शनिवार, 7 सितंबर 2019

कनाडा डायरी कड़ी ।। 32।।




कनाडा डायरी के पन्ने 
प्रकाशित 
अंतरजाल पत्रिका  साहित्य कुंज

कनाडा से न्यूयार्क शहर
भाग- 1
सुधा भार्गव 
 25 7 2003
       कनाडा की राजधानी ओटावा में रहते काफी दिन हो गए थे, सोचा न्यूयार्क भी घूम लिया जाय। वहाँ जाने से पहले इन्टरनेट पर वे सब स्थान देख लिए जहां -जहां बस टूर में जाने वाले थे। पहले से कुछ ज्ञान होने पर गाइड की सूचनाओं का खजाना जल्दी हाथ लग जाता हैं वरना उन्हें टटोलते ही रहते हैं।पिछली बार योरोप भ्रमण के समय मुझसे यह गलती हो गई। बहुत सी बातें तो मैं कुछ समझ ही नहीं पाई ।गाइड के कहने का लहजा भी ऐसा था कि आधी बातें हवा में ही उड़ गई। योरोप टूर में 19 दिनों में 9-10 देशों का भ्रमण मज़ाक न था, पैदल चलते चलते थककर चूर हो गए। इसीकारण इस बार भ्रमण का समय कम ही रखा और  3 दिन दो रात की न्यूयार्क की सैर आरामदायक भी रही।
       ओटावा में  25 जुलाई की बात है हमें उस दिन एक निश्चित स्थल पर जाकर टूरिस्ट बस में सवार होना था। समय सुबह 6 बजे का निर्धारित किया गया था। समय को पकड़ते हुए हम ट्रेन स्टेशन के आगे खड़ी बस के पास पहुंचे । सब यात्री अपनी सीट पर विराजमान थे,बस हमारा इंतजार हो रहा था। हमें अपनी 5 मिनट की देरी पर बहुत शर्म आई। ड्राइवर और गाइड रॉबर्ट ने हमारा हँसकर स्वागत किया तब कहीं जाकर झुकी आँखें ऊपर उठीं। रॉबर्ट बहुर नेक इंसान थे। हमारा सामान देख भागे -भागे हमारी सहायता करने को आए और अटैची उठाकर सामानधानी में रख दिया। सामानधानी के नाम पर पर दो छोटी छोटी गहरी गुफाएँ सी थीं और उनके ऊपर बैठने का प्रबंध था। । सीढ़ियों से ऊपर जाते समय कोने मेँ आपतकालीन शौचालय बना था। । हमारे बैठते ही बस चल दी। साफ सुथरी ,वातानुकूलित आरामदायक गद्दीदार सीटें। हवा से बातें करती हुई बस उड़ चली।
      मि रॉबर्ट की आवाज गूंजने लगी-“आप  सबका स्वागत है। आप नंबर एक अमेरिका के, नंबर1 शहर न्यूयार्क की सैर करने जा रहे हैं। आपकी यात्रा शुभ हो।” एक दूसरे का परिचय दिया जाने लगा। साथ ही संतरे का जूस,कुकीज़ ,न्यूट्रीग्रेन यात्रियों को मिलने लगा। फूड पैकिट का वितरण अकेले रॉबर्ट ही कर रहे थे। मैंने उनका हाथ बँटाना उचित समझा। मेरे बाद और कुछ लोग उनकी सहायता को खड़े हो गए। बस के 50 यात्रियों में मुश्किल से 10 भारतीय थे बाकी यूरोपियन या कनेडियन थे।
      हर घंटे के बाद यह बस पेट्रोल पंप के पास रुकती थी । पेट्रोल पंप बस में पेट्रोल डालने का ही यंत्र नहीं अपितु हमारे पेट को भरने का पेट्रोल भी वहाँ खूब मिलता था। बाहर बस का पेट्रोल और उसी से सटी  एक अच्छी –ख़ासी बड़ी दुकान पर खाने पीने का सामान ,खिलौने , नई से नई शराबें ,देश विदेश की कलात्मक वस्तुएँ भरी पड़ी थी ।बस आराम से खाओ –पीओ –मजे करो----आसपास के मनभावन दृश्यों को कैमरे में कैद करते हुए प्रफुल्लित मन सीट पर वापस बैठ जाओ- है न सुविधावादी संस्कृति!
       करीब एक  घंटे सफर करने के बाद  बस, फ्री ड्यूटी शॉप पर रुकी। लोग बेतहाशा अंदर भागे। लौटकर आए तो कोई वाइन की बोतल पकड़े था तो  कोई बीयर की । इन्हें अपनी शाम रंगीन जो बनानी थी। जैसे ही हमने कनाडा की सीमा पार की गाइड की आवाज फिर गूंज उठी-“अमेरिका महान है। यहाँ पुल बड़े हैं,किश्तियाँ बड़ी हैं,लोग बड़े हैं ,भवन बड़े हैं । यहाँ की तो हर चीज बड़ी है।”
     तभी सीमेंट गारे का बना बड़ा सा कौवा दिखाई दिया। गाइड ने इशारा किया- ---“देखिए –देखिए कौवे भी बड़े हैं।” उसके विनोदी स्वभाव पर हम सब दिल खोल कर हंस पड़े।
      अद्भुत वाशिंगटन पुल के नीचे हडसन नदी बहती है। यही पुल न्यूयार्क और न्यूजर्सी को जोड़ता है। इसी सेतु द्वारा न्यूजर्सी को पार करके हमने न्यूयार्क में प्रवेश किया। दूर से ही आसमान से मिले भवन व पुलों के जाल पर नजर अटक गई। वहाँ पहुँचने के पहले ही कॉफी ब्रेक ,लंच ब्रेक मिल चुका था। अब तो सबकी निगाहें खिड़की से बाहर वह सब देखने का प्रयास कर रही थीं जिसे देखने यहाँ आए थे। ब्रिज के नीचे पानी ,दूर किनारों पर बनी ऊंची ऊंची इमारतों का झिलमिलाता रूप अजीब नजारा दिखा रहा था।
         ऐतिहासिक एम्पायर स्टेट बिल्डिंग
      उसी दिन दोपहर के समय करीब 3 :30 बजे हम एम्पायर स्टेट बिल्डिंग के निकट थे। यह 20वीं सदी की महान उपलब्धि है। गाइड से पता चला कि इस बहुमंज़िली इमारत का जन्म ही एक महत्वपूर्ण घटना है। इसका निर्माण न्यूयोर्क स्टेट के भूतपूर्व गवर्नर अल्फ्रेड ई स्मिथ और जॉन जे॰ रसकोव ने कराया था।
     7फरवरी 1930 में एक मजबूत चट्टान को बम से 55फीट की गहराई तक उड़ा दिया था और फिर इसकी नींव डाली। जून 6,1930 को पाँच मंज़िलें बनकर तैयार हुई। उस समय अन्य इमारतें भी इसी के बराबर ऊंची थीं। 18अगस्त 1930 को आकाश मार्ग को चुनौती देती हुईं इसकी 86 मंज़िलें लगभग बन कर तैयार हो गई थीं। 10 नवंबर 1930 को टावर मास्ट लगाकर यह साबित कर दिया कि यह बिल्डिंग संसार की सबसे ऊंची हैं । इसने न्यूयार्क की क्षितिज रेखा को हमेशा के लिए बदलकर रख दिया। इसका उदघाटन समारोह मई 1,1931 को मनाया गया तथा अल्फ्रेड  ई स्मिथ ने इसे जनसाधारण के लिए खोल दिया। आधुनिक तकनीकों के आधार पर निर्मित 20वी सदी की आधुनिक इमारत ने अमेरिका को सबसे अधिक आधुनिक देश की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। अमेरिकन जोश ,स्फूर्ति ,वफादारी की दाद तो देनी ही पड़ेगी। 
      जॉन जे रेसकोन न कोई इंजीनियर था न कोई शिल्पकार था। न ही नगर योजना तकनीक में कुशल था पर जानता था कि कार्य कैसे करवाया जाता है। वह एक चतुर वित्तकार था। उसके प्रबंध कौशल का ही यह धमाका हुआ कि एक वर्ष ,45 दिनों में अपने नाती -पोतों के साथ बड़ी -बड़ी हस्तियों के बीच गगनचुंबी भवन के उदघाटन हेतु रिवन काटने के लिए कैंची लेकर खड़ा था। 20 वी सदी की महान उपलब्धि है यह।
     गाइड सरपट -सरपट बोलते रुका तब हमारी आंखेँ इधर –उधर घूमी वरना उसी पर टिकी थीं। इसके प्रवेश कक्ष का चमकता फर्श दर्पण सा पारदर्शी और चिकना । जल्दी -जल्दी चलते समय मुझे तो लगता फिसल ही न जाऊँ। सड़क के किनारे दोनों ओर दर्शनीय स्थानों के रंग-बिरंगे पोस्टर्स वीडीयो स्क्रीन पर आ -जा रहे हैं। ऊपर से नीचे तक चहल –पहल।
      प्रतिव्यक्ति टूरिस्ट टिकट 22डॉलर का खरीदकर हम द्रुतगामी एलीवेटर लिफ्ट से 86वीं मंजिलपर एक मिनट में ही पहुँच गए। इस मंजिल पर वेधशाला (observatory)है। इससे विभिन्न दृश्यों का सरलता से अवलोकन करने लगे । इतनी ऊंचाई से शहर का अवलोकन अपने में अपूर्व अनुभूति है। विशेष इमारतों ,पुल,वास्तुशिल्प व कलात्मक स्थलों पर खास तौर पर रोशनी फेंकी जा रही थी। लगता था किसी जादुई जगमगाती सितारों की दुनिया में आ गए हैं।
     रात के समय 86वीं मंजिल पर खुली हवा में खड़े होकर दर्शक नीचे खांककर देख रहे थे। विश्वास ही नहीं होता था कि इंसान ने इतनी तरक्की कर ली है । दूर दूर आकाश में केवल तारों की झिलमिलाहट ,रोशनी की जगमगाहट के बीच लग रहा था मानो काली मखमली रात ने हीरों की चादर ओढ़ रखी हो। पास ही आलोकित ऊंची मीनार से आती रंग बिरंगी रोशनी की आभा में चारों तरफ 80 मील दूर तक शहर डूबा रहता है। ऊंचाई पर खड़े होकर जीरो पॉइंट(o,point)की हमने झलक देखी जहां वर्ल्ड सेंटर की गगनचुंबी इमारत नष्ट हो गई थी। केवल झलक़ देखने से संतोष न हुआ ।अत: समय पाते ही किसी दूसरे दिन जीरो पॉइंट जाने का निश्चय किया।
      वहाँ से जाते- जाते भी हम एम्पायर स्टेट बिल्डिंग को मुड़-मुड़ कर देख रहे थे ऐसा यौवन छिटका था उसके आस पास।
क्रमश:







कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें