2. रेल दुर्घटना
प्रकाशित
साहित्य सुधा वेब पत्रिका
अंक सितम्बर प्रथम २०१८
http://www.sahityasudha.com/articles_sep_1st_2018/sansamaran/sudha_bhargava/sansamaran.pdf
जाको राखे साइयाँ मार सके न कोय
बात उन दिनों की है जब मैं हॉस्टल में रहकर
अलीगढ़ टीकाराम गर्ल्स कालिज में पढ़ती थी। बी॰ए॰ प्रथम वर्ष की परीक्षाएँ समाप्त हो
गई थी। मुझे पिता जी ने अनूपशहर(जिला बुलंदशहर) से चचेरे भाई मिक्की को लेने भेज
दिया था। उसके साथ मेरा छोटा भाई संजू भी था।दोनों ताऊ जी के ठहरे हुए थे। ताऊजी गंभीरपुरा
में रहते थे और धर्मसमाज कॉलेज के वाइस प्रिन्सिपल थे।एक दिन पहले ही अनूपशहर ले
जाने वाली अटैची उनके यहाँ रख आई थी।
जिस
दिन टीका राम गर्ल्स कॉलेज बंद हुआ, उसके दूसरे दिन
ही 11 बजे के करीब संजू और और मिक्की हॉस्टल आन पहुंचे । उसी दिन मैं अनूपशहर जाना
चाहती थी-माँ की बहुत याद आ रही थी। स्कूल के गेट से निकलते ही मन में विचार आया
कि जाने से पहले अपनी आँखें टैस्ट करा लूँ। काफी दिनों से आंखों में दर्द हो रहा
था मगर परीक्षा के कारण टालती आ रही थे। समय बहुत कम था। सो रिक्शा वाले को उल्टे
हाथ की बजाय सीधे हाथ की ओर चलने का इशारा किया। डाक्टर मोहनलाल नेत्रालय अस्पताल
पर रिक्शा रुकाई। परीक्षण करने के लिए नंबर लिया। वहाँ एक घंटा तो लग ही गया
क्योंकि तीन बार तो एट्रोपीन ही डाली होगी।उसके असर से साफ दिखाई नहीं दे रहा था।
आँखें मिचमिचाती हुई वहाँ से चल दी।
विष्णुपुरी
के आगे से जब हम निकले सीटी देती हुई
ट्रेन की आवाज साफ सुनाई दी। समझ गए धड़
-धड़ करती ट्रेन आने वाली है और रेलवे क्रॉसिंग का गेट जरुर बंद मिलेगा। न जाने
कितनी देर ट्रेन के गुजर जाने का इंतजार करना पड़े । पर आश्चर्य तभी मैंने रेलवे
क्रॉसिंग पर मेनुएल गेट का पड़ा लंबा –मोटा सा डंडा ऊपर
उठते देखा। दोनों ओर का रुका ट्रैफिक
आधाधुंध चल दिया । उसके बाद क्या हुआ मुझे कुछ नहीं मालूम। मुझे जब होश आया मैंने
अपने को अंधेरी सी गुफा में पाया। हाथों से दायें बाएँ,
ऊपर-नीचे टटोलकर देखा । दोनों तरफ रेल की
पटरियों का आभास हुआ। हाथों को ऊपर किया
तो लोहे के पतले पतले सींखचों से उँगलियाँ टकराईं। मेरा दिमाग बड़ी तेजी से काम
करने लगा-
-अरे मैं तो रिक्शा में बैठी थी ,जरूर उसके पलटने के कारण रेल की पटरियों के बीच गिर गई हूँ और रेल मेरे
ऊपर से जा रही है। अगर मैं धोबिन की तरह पैर फैलाकर पटरियों के बीच में हो जाऊं तो
ट्रेन मेरे ऊपर से चली जाएगी और मैं बच जाऊँगी।मुझमें अनंत साहस का संचार होने
लगा।
कुछ दिन पहले सुना था कि हमारी धोबिन रेल
की पटरियों को पार कर अपनी बस्ती जा रही थी कि उसकी धोती पटरियों में उलझ गई । दूर
से आती ट्रेन को देख हड़बड़ा उठी और जल्दी से पटरियों के बीच में
लेट गई। ट्रेन उसके ऊपर से निकाल गई और उसका बाल बांका भी नहीं हुआ।
मैं
जब पटरियों के बीच में होने की कोशिश कर रही थी तो लगा कोई मुझे बाहर की तरफ खींच
रहा है। वह जितना खींचता उतना ही मैं अंदर हो जाती –तभी कानों
में आवाज आई-एक्सीडेंट –एक्सीडेंट ,पटरी से
बाहर आओ। मैं सरक कर बीच से किनारे के पास आ गई । जैसे ही उसने इस बार मुझे
निकालने को ज़ोर लगाया मैं खिंची चली आई।बाहर आते ही निगाहें भाइयों को खोजने लगीं।
सामने ही पटरियों से बाहर ईंटों की कंकरीट
पर संजू को पीठ किए खड़ा पाया। पीछे सिर से
उसके खून निकल रहा था।वह मेरे घुटनों पर बैठा हुआ था। उछलकर शायद सिर के बल कंकरीट
पर जा गिरा होगा। उल्टे हाथ की ओर देखा तो मिक्की धीरे -धीरे आ रहा था। दहशत की परछाईं साफ उसके
चेहरे पर झलक रही थी। हम तीनों चिपट कर ऐसे गुंथ गए कि दुनिया की कोई शक्ति हमें
अलग न कर सके। शब्द प्रस्फुटित हो रहे थे- संजू ठीक तो है? जीजी----। मिक्की कहीं लगी तो नहीं ---। नहीं ---आ-प? मुझे कुछ नहीं हुआ। उन्हें देख मेरी जान में जान आई।
हममें
से किसी को अपनी चोटों की परवाह न थी । संजू तो मुश्किल से पाँचवी कक्षा में पड़ता
था और सबसे ज्यादा चोट उसी को आई थी मगर आँखों में एक आँसू न था। न जाने कैसे हम
इतने सहनशील बन गए थे या एक दूसरे की हिम्मत बांधने के लिए कोई ऐसे शब्द नहीं
बोलना चाहता था जो दूसरे को कमजोर बनाए।
अचानक मुझे अहसास हुआ मैं बड़ी बहन हूँ जिसे निश्चित करना है कि आगे क्या किया जाय!
हम
जहां खड़े हुए थे वह दुर्घटना का अंतिम छोर था।
वहाँ से चलने से पहले भारी भरकम इंजन पर एक भरपूर नजर डाली जो राक्षस की
तरह कहता नजर आया –बच्चू बच गए।
इतने मेँ रिक्शा वाला आया-“बहन जी,आप सब ठीक तो हो?”
“हाँ
भैया। तुमने मुझे बचा लिया।’’
“मैंने
पहले ही देख लिया था कि गलती से गेटकीपर ने रेलवे क्रासिंग का गेट खोल दिया है ।
आती हुई ट्रेन पूरी रफ्तार पर थी। झट से रिक्शा से कूद गया। जो खून खराबा होना था
वह तो पहले ही हो गया ।’’
“तुम्हारी रिक्शा कहाँ है?”
“रिक्शा
की कुछ न पूछो।वह तो एक धक्का में ही टुकड़ा-टुकड़ा हो गई। आप पटरियों के बीच गिरी
और इंजन ठीक आपके पास आकर रुक गया। आपमें
और पहियों मेँ केवल एक फुट की दूरी –ऊपर वाले ने बचा लिया। । मैं ही तो आपको पटरियों से बाहर
निकालने की कोशिश कर रहा था। छोटे भाई जी गिरे पड़े थे उनकू मैंने खड़ा कर दिया।’’
“मैं
तो हेंडिल पर बैठा –बैठा न जाने कितनी दूर तक फिसलता
चला गया।पर देखो मेरे कोई चोट भी नहीं आई।’’ मिक्की हाथ घुमा घुमाकर दिखने लगा। इस चमत्कार पर वह
खुद ही हैरत में था।
मैं
कान से सुन रही थी पर आँखें कान से ज्यादा खुली थीं। एक तरफ पड़ी अपनी कुचली
चप्पलों को मैंने पैरों मेँ फंसाया। एक हाथ से संजू को पकड़ा और दूसरे हाथ से मिक्की का हाथ थामा। लोग हमारे पास भी आने लगे
थे। तमाशाई बनने से पहले मैंने वहाँ से खिसक जाना ठीक समझा। दो रिक्शावालों ने
हमें बैठाने से मना कर दिया । शायद इस डर से कि कहीं पुलिस की पूंछताछ के चक्कर
में न पड़ जाएँ। मैं भाइयों को खींचती हुई रेलवे क्रॉसिंग से बाहर आ गई। लगा जंग के
मैदान से सही सलामत हम निकल आए हैं। सड़क पर एक रिक्शा मिल गया। बूढ़ा चालक बड़ा भला
मानस था। वह समझ गया हम रेल दुर्घटना के शिकार है। उसने संजू को सहारा देते हुए रिक्शा में बैठाया। बड़ी
आत्मीयता से पूछा –लल्ली कहाँ चलना है?
उसके मीठे बोलों में अपनेपन की बू पाकर मन में आया
उसके सामने फूटफूटकर रो पड़ूँ—पर मेरे फूट पड़ने का भाई भी रोये बिना न रहते।उनको
रोता मैं नहीं देख सकती थी इसलिए अपने पर काबू किए रही।
रिक्शावाले
ने पूछा –‘कहाँ जाना है?”
“जाना
तो गंभीरपुरा है पर उससे पहले किसी डॉक्टर के दवाईखाने पर ले चलो। जरा भाई के
पट्टी करवा लूँ। देखो न ---इसके खून निकल रहा है।’’मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
अंजान
डॉक्टर के पास जाना नहीं चाहती थी। न जाने क्या उल्टा-पुलता कर दे। ताऊ जी से भी
नहीं पूछना चाहती थी । वे बहुत परेशान हो जाते। इतना तो मैं समझ गई थी कि चोट
गंभीर नहीं है। इसलिए अपने ही दिमाग की मशीन में तेल डाल उसे चालू रखना चाहा। हठात
उन डॉक्टर का नाम याद आते ही उछल पड़ी जो हॉस्टल में हमको देखने आया करते थे। मगर
एक अड़चन फिर रास्ता रोक खड़ी हो गई। नाम पता होने से क्या होता है – उनके क्लीनिक का
तो अता-पता ही नहीं मालूम था। तब भी मैंने धैर्य नहीं खोया। पूछते-पाछते हम आखिर
उनके क्लीनिक पहुँच ही गए।
मुझे
देखते ही वे चौंक पड़े। घुसते ही मैं बदहवास सी बोलने लगी-“डॉक्टर साहब आप संजू को तो
दवा लगाकर पट्टी बांध दीजिए । मेरी और मिक्की की चोटों पर पट्टी मत बांधिएगा।
उन्हें देख ताऊ जी घबरा जाएंगे और हमें पाँच बजे अनूपशहर नहीं जाने देंगे। वे नाहक
परेशान होंगे। पिताजी तो खुद डॉक्टर हैं और उनके दोस्त भी। वे सब सँभाल लेंगे।’’ मैं एक सांस मेँ सब कह गई जो मुझे कहना था।
एक
मिनट को तो डॉक्टर साहब मेरे मुंह की ओर ताकते रहे। वे भी सोचते होंगे यह तूफान
कहाँ से आ गया। फिर हँसते हुए बोले-“बिटिया एक मिनट बैठो तो। लो पहले तुम सब पानी
पीओ। तुमको मैंने----कहीं देखा है!”
“हाँ –हाँ डॉक्टर साहब, मैं टीका राम गर्ल्स हॉस्टल मेँ
रहती हूँ।आप वहाँ हर माह आते हैं न।’’
“ओह!अब
याद आया। तुम चिंता न करो । मैं चुटकी मेँ मरहम पट्टी करता हूँ।’’ उन्होने संजू का घाव साफ कर
दवापट्टी की। मिक्की के टिंचर लगा दिया क्योंकि उसके खरोंचें ही आई थीं ।
मेरी बारी आई तो बोले –“पट्टी तो तुम बंधवाओगी नहीं जबकि दोनों कोहनी मेँ घाव हैं। जो दवा लगाऊँगा
उससे बहुत दर्द होगा।’’
“कोई
बात नहीं। मैं सब सह लूँगी।’’
उन्होंने भूरे से पाउडर मेँ ट्यूब से कोई
मरहम मिलाया और उसे लगाने लगे।इतनी जलन और
दर्द हुआ कि मैंने कसकर दाँत भींच लिए। आश्चर्य जरा भी न कराही।फीस देने लगी तो
उन्होंने इंकार कर दिया और मेरे सिर पर स्नेह सिक्त हाथ रखते हुए बोले- “बहुत
बहादुर बेटी है।’’
मुसीबत
का बहुत बड़ा जंगल पार कर लिया था । खुशी से जल्दी जल्दी कदम बढ़ते हुए धम से रिक्शा
में बैठ गई।
रिक्शा
से ताऊजी के घर पर उतरे। ताई ने दरवाजा खोला । विस्मय से ताई का मुंह खुला का खुला
रह गया-“अरे संजू को क्या हुआ?यहाँ से तो भला-चंगा गया था।’’
“कुछ
नहीं –बस गिर पड़ा था। दवा लगवा दी है।’’ मैं सकपकाती बोली।
इतने
में ताऊ जी के लड़के पंकज कॉलेज से आए। बड़े
उत्तेजित दीख रहे थे। साइकिल रखते हुए वे कहने लगे- पिताजी---पिताजी रेलवे क्रॉसिंग पर बड़ा भारी एक्सीडेंट हो गया
है। भीड़ ही भीड़ जमा है। ट्रेन आ रही थी कि गलती से गेट खोल दिया। सबसे पहले कार
चपेट मेँ आई फिर तांगे वाला का घोड़ा ही कट गया।, सुना हैं
एक रिक्शा से भी टक्कर हुई। मुझे लगा-मानो रेडियो से कोई ताजी और अनहोनी खबर सुनाई
जा रही हो।
मुझसे
सत्य छिपाना भारी हो गया और बोल उठी – “हाँ,उसमें हम तीनों थे।’’
“तुम
तीनों!”एक पल को चेहरों पर मुर्दनी छा गई।
“चोट तो
नहीं लगीं।’’ ताऊ जी बोले।
“नहीं--
नहीं। ऐसी कोई बात नहीं। हम ठीक हैं। संजू
के जरूर सिर मेँ पीछे की तरफ चोट आई। खून निकल रहा था। सो मैंने रास्ते मेँ हॉस्टल
के डॉक्टर से पट्टी करा दी।’’ मैंने जबर्दस्ती बेफिक्री के
अंदाज में कहा। अंदर ही अंदर दिल धड़ धड़ कर रहा था—कहीं ताऊ जी ने रोक लिया तो --?थोड़ी सी समझ थी कि चोटें तुरंत दर्द नहीं करती पर बाद में असर दिखाती हैं।
इसलिए जल्दी से जल्दी अपने डॉक्टर पिताजी के पास पहुँच जाना चाहती थी।
“पाँच
बजे की बस से तुम अनूपशहर जाने को बैठे हो। जा सकोगे?” ताऊ जी के माथे पर चिंता की रेखाएँ उभर आईं।
“हाँ-हाँ।
हम चले जाएंगे। ’’ भाइयो की ओर देखते हुए बोली। जिससे
वे मेरा इशारा समझ जाएँ और मेरी हाँ में
हाँ मिला दें।
“कहो
तो पंकज को तुम्हारे साथ भेज दूँ ?”
“नहीं
ताऊ जी। यहाँ बैठकर सीधे अनूपशहर बस अड्डे ही तो उतरेंगे।’’ उनको तसल्ली देने की कोशिश की।
पंकज भाई
बस अड्डे हमें छोड़ने गए। बस मेँ चढ़ने से पहले एक बार फिर उन्होंने पूछा –“तुम लोग जा पाओगे वरना लौट चलो।’’ उत्तर में हँसते
हुए मैंने ‘न’ में गर्दन हिला दी। मैं किसी तरह कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी।
हमें
आगे की सीट मिल गई । आराम से बैठ गए। पर मेरे मन को चैन कहाँ?जल्दी से उड़कर अम्मा-पिताजी में की छत्रछाया में पहुँच जाना चाहती थी । संजू
और मिक्की चुप से हो गए थे।न कोई बात करते थे न ही पूछते थे। दो छोटे भाइयों की
ज़िम्मेदारी,उनकी सुरक्षा का भार मुझ पर है-इस अहसास ने चंद
घंटों में मुझे उम्र से बहुत बड़ा बना दिया था।
बस चल
दी । हम एक ही सीट पर तीनों बैठे थे। मैं बीच में थी और दोनों के हाथ कसकर पकड़ रखे
थे। 4-5 किलो मीटर चलने के बाद हठात बस का
एक पहिया पंचर हो गया। पीछे से आवाज आई –ड्राइवर साहब सँभलकर ,सवारी भारी है। पीछे मुड़कर
देखा ,हॉकी लिए तीन लड़के बैठे हैं। समझते देर न लगी ये
धर्मसमाज या बारह सैनी कालिज के लड़के हैं। मैंने चुप ही रहना ठीक समझा। रेल
दुर्घटना की खबर अब तक पूरे शहर में बिजली की तरह फैल चुकी थी। इन लड़कों को भी भनक
मिल गई होगी। बस में भी दुर्घटना की चर्चा खूब गरम थी पर हम इस तरह बैठे हुए थे
मानो एकदम अंजान हों। वरना प्रश्नों की बौछार शुरू हो जाती।
अनूपशहर
बस अड्डे पर पहुँचते ही रिक्शा ली। रिक्शावाला रिक्शा ठीक ही चला रहा था पर लग रहा
था उसकी गति तो चींटी की सी है। दरवाजे में घुसते ही मैं ज़ोर से चिल्लाई –पिताजी ---पिताजी---। पिताजी घबराते हुए ऊपर की मंजिल से नीचे उतरकर आए। संजू
के पट्टी बंधे देख चौंक भी गए।बड़े यत्न से संभाली सुबकियाँ उन्हें देखते ही बिखर
पड़ीं और मैं उनसे चिपट गई। धैर्य और साहस
का थामा हुआ दामन आंसुओं में भीग गया।
मुझे रोता देख संजू और मिक्की की भी
हिचकियाँ बंध गई।
ताई
के आते ही मिक्की उनकी छाया में जाकर खड़ा हो गया। संजू अम्मा के आँचल में छिप गया।
“अरे
बेटा क्या हुआ? तीनों रोते ही रहोगे या कुछ बोलोगे भी।’’ अम्मा बोलीं।
“चाची, एक्सीडेंट हो गया।’’ मिक्की ने बड़ी देर बाद अपना
मौन तोड़ा। अपनी सुरक्षा के प्रति अब वह आश्वस्त था। पर ताई,अम्मा
बेचैन हो उठीं।
पिता
जी ने बात सँभाली-“अरे पहले इनके लिए ठंडी कोकोकोला मँगवाओ। शांति से बातें
करेंगे। मैं डॉक्टर साहब को बुलाने किसी को भेजता हूँ।’’
जब तक
डॉक्टर साहब आए हमने घरवालों को अपनी रामकहानी सुना दी थी। डाक्टर साहब ने हमारे
हाथ-पाँव हिलाकर जांच--पडताल की। बोले सब ठीक है। बच्चों को आराम करने दो। हाँ
जाते-जाते एक एक इंजेक्शन जरूर ठोक गए।
माँ-बाप
के पास जाकर लगा जैसे मैं बहुत हल्की हो गई । दूसरे दिन से ही हम लोगों का सारा
शरीर बहुत दुखने लगा।दिन में एक ही कमरे में चारपाई बिछा दी जाती। दो-तीन दिन तो
करवट लेते भी कराहने लगते -- कभी एक दूसरे की तरफ देखकर हंसते पर दुर्घटना की
चर्चा हमने एकदम नहीं की। एक बुरे स्वप्न की तरह भुलाने की कोशिश करते रहे। पर
अतीत की काली परछाईं से कभी कोई बचा है। वर्षों पहले घटित इस दुर्घटना की याद अब
भी मेरी रूह को कंपा देती है पर एक सच मेरी झोली में आकर जरूर गिरा कि जिस पर
ईश्वर का हाथ होता है उसका बाल-बांका नहीं हो सकता। रेल दुर्घटना
जाको राखे साइयाँ मार सके न कोय /सुधा भार्गव
बात उन दिनों की है जब मैं हॉस्टल में रहकर
अलीगढ़ टीकाराम गर्ल्स कालिज में पढ़ती थी। बी॰ए॰ प्रथम वर्ष की परीक्षाएँ समाप्त हो
गई थी। मुझे पिता जी ने अनूपशहर(जिला बुलंदशहर) से चचेरे भाई मिक्की को लेने भेज
दिया था। उसके साथ मेरा छोटा भाई संजू भी था।दोनों ताऊ जी के ठहरे हुए थे। ताऊजी गंभीरपुरा
में रहते थे और धर्मसमाज कॉलेज के वाइस प्रिन्सिपल थे।एक दिन पहले ही अनूपशहर ले
जाने वाली अटैची उनके यहाँ रख आई थी।
जिस
दिन टीका राम गर्ल्स कॉलेज बंद हुआ, उसके दूसरे दिन
ही 11 बजे के करीब संजू और और मिक्की हॉस्टल आन पहुंचे । उसी दिन मैं अनूपशहर जाना
चाहती थी-माँ की बहुत याद आ रही थी। स्कूल के गेट से निकलते ही मन में विचार आया
कि जाने से पहले अपनी आँखें टैस्ट करा लूँ। काफी दिनों से आंखों में दर्द हो रहा
था मगर परीक्षा के कारण टालती आ रही थे। समय बहुत कम था। सो रिक्शा वाले को उल्टे
हाथ की बजाय सीधे हाथ की ओर चलने का इशारा किया। डाक्टर मोहनलाल नेत्रालय अस्पताल
पर रिक्शा रुकाई। परीक्षण करने के लिए नंबर लिया। वहाँ एक घंटा तो लग ही गया
क्योंकि तीन बार तो एट्रोपीन ही डाली होगी।उसके असर से साफ दिखाई नहीं दे रहा था।
आँखें मिचमिचाती हुई वहाँ से चल दी।
विष्णुपुरी
के आगे से जब हम निकले सीटी देती हुई
ट्रेन की आवाज साफ सुनाई दी। समझ गए धड़
-धड़ करती ट्रेन आने वाली है और रेलवे क्रॉसिंग का गेट जरुर बंद मिलेगा। न जाने
कितनी देर ट्रेन के गुजर जाने का इंतजार करना पड़े । पर आश्चर्य तभी मैंने रेलवे
क्रॉसिंग पर मेनुएल गेट का पड़ा लंबा –मोटा सा डंडा ऊपर
उठते देखा। दोनों ओर का रुका ट्रैफिक
आधाधुंध चल दिया । उसके बाद क्या हुआ मुझे कुछ नहीं मालूम। मुझे जब होश आया मैंने
अपने को अंधेरी सी गुफा में पाया। हाथों से दायें बाएँ,
ऊपर-नीचे टटोलकर देखा । दोनों तरफ रेल की
पटरियों का आभास हुआ। हाथों को ऊपर किया
तो लोहे के पतले पतले सींखचों से उँगलियाँ टकराईं। मेरा दिमाग बड़ी तेजी से काम
करने लगा-
-अरे मैं तो रिक्शा में बैठी थी ,जरूर उसके पलटने के कारण रेल की पटरियों के बीच गिर गई हूँ और रेल मेरे
ऊपर से जा रही है। अगर मैं धोबिन की तरह पैर फैलाकर पटरियों के बीच में हो जाऊं तो
ट्रेन मेरे ऊपर से चली जाएगी और मैं बच जाऊँगी।मुझमें अनंत साहस का संचार होने
लगा।
कुछ दिन पहले सुना था कि हमारी धोबिन रेल
की पटरियों को पार कर अपनी बस्ती जा रही थी कि उसकी धोती पटरियों में उलझ गई । दूर
से आती ट्रेन को देख हड़बड़ा उठी और जल्दी से पटरियों के बीच में
लेट गई। ट्रेन उसके ऊपर से निकाल गई और उसका बाल बांका भी नहीं हुआ।
मैं
जब पटरियों के बीच में होने की कोशिश कर रही थी तो लगा कोई मुझे बाहर की तरफ खींच
रहा है। वह जितना खींचता उतना ही मैं अंदर हो जाती –तभी कानों
में आवाज आई-एक्सीडेंट –एक्सीडेंट ,पटरी से
बाहर आओ। मैं सरक कर बीच से किनारे के पास आ गई । जैसे ही उसने इस बार मुझे
निकालने को ज़ोर लगाया मैं खिंची चली आई।बाहर आते ही निगाहें भाइयों को खोजने लगीं।
सामने ही पटरियों से बाहर ईंटों की कंकरीट
पर संजू को पीठ किए खड़ा पाया। पीछे सिर से
उसके खून निकल रहा था।वह मेरे घुटनों पर बैठा हुआ था। उछलकर शायद सिर के बल कंकरीट
पर जा गिरा होगा। उल्टे हाथ की ओर देखा तो मिक्की धीरे -धीरे आ रहा था। दहशत की परछाईं साफ उसके
चेहरे पर झलक रही थी। हम तीनों चिपट कर ऐसे गुंथ गए कि दुनिया की कोई शक्ति हमें
अलग न कर सके। शब्द प्रस्फुटित हो रहे थे- संजू ठीक तो है? जीजी----। मिक्की कहीं लगी तो नहीं ---। नहीं ---आ-प? मुझे कुछ नहीं हुआ। उन्हें देख मेरी जान में जान आई।
हममें
से किसी को अपनी चोटों की परवाह न थी । संजू तो मुश्किल से पाँचवी कक्षा में पड़ता
था और सबसे ज्यादा चोट उसी को आई थी मगर आँखों में एक आँसू न था। न जाने कैसे हम
इतने सहनशील बन गए थे या एक दूसरे की हिम्मत बांधने के लिए कोई ऐसे शब्द नहीं
बोलना चाहता था जो दूसरे को कमजोर बनाए।
अचानक मुझे अहसास हुआ मैं बड़ी बहन हूँ जिसे निश्चित करना है कि आगे क्या किया जाय!
हम
जहां खड़े हुए थे वह दुर्घटना का अंतिम छोर था।
वहाँ से चलने से पहले भारी भरकम इंजन पर एक भरपूर नजर डाली जो राक्षस की
तरह कहता नजर आया –बच्चू बच गए।
इतने मेँ रिक्शा वाला आया-“बहन जी,आप सब ठीक तो हो?”
“हाँ
भैया। तुमने मुझे बचा लिया।’’
“मैंने
पहले ही देख लिया था कि गलती से गेटकीपर ने रेलवे क्रासिंग का गेट खोल दिया है ।
आती हुई ट्रेन पूरी रफ्तार पर थी। झट से रिक्शा से कूद गया। जो खून खराबा होना था
वह तो पहले ही हो गया ।’’
“तुम्हारी रिक्शा कहाँ है?”
“रिक्शा
की कुछ न पूछो।वह तो एक धक्का में ही टुकड़ा-टुकड़ा हो गई। आप पटरियों के बीच गिरी
और इंजन ठीक आपके पास आकर रुक गया। आपमें
और पहियों मेँ केवल एक फुट की दूरी –ऊपर वाले ने बचा लिया। । मैं ही तो आपको पटरियों से बाहर
निकालने की कोशिश कर रहा था। छोटे भाई जी गिरे पड़े थे उनकू मैंने खड़ा कर दिया।’’
“मैं
तो हेंडिल पर बैठा –बैठा न जाने कितनी दूर तक फिसलता
चला गया।पर देखो मेरे कोई चोट भी नहीं आई।’’ मिक्की हाथ घुमा घुमाकर दिखने लगा। इस चमत्कार पर वह
खुद ही हैरत में था।
मैं
कान से सुन रही थी पर आँखें कान से ज्यादा खुली थीं। एक तरफ पड़ी अपनी कुचली
चप्पलों को मैंने पैरों मेँ फंसाया। एक हाथ से संजू को पकड़ा और दूसरे हाथ से मिक्की का हाथ थामा। लोग हमारे पास भी आने लगे
थे। तमाशाई बनने से पहले मैंने वहाँ से खिसक जाना ठीक समझा। दो रिक्शावालों ने
हमें बैठाने से मना कर दिया । शायद इस डर से कि कहीं पुलिस की पूंछताछ के चक्कर
में न पड़ जाएँ। मैं भाइयों को खींचती हुई रेलवे क्रॉसिंग से बाहर आ गई। लगा जंग के
मैदान से सही सलामत हम निकल आए हैं। सड़क पर एक रिक्शा मिल गया। बूढ़ा चालक बड़ा भला
मानस था। वह समझ गया हम रेल दुर्घटना के शिकार है। उसने संजू को सहारा देते हुए रिक्शा में बैठाया। बड़ी
आत्मीयता से पूछा –लल्ली कहाँ चलना है?
उसके मीठे बोलों में अपनेपन की बू पाकर मन में आया
उसके सामने फूटफूटकर रो पड़ूँ—पर मेरे फूट पड़ने का भाई भी रोये बिना न रहते।उनको
रोता मैं नहीं देख सकती थी इसलिए अपने पर काबू किए रही।
रिक्शावाले
ने पूछा –‘कहाँ जाना है?”
“जाना
तो गंभीरपुरा है पर उससे पहले किसी डॉक्टर के दवाईखाने पर ले चलो। जरा भाई के
पट्टी करवा लूँ। देखो न ---इसके खून निकल रहा है।’’मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
अंजान
डॉक्टर के पास जाना नहीं चाहती थी। न जाने क्या उल्टा-पुलता कर दे। ताऊ जी से भी
नहीं पूछना चाहती थी । वे बहुत परेशान हो जाते। इतना तो मैं समझ गई थी कि चोट
गंभीर नहीं है। इसलिए अपने ही दिमाग की मशीन में तेल डाल उसे चालू रखना चाहा। हठात
उन डॉक्टर का नाम याद आते ही उछल पड़ी जो हॉस्टल में हमको देखने आया करते थे। मगर
एक अड़चन फिर रास्ता रोक खड़ी हो गई। नाम पता होने से क्या होता है – उनके क्लीनिक का
तो अता-पता ही नहीं मालूम था। तब भी मैंने धैर्य नहीं खोया। पूछते-पाछते हम आखिर
उनके क्लीनिक पहुँच ही गए।
मुझे
देखते ही वे चौंक पड़े। घुसते ही मैं बदहवास सी बोलने लगी-“डॉक्टर साहब आप संजू को तो
दवा लगाकर पट्टी बांध दीजिए । मेरी और मिक्की की चोटों पर पट्टी मत बांधिएगा।
उन्हें देख ताऊ जी घबरा जाएंगे और हमें पाँच बजे अनूपशहर नहीं जाने देंगे। वे नाहक
परेशान होंगे। पिताजी तो खुद डॉक्टर हैं और उनके दोस्त भी। वे सब सँभाल लेंगे।’’ मैं एक सांस मेँ सब कह गई जो मुझे कहना था।
एक
मिनट को तो डॉक्टर साहब मेरे मुंह की ओर ताकते रहे। वे भी सोचते होंगे यह तूफान
कहाँ से आ गया। फिर हँसते हुए बोले-“बिटिया एक मिनट बैठो तो। लो पहले तुम सब पानी
पीओ। तुमको मैंने----कहीं देखा है!”
“हाँ –हाँ डॉक्टर साहब, मैं टीका राम गर्ल्स हॉस्टल मेँ
रहती हूँ।आप वहाँ हर माह आते हैं न।’’
“ओह!अब
याद आया। तुम चिंता न करो । मैं चुटकी मेँ मरहम पट्टी करता हूँ।’’ उन्होने संजू का घाव साफ कर
दवापट्टी की। मिक्की के टिंचर लगा दिया क्योंकि उसके खरोंचें ही आई थीं ।
मेरी बारी आई तो बोले –“पट्टी तो तुम बंधवाओगी नहीं जबकि दोनों कोहनी मेँ घाव हैं। जो दवा लगाऊँगा
उससे बहुत दर्द होगा।’’
“कोई
बात नहीं। मैं सब सह लूँगी।’’
उन्होंने भूरे से पाउडर मेँ ट्यूब से कोई
मरहम मिलाया और उसे लगाने लगे।इतनी जलन और
दर्द हुआ कि मैंने कसकर दाँत भींच लिए। आश्चर्य जरा भी न कराही।फीस देने लगी तो
उन्होंने इंकार कर दिया और मेरे सिर पर स्नेह सिक्त हाथ रखते हुए बोले- “बहुत
बहादुर बेटी है।’’
मुसीबत
का बहुत बड़ा जंगल पार कर लिया था । खुशी से जल्दी जल्दी कदम बढ़ते हुए धम से रिक्शा
में बैठ गई।
रिक्शा
से ताऊजी के घर पर उतरे। ताई ने दरवाजा खोला । विस्मय से ताई का मुंह खुला का खुला
रह गया-“अरे संजू को क्या हुआ?यहाँ से तो भला-चंगा गया था।’’
“कुछ
नहीं –बस गिर पड़ा था। दवा लगवा दी है।’’ मैं सकपकाती बोली।
इतने
में ताऊ जी के लड़के पंकज कॉलेज से आए। बड़े
उत्तेजित दीख रहे थे। साइकिल रखते हुए वे कहने लगे- पिताजी---पिताजी रेलवे क्रॉसिंग पर बड़ा भारी एक्सीडेंट हो गया
है। भीड़ ही भीड़ जमा है। ट्रेन आ रही थी कि गलती से गेट खोल दिया। सबसे पहले कार
चपेट मेँ आई फिर तांगे वाला का घोड़ा ही कट गया।, सुना हैं
एक रिक्शा से भी टक्कर हुई। मुझे लगा-मानो रेडियो से कोई ताजी और अनहोनी खबर सुनाई
जा रही हो।
मुझसे
सत्य छिपाना भारी हो गया और बोल उठी – “हाँ,उसमें हम तीनों थे।’’
“तुम
तीनों!”एक पल को चेहरों पर मुर्दनी छा गई।
“चोट तो
नहीं लगीं।’’ ताऊ जी बोले।
“नहीं--
नहीं। ऐसी कोई बात नहीं। हम ठीक हैं। संजू
के जरूर सिर मेँ पीछे की तरफ चोट आई। खून निकल रहा था। सो मैंने रास्ते मेँ हॉस्टल
के डॉक्टर से पट्टी करा दी।’’ मैंने जबर्दस्ती बेफिक्री के
अंदाज में कहा। अंदर ही अंदर दिल धड़ धड़ कर रहा था—कहीं ताऊ जी ने रोक लिया तो --?थोड़ी सी समझ थी कि चोटें तुरंत दर्द नहीं करती पर बाद में असर दिखाती हैं।
इसलिए जल्दी से जल्दी अपने डॉक्टर पिताजी के पास पहुँच जाना चाहती थी।
“पाँच
बजे की बस से तुम अनूपशहर जाने को बैठे हो। जा सकोगे?” ताऊ जी के माथे पर चिंता की रेखाएँ उभर आईं।
“हाँ-हाँ।
हम चले जाएंगे। ’’ भाइयो की ओर देखते हुए बोली। जिससे
वे मेरा इशारा समझ जाएँ और मेरी हाँ में
हाँ मिला दें।
“कहो
तो पंकज को तुम्हारे साथ भेज दूँ ?”
“नहीं
ताऊ जी। यहाँ बैठकर सीधे अनूपशहर बस अड्डे ही तो उतरेंगे।’’ उनको तसल्ली देने की कोशिश की।
पंकज भाई
बस अड्डे हमें छोड़ने गए। बस मेँ चढ़ने से पहले एक बार फिर उन्होंने पूछा –“तुम लोग जा पाओगे वरना लौट चलो।’’ उत्तर में हँसते
हुए मैंने ‘न’ में गर्दन हिला दी। मैं किसी तरह कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी।
हमें
आगे की सीट मिल गई । आराम से बैठ गए। पर मेरे मन को चैन कहाँ?जल्दी से उड़कर अम्मा-पिताजी में की छत्रछाया में पहुँच जाना चाहती थी । संजू
और मिक्की चुप से हो गए थे।न कोई बात करते थे न ही पूछते थे। दो छोटे भाइयों की
ज़िम्मेदारी,उनकी सुरक्षा का भार मुझ पर है-इस अहसास ने चंद
घंटों में मुझे उम्र से बहुत बड़ा बना दिया था।
बस चल
दी । हम एक ही सीट पर तीनों बैठे थे। मैं बीच में थी और दोनों के हाथ कसकर पकड़ रखे
थे। 4-5 किलो मीटर चलने के बाद हठात बस का
एक पहिया पंचर हो गया। पीछे से आवाज आई –ड्राइवर साहब सँभलकर ,सवारी भारी है। पीछे मुड़कर
देखा ,हॉकी लिए तीन लड़के बैठे हैं। समझते देर न लगी ये
धर्मसमाज या बारह सैनी कालिज के लड़के हैं। मैंने चुप ही रहना ठीक समझा। रेल
दुर्घटना की खबर अब तक पूरे शहर में बिजली की तरह फैल चुकी थी। इन लड़कों को भी भनक
मिल गई होगी। बस में भी दुर्घटना की चर्चा खूब गरम थी पर हम इस तरह बैठे हुए थे
मानो एकदम अंजान हों। वरना प्रश्नों की बौछार शुरू हो जाती।
अनूपशहर
बस अड्डे पर पहुँचते ही रिक्शा ली। रिक्शावाला रिक्शा ठीक ही चला रहा था पर लग रहा
था उसकी गति तो चींटी की सी है। दरवाजे में घुसते ही मैं ज़ोर से चिल्लाई –पिताजी ---पिताजी---। पिताजी घबराते हुए ऊपर की मंजिल से नीचे उतरकर आए। संजू
के पट्टी बंधे देख चौंक भी गए।बड़े यत्न से संभाली सुबकियाँ उन्हें देखते ही बिखर
पड़ीं और मैं उनसे चिपट गई। धैर्य और साहस
का थामा हुआ दामन आंसुओं में भीग गया।
मुझे रोता देख संजू और मिक्की की भी
हिचकियाँ बंध गई।
ताई
के आते ही मिक्की उनकी छाया में जाकर खड़ा हो गया। संजू अम्मा के आँचल में छिप गया।
“अरे
बेटा क्या हुआ? तीनों रोते ही रहोगे या कुछ बोलोगे भी।’’ अम्मा बोलीं।
“चाची, एक्सीडेंट हो गया।’’ मिक्की ने बड़ी देर बाद अपना
मौन तोड़ा। अपनी सुरक्षा के प्रति अब वह आश्वस्त था। पर ताई,अम्मा
बेचैन हो उठीं।
पिता
जी ने बात सँभाली-“अरे पहले इनके लिए ठंडी कोकोकोला मँगवाओ। शांति से बातें
करेंगे। मैं डॉक्टर साहब को बुलाने किसी को भेजता हूँ।’’
जब तक
डॉक्टर साहब आए हमने घरवालों को अपनी रामकहानी सुना दी थी। डाक्टर साहब ने हमारे
हाथ-पाँव हिलाकर जांच--पडताल की। बोले सब ठीक है। बच्चों को आराम करने दो। हाँ
जाते-जाते एक एक इंजेक्शन जरूर ठोक गए।
माँ-बाप
के पास जाकर लगा जैसे मैं बहुत हल्की हो गई । दूसरे दिन से ही हम लोगों का सारा
शरीर बहुत दुखने लगा।दिन में एक ही कमरे में चारपाई बिछा दी जाती। दो-तीन दिन तो
करवट लेते भी कराहने लगते -- कभी एक दूसरे की तरफ देखकर हंसते पर दुर्घटना की
चर्चा हमने एकदम नहीं की। एक बुरे स्वप्न की तरह भुलाने की कोशिश करते रहे। पर
अतीत की काली परछाईं से कभी कोई बचा है। वर्षों पहले घटित इस दुर्घटना की याद अब
भी मेरी रूह को कंपा देती है पर एक सच मेरी झोली में आकर जरूर गिरा कि जिस पर
ईश्वर का हाथ होता है उसका बाल-बांका नहीं हो सकता।
समाप्त