों में शीशा सा पिघला देती है जिसकी यंत्रणा का कोई अंत नहीं। हर रात अतीत की ढेरी से एक चिंगारी निकलकर मुझे अंदर से झुलस जाती है। एक ही बात उस समय जेहन में आती है –इस पलंग को बदलना है । कभी-कभी अपने भीतर उमड़ते तूफान से विचलित हो दूसरे कमरे में सोने का उपक्रम करती हूँ लेकिन क्या सो पाती हूँ? एक बार मेरे पति ने इस चहलकदमी का कारण पूछा। समझाने पर भी मेरी अनुभूतियों की गहराई में न उतर सके।”
   भावुक दिल की भंडास निकाल कर वे कुछ शांत हुईं पर उनकी आँखें आंसुओं से लवालव थीं जो पनपते विक्षोभ को सम्हाले हुए थीं।
   “आप अपने को संभालिए। ज़िंदगी कभी -कभी ऐसे गुल खिलाती है कि उस पर हमारा वश नहीं।” मैंने उन्हें सांत्वना देने की कोशिश की।
   “क्या मेरे जैसे दोयम दर्जे के और लोग भी हैं या मेरे साथ ही ऐसा होता है।’’ आहत सी बोलीं।
“ऐसी बात नहीं,किसी के साथ भी ऐसा घट सकता है। मेरी यादों में एक किस्सा उभर कर आ रहा है। हाँ याद आया—मैंने वह  किस्सा अपनी  चाची से  सुना था। 
     वे कहा करती थीं –हमारे पड़ोस में एक लड़की लीला रहती थी। उसकी माँ के मरने के बाद पिता ने दूसरी शादी कर ली। कुछ समय बाद ही लीला की नई माँ दो बच्चों की माँ बन गई । काम के बोझ के कारण लीला की उसने पढ़ाई छुड़वादी और रात दिन उसे घर के काम में जोत दिया। मुसीबतों और कष्टों की भरमार ने उसे समय से पहले ही बड़ा कर दिया।
    छोटी बहन की शादी हो गई पर लीला की शादी माँ ने नहीं होने दी। उसकी शादी करने से मुफ्त की नौकरानी हाथ से जो निकल जाती। पर शादी के दो साल के बाद ही छोटी बहन की मृत्यु हो गई। उसके 6 मास के दूधमुंहे बच्चे को लीला सीने से चिपकाए रहती। अचानक सौतेली माँ की जीभ से कंटीली झाड़ियाँ न जाने कहाँ गायब हो गईं और उससे फूल झरने लगे। लीला के खान-पान और आराम का ध्यान रखा जाने लगा। एक दिन सुनने में आया उसकी शादी उसकी मृत बहन के पति से होने वाली है। ताकि घर का जमाई, जमाई ही बना रहे और एक बच्चे को माँ मिल जाए। यहाँ भी उसे बहन की उतरन ही मिल रही थी। यह लीला की बर्दाश्त से बाहर था। उसने उसी रात घर छोड़ दिया।”
   “लीला किस्मत वाली थी जो उसे बहन की उतरन से छुटकारा मिल गया।मेरे तो दूसरे का  इस्तेमाल किया पलंग अभी तक चिपका हुआ है। होगा एक समय जब वह किंग साइज पलंग किंग सा लगता होगा पर अब तो लुंजू –पुंजू थका- थका सा हो गया है। उस पर बैठते ही मेरी उम्र में 10 साल जुड़ जाते हैं और उसी की तरह  जीर्ण –शीर्ण थरथराता कंपायमान मेरे अंग अंग में समा जाता है।’’
    अपनी वेदना व्यक्त कर वे तो हलकापन महसूस करने लगीं पर उसका हलाहल मेरे गले से न उतर सका।

नोट-रंगबिरंगे किंग पर क्लिक करते ही आप इसे साहित्य कुंज अंतर्जाल पत्रिका में भी पढ़ सकते हैं। 
क्रमश:
    


गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

कनाडा डायरी की 21वीं कड़ी


डायरी के पन्ने 
सुधा भार्गव 
साहित्य कुंज में प्रकाशित
09॰07॰2017 
http://sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/21_tulip_utsav.htm
ट्यूलिप अंतर्रराष्ट्रीय एकता का प्रतीक 


19.5॰2003
ट्यूलिप उत्सव 

     अवनि ने वॉल माट बाजार में तंग नहीं किया , इसलिए हमारी हिम्मत बढ्ने लगी और 21 दिन की नाजुक सी बच्ची के साथ ट्यूलिप उत्सव जाने का विचार किया।
    यह उत्सव कनाडा की राजधानी ओटवा में  हर वर्ष 1-19मई तक मनाया जाता है। कनाडा प्रवास के समय बड़ी इच्छा थी कि इसे देखा जाय पर हिम्मत नहीं हो रही कि छोटी सी पोती को लेकर जाएँ।  19 तारीख उत्सव का अंतिम दिन--- बेचैनी होने लगी । आज भी नहीं गए तो न जाने भविष्य में फिर मौका मिले या न मिले।
    बड़े साहस औए सोचा विचारी के बाद आखिर 19 मई को 12 बजे निकल ही पड़े और हमारी कार कमिशनर्स पार्क की ओर दौड़ने लगी। बेबी सीट पर सोती हुई अवनि को कस दिया । हमने भी अपनी -अपनी पेटियाँ बांध लीं। यहाँ तो हरएक को कार यात्रा के समय पेटी बांधना अनिवार्य है।
    कुछ ही देर में अवनि जाग गई।उसने हाथ पैर चलाने चाहे पर खुद को बंधा महसूस कर रोने लगी। उसे रोता देख उठाने के लिए मेरे हाथ कुलबुलाने लगे। पर चलती कार में गोदी में लेकर उसे दुलार नहीं सकती थी।इस मजबूरी से मुझे घुटन होने लगी। वह तो ईश्वर की बड़ी कृपा रही कि कार के हिचकोलों ने थपकी दे उसे जल्दी ही फिर सुला दिया। एक पल तो मुझे ऐसा लगा मानो कैदी को जंजीरों से बांध दिया हो।पर सुरक्षा की दृष्टि से यह नियम भी उचित जान पड़ा।
     पार्क में घुसते ही रंग -बिरंगे ट्यूलिप फूलों की बहार देख मुझे लगा सजे –धजे चमकते परिधान पहने बाराती बगीचे में टोली बनाए मुस्कुरा रहे हैं और दर्शक उनको निहारते-स्वागत करते थक नहीं रहे। मैंने तब तक कोई फूल इतने रंगों में नहीं देखा था। 
    यहाँ  तो पीले,नारंगी,सफेद,महरून, लाल-गुलाबी—कोई रंग तो नहीं छूटा था। इतने मनमोहक रंगों की छटा ने बरबस हमें अपनी ओर खींच लिया।
    पढ़ –सुन रखा था कि हमारे देश में  श्रीनगर डलझील के किनारे पहाड़ियों की चोटियों पर बना इंदिरा गांधी मेमोरियल ट्यूलिप उद्यान है।जहां 70 किस्म के ट्यूलिप करीब 13लाख से भी ज्यादा हैं। यहाँ अप्रैल के पहले हफ्ते में बड़ी शान व उत्साह से ट्यूलिप समारोह मनाया जाता है। इस बाग में भी फूल होलेण्ड से ही आए हैं इसके देखने का सौभाग्य अभी तक प्राप्त नहीं हुआ था।
    आस्ट्रेलिया से आए मेरे एक मित्र ने बताया था कि बसंत के पदापर्ण करते ही आस्ट्रेलिया मेँ फूल उत्सवों की बाढ़ आ जाती है। सभी उसकी निर्मल धारा में बह आनंद प्राप्ति करते हैं। उनके सौंदर्य से धरा भी निखर उठती है। दस दिनों तक बोउरल ट्यूलिप टाइम फेस्टिवल का आयोजन होता है जो आस्ट्रेलिया की राजधानी कैनबरा में सितंबर से अक्तूबर तक एक माह चलता है। इतना लंबा होता है यह अद्भुत आस्ट्रेलिया का पुष्प त्यौहार। उनकी ये बातें सुन ट्यूलिप को देखने के लिए और अधीर हो उठती।
    बेटे ने जब बताया कि ओटावा में भी वसंत के आगमन की खुशी में ट्यूलिप पर्व मनाया जाता है। मैं बालिका की तरह उछल पड़ी और अपने से ही वायदा कर बैठी कि बिना इस अलबेले फूल से मिले भारत नहीं जाऊँगी। ट्यूलिप उत्सव मेँ तो जाने का अवसर बहुत बाद मेँ मिला। तब तक मेरे दिमाग मेँ खलबली मचती ही रही और मैंने इधर- उधर से इसके बारे मेँ जानकारियाँ लेनी शुरू कर दीं।
    यह जानकर मैं अचंभित रह गई कि ट्यूलिप अंतर्राष्ट्रीय मैत्री का प्रतीक है। इसके पीछे भी एक कहानी है। दूसरे विश्व महायुद्ध के समय डच राजपरिवार को कनाडा ने आश्रय दिया था। जर्मन आक्रमण के कारण प्रिंसेस जूलियन को अपने दो बच्चों के साथ नीदरलैंड छोडना पड़ा और तीसरा बच्चा राजकुमारी मारग्रेट का जन्म कनेडियन सिविक अस्पताल में हुआ। नीदरलैंड को आजाद कराने में कनेडियन सिपाहियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
    1945 में धन्यवाद देते हुए डच परिवार ने ओटावा में  1,00000 ट्यूलिप बल्ब भेज अपनी कृतज्ञता प्रकट की।यह उपहार हॉलैंड राजपरिवार से कनाडावासियों को मिला। इन फूलों के सौरभ से कनाडा महका पड़ रहा है। आजतक यह प्रेमपूर्ण मैत्री भाव का सिलसिला अनवरत चल रहा है। हर साल हॉलैंड से 30लाख ट्यूलिप बल्ब आते हैं। इस प्रेम और शांति के पर्व को देखने दुनिया के कोने कोने से पर्यटक उमड़ पड़ते हैं और कुसुमावलि सी  कोमल यादें अपने साथ ले जाते हैं।
     दुनिया का सबसे बड़ा ट्यूलिप उत्सव देख हम फूले नहीं समा रहे थे।एक तरफ लाइन से विभिन्न देशों के पविलियन भी बने हुए थे जो अपनी संस्कृति- कला और भोजन प्रस्तुत करते नजर आ रहे थे। संगीत कार्यक्रमों का भी ज़ोर -शोर था जिनको मुफ्त में बैठकर सुना जा सकता था।
घूमते -घूमते वहाँ मेरे बेटे के एक मित्र मिल गए जो हाल ही में एम्सटर्डम होकर आए थे। उससे पता लगा कि ट्यूलिप तो नीदरलैंड का राष्ट्रीय फूल है। उसकी राजधानी एम्सटर्ड्म में तो सबेरे -सवेरे फूलों से लदी गाड़ियों की कतारें लग जाती है। शहरवासी फूलों के बड़े शौकीन हैं। थोक में खरीदकर अपने घर सजाते हैं। वेलेंटाइन दिवस पर लाल ट्यूलिप का गुलदस्ता बड़े प्यार से देते है। नई दुलहनें सफेद ट्यूलिप को ज्यादा पसंद करती हैं । उनको उसमें अपनी सी कोमलता का आभास होता है।
    धूप खुशनुमा थी सो काफी देर तक फूलों की गलियों में हमारे कदम धीरे–धीरे बढ़ते रहे। फूलों को पास से देखने का मौका मिला।ट्यूलिप कौफ मैनियाना(Tulipa Kauf maniana Regal)लाली लिए पीला फूल बड़ा मन मोहने वाला था। उसकी ओर हम खींचते चले गए। लेकिन ट्यूलिप क्लूसियाना वेंट(Tulipa Clusiana Vent) मुझे सबसे ज्यादा सुंदर लगा। इसके फूल सफेद मोती की तरह चमचमा रहे थे। उसकी पंखुड़ियों के बाहरी तरफ गुलाबी -बैगनी रंग की धारियाँ प्रकृति के कुशल हाथों सँवारी गई थीं। ट्यूलिप आइच्लेरी रीगल(Tulipa Eichleri Regal) गहरे लाल रंग के थे। इनका आकार दूसरे फूलों की अपेक्षा बड़ा था,सुंदर में दूसरों से कम नहीं थे।
    फूलों का रूप निहारते निहारते जी नहीं भरा था। पर पेट की पुकार सुन रुकना पड़ा। छायादार पेड़ के नीचे हमने पड़ाव डाल लिया। बहू शीतल ने बहुत देर बाद अवनी को गोद में लिया। अपना सारा प्यार उस पर उड़ेल देना चाहती थी। मेरे पैर थकान मान रहे थे सो उन्हें संभालते हुए मखमली घास पर बैठ गई।मेरे पति , बेटे के साथ अभी आए कहकर चले गए। लौटे तो हाथ में बडे- बड़े समोसे का पैकिट—मुंह में पानी भर आया। -- यहाँ भी समोसे-- वाह1मजा आ गया।एक ही समोसे से मचलता पेट काफी चुप हो गया।मैंने भार्गव जी से उसके दाम पूछे तो चुप लगा गए। अच्छा हुआ जो नहीं बताया वरना मेरे मुंह का स्वाद कड़वा हो जाता।उसके दाम तो डॉलर में थे और मैं तुलना करने लगती उसकी रुपए से। घर से लाई कॉफी व जूस पी कर थकान उतारी। बहुत देर तक फूलों की मादक खुशबू में सांसें लेते रहे।उठने को मन ही नहीं कर रहा था पर जाना तो था ही। कुछ छवियाँ कैमरे में कैद कर संतुष्ट हो गए कि हम यहाँ नहीं तो ट्यूलिप्स तो हमारे साथ हमारी यादों में रहेंगे।   धूप का ताप कम होने से ठंडी हवा का झोंका सिहरन देने लगा।इसलिए हमने उठ जाना ही ठीक स मझा। हँसते- खिलते ट्यूलिपस को अलविदा कहते हम वहाँ से चल दिए।
    घर पहुँचकर शीतल तो बच्चे में व्यस्त हो गई और हम रात के भोजन की तैयारी में जुट गए। बेटे ने मौका पाते ही कैमरे में कैद की तसवीरों को मुक्त कर दिया है और वे एक एक करके दूरदर्शन के स्क्रीन पर आ रही है। आह!फूलों के बीच में खड़े हम कितने खुश है। अब संगत का असर तो होता ही हैं।फूल हमेशा हँसते नजर आते हैं तो उनका हमपर भी रंग चढ़ गया और यह रंग आज तक नहीं उतरा है।

क्रमश:



रविवार, 1 अक्तूबर 2017

कनाडा डायरी की 20 वीं कड़ी


  डायरी के पन्ने 
                छुट्टी का आनंद                       hut काआनंद 
सुधा भार्गव
साहित्य कुंज में प्रकाशित 
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/20_ChhuTTi_kaa                              _anand.htm                                    

17.5.2013 
छुट्टी का आनंद 
    यह तो मानना ही पड़ेगा की यहाँ के लोग स्वावलंबी हैं। समय को अपनी मुट्ठी में बंद करना अच्छी तरह जानते हैं। मजाल है अनावश्यक रूप से जरा भी समय फिसल कर धूल में मिल जाए ।
    छुट्टी होने पर भी समय का दुरुपयोग इन्हें गंवारा नहीं। उस दिन सभी पुरुष- औरतें घर की साज-संवार में लग जाते हैं। कोई दरवाजों पर पोलिश कर रहा है तो कोई गैराज खोलकर फर्नीचर बनाने में मशगूल है। बढ़ईगीरि के समस्त औज़ार  घर में रहते हैं। यहाँ  मजदूरी बहुत महंगी है। खुद काम करके पैसा बचाया जा सकता है। पैसा होने पर भी जो काम खुद किया जा सकता है उसे करने में वे न हिचकते हैं और न उन्हें अपनी इज्जत जाती नजर आती है। कुछ फर्नीचर के भाग अलग -अलग मिलते हैं जो मशीन से बनते हैं। बस घर में आकर उनके पेच फिट करने होते हैं और देखते ही देखते चंद पलों में मेज-कुर्सी खड़ी नजर आने लगती हैं।
    भारत का कलात्मक व नक्काशीदार फर्नीचर अब्बल तो यहाँ मिलता नहीं और यदि मिलता भी है तो बहुत ऊंचे दामों पर।  भारत की हस्तनिर्मित कला का भला यहाँ क्या मुक़ाबला! पर मशीनी उत्पादन ने यहाँ के जीवन को सरल व सुविधा जनक  बना दिया है।
    छुट्टी के दिन घर से फुर्सत मिलती है तो कनेडियन एकल परिवार ख़रीदारी करता नजर आता है।
    एक रविवार को  मैं भी अपने बेटे के साथ ख़रीदारी के लिए वॉल माट(wall maat Store)गई। 15 दिन की अवनि और उसकी माँ घर पर ही थीं। वहाँ घुसते ही  मैं तो चकित सी रह गई। छोटे छोटे सफेद गुलाबी  चेहरे प्रेंबुलेटर में लेटे नजर आ रहे थे।और उनकी मम्मियाँ मजे से ख़रीदारी कर रही थीं। हमारे यहाँ तो नवजात शिशु को घर से बाहर ले जाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।हम तो सोचते ही रह जाते हैं बच्चे को कैसे ले जाएँ—गर्मी का असर  हो जाएगा—किसी की छूत लग जाएगी। इस धमाचौकड़ी में बच्चे और उसकी माँ को कम से कम घर में सवा महीने तो बंद रखते ही हैं। चाहें देश में हों या विदेश में इस मानसिकता को हम अपने से चिपटाए ही रहते हैं।
    जहां तक भारत की बात है—समझ में आती है वहाँ  की धूल धूसरित सड़कें ,शोर शराबा —चीं—पीं--पीं जैसा वातावरण शिशु के स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं।पर कनाडा में तो  वातानुकूलित कारें हैं और बाजार भी वातानुकूलित। न शीत का प्रकोप न गरम हवा के थपेड़े । घर तो हैं ही पूर्ण आधुनिक। इस कारण उनको घर से निकालने में क्या हर्ज है।
    कुछ भी हो भारतीय समाज में सवा माह तक तो बच्चा और माँ दोनों को कमजोर और नाजुक ही समझते हैं। जिसका इलाज है केवल खाओ-पीओ और चादर तान सो जाओ। तभी माँ बनने के बाद  अधिकतर भारतीय महिलाओं की सेहत कुछ ज्यादा ही अच्छी हो जाती है।
    मैं भी यही सोचती थी कि बहू को कम से कम सवा ढेढ माह तक घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए पर वॉल माट जाने पर मेरी आँखें खुल गईं और अपनी गलती का एहसास हुआ।
    हमने भी निश्चय किया कि अगली छुट्टी पर सब साथ- साथ जाएँगे। पर अवनि को गोदी में लेकर नहीं बैठ सकते थे। उसके लिए कुर्सीयान की व्यवस्था करनी जरूरी थी। यह कार में पीछे की सीट पर रखी होती है। 9किलो तक के शिशु को टोडलर कार चेयर में पेटी से कसकर बैठाया जाता है।यह पेटी विशेष प्रकार की होती है ताकि बच्चे की गरदन और कमर सीट के पिछले भाग से सटी  रहे और किसी अंग को झटका न लगे। टोडलर चेयर न होने पर जुर्माना भुगतना पड़ता है। जुर्माने के झंझट में कौन पड़े यह सोच बेटा पहले बच्ची के लिए यह खास चेयर खरीदकर लाया।
बस मौका देखते ही बड़े शौक से नन्ही सी अवनि और उसकी माँ के साथ बेशोर मॉल चल दिए । दो घंटे खूब आराम से घूमे। सपरिवार घूमने का मजा कुछ और ही है। चाँदनी ने घर की जरूरत का सामान खरीदा। घर में रहते –रहते उसे भी घुटन हो रही थी। 
    यहाँ आकर मुझे आइसक्रीम खाने की बुरी लत पड़ गई है। फ्रिज में तो रहती ही है। बाजार में भी खाना नहीं छोडती।फिर आज तो सब छुट्टी मनाने के मूड में थे तब भला मैं कैसे पीछे रहती। मैंने डिनर की तो छुट्टीकर दी और उसके बदले डेरी कुइन के आगे खड़े होकर खूब आइसक्रीम पेट में उतार ली।
    अवनि के कुलबुलाते ही हम चल दिए। दो घंटे तक बच्ची सोती रही यही हमारे लिए बहुत बड़ा वरदान था।
*
    
घर में घुसते ही मैंने रसोई का मोर्चा सँभाला।  
    कुछ देर में बेटा भी आकर मेरा हाथ बंटाने लगा। काबुली चने ,राजमा अच्छे बना लेता है। मसाल मूढ़ी बनाने में तो उस्ताद है। कनाडा आकर खाना बनाना उसने खूब सीख लिया है। यहाँ के पानी में आत्मनिर्भरता घुली  हुई है।
कुछ देर बाद मैंने कहा –खरीदे समान की जांच-पड़ताल तो कर लो। पता लगा पिस्ते का पैकिट हम उस  काउंटर से उठाना भूल गए जहां सामान के दाम चुकाए थे। सोना बिल लेकर भागा गया।पैकिट लेकर घर में घुसा तब चैन मिला।
    "मुझे तो मिलने की आशा न थी । कोई भी वहाँ से ले जा सकता था।" मैंने कहा।
    "माँ,यहाँ ऐसा नहीं होता। कनाडा ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध है। कनेडियन मेहनत की कमाई खाते हैं।"
    "तूने ठीक ही कहा। मेहनत का रंग तो मैं छुट्टी के दिन भी देख रही थी। चलो खा पीकर थोड़ा आराम कर लिया जाए।"  
    दरवाजा खुला हुआ था । मैं बंद करने उठी तो देखा- पड़ोसी अपनी बड़ी सी वैन निकाल रहे हैं। शायद वह टोयटा थी। उसके पीछे लकड़ी की नाव और चप्पू बंधे हुए हैं। 2-3 साइकिलें भी अंदर की ओर रखी हुई है।
    मैं आश्चर्य से बोली-"सुबह से तुम्हारे पड़ोसी को काम करते देख रही हूँ। कभी कार साफ कर रहे हैं तो कभी अपना बगीचा। अब दोपहर को कहाँ चल दिए?"
    "माँ,अब यह पूरा परिवार समुद्र के किनारे पिकनिक मनाने जा रहा है। सैर सपाटे के साथ सेहत भी बनाएँगे।  साइकलिंग करेंगे,तैरेंगे और नाव चलाएँगे।यह भी तो स्वास्थ्य के लिए जरूरी है।'
    "खाएँगे कब –समय तो बहुत हो गया!"
    "समुद्र तट पर ही खाएँगे-पकाएंगे। वह देखो बारबेक्यू और गैस स्लेंडर  बेटा ला रहा है।"
    "बाप रे इतना भारी -भारी समान! पूरी उठा पटक है।"
    :इनका शरीर बोझा उठाने,मीलों पैदल चलने और निरंतर काम करने का आदी होता है। शुरू से बच्चों का पालन पोषण इसी प्रकार किया जाता है कि आगे चलकर वे एक जिम्मेदार नागरिक बनें।:"      
    सच में छुट्टी का आनंद उठाना तो यहाँ की संस्कृति में पलने वाले लोग जानते हैं। उनकी इस मनोवृति ने मेरी विचारधारा छुट्टी का मतलब –न काम न धाम ,बस आराम ही आराम को बदलकर रख दिया।

क्रमश :