गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

सुविख्यात लघुकथाकार बलराम अग्रवाल व मीरा जी के साथ बिताये पल

बैंगलोर का वह ख़ास दिन 

4फरवरी 2013

उल्लास ,उमंग व आशाओं से भरे नए वर्ष के आरम्भ होते ही जनवरी  से बलराम अग्रवाल व् मीरा जी दिल्ली से बैंगलोर आये हुए हैं और अपने बच्चों के संसर्ग में रहकर बैंगलोरी मौसम की खुश मिजाजी का आनंद उठाने में व्यस्त हैं |




मेरा कलकत्ते जाने का प्रोग्राम बन चूका था  जब उनके आने की सूचना मिली। ,मन परेशान हो उठा कि कलकत्ते से लौटते -लौटते कही देर न हो जाये और उनसे मिलना ही न हो लेकिन जब आश्वासन मिला  कि वे 10 फरवरी को  वापस जायेंगे तब कहीं राहत मिली ।असल में राजेश उत्साही भी बैंगलोर से बाहर गए हुए हैं  ।वे   फरवरी में लौटने वाले थे और मैं 29 जनव्री को  ।इसलिए सबसे मिल मिलाकर  बलराम जी ने 10 फरवरी को  दिल्ली लौटना ठीक समझा ।


कलकत्ते से लौटते ही हमने एकदूसरे को फ़ोन और ई मेल खटखटाए और मिलने का समय निश्चित किया ।मैंने राजेश जी को भी फ़ोन किया था ताकि वे बलराम जी से मिल लें पर वे  10 फरवरी को आयेंगे ।

व्यक्ति गत रूप से तो मैं इनको पिछले तीन वर्षों से जानती हूँ ।वह भी रामेश्वर काम्बोज जी की बदौलत ।लघुकथा डॉट कॊम के जरिये तब तक मेरा उनसे परिचय हो चुका था और कविता की धरा छोड़ लघुकथा  लिखकर भेजने  लगी थी।
बलराम जी एकबार बैंगलोर आये थे ।उस समय उनहोंने काम्बोज जी से ही पूछा था -बैंगलोर में कौन -कौन हिन्दी साहित्यप्रेमी हैं ?उन्होंने उनको मेरा और मुझे उनका सम्पर्क सूत्र पकड़ा दिया ।आगामी वर्ष काम्बोज जी ने उन्हें राजेश उत्साही का संपर्क सूत्र पकडाया जो मुझे दे दिया गया ।क्या इत्तफाक है !
लेकिन ----अग्रवाल जी के  रचना संसार से  मैं पहले से ही अवगत थी ।
कैसे ?
इसके पीछे  भी एक लघुकथा है ।

2007 में जब तीन मास को लन्दन आई तो मेरे सामने प्रश्न था किस तरह समय खूबसूरती से बिताया जाय ।इसी तलाश में हौंसलो लाइब्रेरी(treaty centre) गई ।वहां बलराम के कई लघुकथा संग्रह देखे ।बीसवीं सदी की लघुकथाएं पढीं ।पढने में बड़ा आनंद आया ।दो मिनट में चटपट ख़तम और सोचने के लिए बहुत कुछ । कुछ तो हमेशा के लिए मास्तिष्क पटल पर अपनी छाप छोड़ गईं जैसे सर्वोत्तम चाय ,नागपूजा आदि ।इन्हें तो मौके के अनुसार सुनाने से नहीं चूकती ।तभी से साहित्य की इस विधा से ऎसी जुड़ी की अधिक से अधिक लघुकथाएं पढ़ने लगी मनभावन लघुकथाओं को उनके लेखकों सहित डायरी में नोट कर लेती ।इस अंतराल मैंने जाना कि बलराम अग्रवाल जी लघुकथा जगत के ऐसे हस्ताक्षर हैं जो कलम  के धनी होने के साथ -साथ लघुकथा की परख -समझ ही नहीं रखते अपितु ब्लॉगस ,अनुवाद ,सम्पादन व् महत्वपूर्ण लेखों ,-वार्ताओं द्वारा साहित्य की इस विधा को बहुत कुछ दिया है ।

वे जहाँ ठहरे हुए हैं वह जगह मेरे निवास स्थल सर्जापुर रोड  से काफी दूर है पर वे कष्ट उठाकर पिछले सोमवार (4फरवरी ) को मीरा जी सहित मुझसे मिलने आये ।
घर पर उनका दूसरा ही रूप था -मिलनसार ,मैत्रीपूर्ण व् भ्रातृत्व भावना से ओतप्रोत सहजता सरलता ।

     जैसी सोच वैसे विचार ,जैसे विचार वैसा ही लेखन -यह कथन उनके एकांकी नाटक शिवाजी की बहन  पर खरा उतरता है ।आज ऐसे ही 
  
 नाटकों के  लिखने और मंचन कीआवश्यकता है जो बच्चों में स्नेह की गंगा बहा सके और देश के प्रति उन्हें अपने कर्तव्य की याद दिलाये।
मैंने तो इनका यही एकांकी पढ़ा है जो हाल  में बालवाटिका पत्रिका में प्रकाशित हुआ है ।अवसर मिलने पर इनके अन्य  एकांकी भी पढ़ डालूंगी |

लंच के बाद हम आराम से साहित्य चर्चा करने बैठ गए ।


 कलकत्ते से निकलने वाली साहित्यिकी हस्तलिखित पत्रिका    के लघुकथा विशेषांक पर बलराम जी ने अपने अमूल्य विचार व्यक्त किये थे ।इसके लिए इस पत्रिका के सब सदस्य बहुत आभारी हैं ।आगामी अंक -व्यस्तता के बीच अकेलापन -में उनके विचार  प्रकाशित होंगे ।

कलकत्ते से चलते समय विद्या भंडारी ने अपना लघुकथा संग्रह मुझे दिया था ताकि वरिष्ठ लघुकथाकारों से इसके बारे में सुझाव या उपयुक्त दिशा पा सकूँ ।उस पर भी बातें हूई।

पिछली बार जब बलराम जी से मुलाक़ात हुई थी तो  सुझाव दे गए थे  -वर्ल्ड आफ चिल्ड्रनस लिटरेचर  के सदस्य बन जाओ ।सच में इस सदस्यता से मुझे बहुत लाभ हुआ और अनेक बालसाहित्यकारों की जानकारी मिली ।
इस बार भी सोचा कुछ ऐसा ही मन्त्र हाथ लगेगा  उनकी संगत में ,पर कुछ याद नहीं पड़ रहा ।हाँ !फैमिली ट्री  बनाना जरूर सिखा  गए हैं ।सोच रही हूँ इसका भी उपयोग किया जाय।ज़रा फैमिली ट्री  ख़तम कर लूँ फिर फ्रेंड्स ट्री  बनाऊँगी ।

मीरा जी  ने रसोईघर में मेरा हाथ बँटाया ।घंटों का काम मिनटों में हो गया । इतना अपनापन व् आत्मीयता का संगम था कि मुझे ज़रा भी आभास नहीं हुआ कि वे मेहमान हैं ।प्रतीत हुआ घर के सदस्यों से अनुराग भरी नि:संकोचता की डोर से बंध  गई हूँ ।

मैंने एक बात महसूस की जिससे मुझे बहुत खुशी मिली ।मीराजी  अपने पति के लेखन संसार से पूर्णतया परिचित हैं और वे उनके सृजन में रूचि लेती हुई भरसक सहयोग देने की कोशिश करती हैं ।इस नजरिये से बलराम जी बहुत भाग्यवान हैं ।

हँसते- खिलखिलाते .साहित्य की गहराई में डूबते -उतराते काफी समय बीत  गया ।बलरामजी चलने के लए उठ खड़े हुए ।आते तो सब अच्छे लगते हैं पर जाते हुए कॊई नहीं ।इसीकारण उन्हें   रोकने  की कोशिश में बोली -कुछ फोटोग्राफी हो जाय और एक -एक कप चाय ।
चाय का सिप लेते समय स्वर्गीय  इंदु जैन का एक वाक्य  रह -रहकर घुमड़  रहा था  -भागदौड़ की जिन्दगी में सुकून पाने के लिये  इतना समय जरूर होना चाहिए कि दोस्तों के साथ बैठकर एक कप चाय पी ली जाय ।

अब अग्रवाल दम्पति का और रुकना नामुमकिन था ।काफी लंबा सफर तय करने के बाद उन्हें अपने गंतव्य स्थान पर  भी पहुँचना था ।
उनके जाने के बाद कम्प्यूटर से स्काई पी ,,ईमेल ,फेसबुक और ब्लोग्स झाँक -झाँककर मोबाइल फ़ोन से कहने लगे -भइये ,हमने मिलकर दुनिया बड़ी छोटी कर दी है ।न जाने कौन -कहाँ -किस्से टकरा जाये इसलिए बस एक सूत्र में बंधे  रहो ।




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मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

मेरा कलकत्ता -- मेरे दोस्त

  
 यादों के नए परिधान

नए साल  2013 ने जैसे ही धरती पर अपने   कदम  बढ़ाये मैंने अपने से वायदा किया कि  यादों के शहर में जरूर  जाऊँगी  जहाँ जिन्दगी के सबसे अनमोल चालीस साल बिताये ।वह है कोलकता शहर जहाँ के  खट्टी मीठे अनुभवों का गुच्छा सदैव अपने साथ रखती हूँ ।






14 जनवरी को  वहां पहुँचते ही फ़ोन खटखटाने शुरू कर दिए ताकि ज्यादा से ज्यादा मित्रों से मिला जा सके ।इस में मेरी सहेली जयश्री दास गुप्ता ने मेरी  बहुत मदद की ।कहते हैं --अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता --अगर वह नहीं होती तो मेरी यात्रा सफल न हो पाती ।मैं उसी के  निवास स्थान पर रुकी थी ।



मैंने उसके साथ बिरला हाई स्कूल में 22 वर्षों तक साथ -साथ पढ़ाया ।22वर्षों में इतनी बातें नहीं हुई होंगी जितनी दो हफ्ते में हम दिल खोल बैठे ।हर पल छाया की तरह मेरे साथ रहती ।मजाल है कहीं अकेली तो चली जाऊं ।कौन कहता है रिश्ते जन्म से होते हैं ,रिश्ते तो बनाये जाते हैं जिसकी धुरी केवल निश्छल प्रेम ही होती है ।और हाँ उसने मुझे खूब सन्देश और मिष्टी दही खिलाया ।




कभी -कभी तो चिंता में पड़  जाती थी कि कहीं कमर कमरा न हो जाए पर यही सोचकर --चार  दिन की चांदनी फिर अँधेरी  रात --पटापट खा जाती  ।यही नहीं --जिस मित्र  के जाती वहां भी सन्देश खाने को मिलता ।

कितने समझदार हैं मेरे मित्र --!जानते हैं जबसे मेरा कलकत्ता छूटा सन्देश के नाम से ही भूखे ब्राह्मण की तरह लार टपकने लगती हूँ ।

सबसे पहले सत्यवती तिवारी जी से  मैंने मिलना चाहा ।वे बिरला हाई  स्कूल में मेरी सीनियर रह चुकी हैं। हम दोनों ही हिन्दी पढ़ाते  थे पर मैंने अध्यापन के दौरान उनसे बहुत कुछ सीखा ।  ।जयश्री रासबिहारी एवेन्यू में रहती है और सत्यवती जी टालीगंज में ।उनके घर जाना हमें कठिन लगा ,हम बड़ी दुविधा में पड़े थे पर सत्यवती  जी ने हमें उबार लिया ।निश्चय हुआ कि  वे हमें लेने आ जायेंगी ।

वे समय पर लेने आ गईं पर कार टालीगंज की तरफ न मुड़कर मिन्टोपार्क की ओर मुड़  गई और बिरला हाई स्कूल दिखाई दिया  |



लगा अभी नटखट -मासूम बच्चे दौड़कर आयेंगे और चिल्ला उठेंगे --हिन्दी मिस --हिन्दी मिस ।


यह वही विद्या का मंदिर है जहाँ योग्य शिक्षक- शिक्षिकाओं  के प्रयास से मेरे दोनों बेटे  रवि -रजत उन्नत पथ पर अग्रसर हुए रजत  सीनियर स्कूल में कक्षा ,6,7,8,में लगातार प्रथम पोजीशन लाया  और मुझे विशेष अतिथि बनने  का सुअवसर मिला ।मैंने उस वर्ष के मेधावी छात्रों को इनाम वितरित किये ।



जड़ें तो उनकी जूनियर हाई स्कूल में ही जम चुकी थीं और उन दिनों  वहां की प्रिंसपल मिसेज एन . बाली थीं जो सर्वगुण संपन्न .कर्तव्यनिष्ठ व् साहसी महिला हैं |



वे दिन उमड़ घुमड़कर शीतल बूंदों की बरखा करने लगे जब  हम हर क्षेत्र में कूद पड़ते थे  ---
चाहें वह खेल का मैदान हो 




चाहें मंच हो




और चाहे साथियों  के स्वागत का समय हो या उनकी विदायगी का ।




 कार आगे बढ़ गई ।खरगोश से फुदकते ख्याल पीछे ही छूट गए ।
दो मिनट के बाद ही गोविन्द रेस्टोरेंट के आगे कार रुक गई ।

-अरे हम यहाँ कहाँ ?मैं आश्चर्य में थी ।
-यह सेंटर प्लेस हैं और मेरा घर एक कोने में पड़  जाता है ।यहाँ अन्य   सहेलियाँ   भी मिलने आ सकेंगी ।स्कूल में हमारे समय की  कुछ ही शिक्षिकाएं  हैं ।फ्री पीरियड होने पर वे भी यहाँ तक पहुंच सकेंगी  ।फ़ोन से उन लोगों को  सूचना  दे दी गई  है ।सत्यवती जी बोलीं ।
मुझे उनकी बुद्धि की दाद देनी पड़ी ।मेरी खोपड़ी में यह विचार आया ही नहीं  ।असल में सीनियर सीनियर ही रहते हैं । 

गोविन्द रेस्टोरेंट पहुँचते ही सविता महरोत्रा दिखाई दीं । चहरे पर प्रशासकीय गरिमा की छाप थी ।वे अब भी स्कूल में प्रशासकीय विभाग में अति मुस्तैदी से अपना कर्तव्य पूर्ण कर रही  हैं ।

कुछ ही देरी में सुमन महेश्वरी व् रीता  कपूर भी  स्कूल से आ गये। पहले जी  भर गले मिले ।चेहरे से खुशी टपकी पड़ती थी ।दिल की धडकनें उसकी गवाह थीं ।रीता  तो जल्दी चली गई क्योंकि उसे क्लास लेनी थी पर कुछ ही देर में बहुत कुछ दे गई अपना असीमित स्नेह

लंच करते -करते दो2-3घंटे कैसे गुजर गए पता ही नहीं लगा ।सब एक दूसरे के परिवार की खुशहाली व् वृद्धि के बारे में जानने  को उत्सुक थे ।पता लगा  हम सबको कई उपाधियाँ  मिल गई हैं ।कोई दादी माँ बन गया है तो कोई  नानी माँ --कोई  बड़ी माँ  बनने  का सपना संजो रहा है ।

विभिन्न विचार ,विभिन्न व्यक्तित्व के होते हुए भी समरसता का अभाव  न था ।.
पुरानी यादों को एक नया अम्बर मिल चुका था ।सदैव जुड़े रहने के लिए ईमेलआई डी ,मोबाइल न .का आदान प्रदान हुआ ।मीठी -मीठी  यादों पर समय की धूल न पड़ने का संकल्प करते हुए हम अपनी -अपनी दिशा  की ओर बढ़ गए

सपना मुखर्जी अस्वस्थ होने के कारण मिलने न आ सकी ।इंग्लिश पढ़ने वालों में उसका अच्छा -खासा नाम था। मैं और जयश्री उससे मिलने गए ।कोयल सी मीठी आवाज में उसने हमारा स्वागत किया ।हमें देखते ही उसके चेहरे पर हजार गुलाब खिल गए ।तबियत ठीक न होने पर भी उसने घर पर ही लंच बनाया ।आह !दही बड़े तो लाजवाब थे ।होते भी क्यों न !वे दही बड़े के अलावा और भी बहुत कुछ थे ।जबसे उससे जुदा हुई हूँ उसके स्वास्थ्य के लिए ईश्वर से दुआ करती हूँ ।

रीता खंडेलवाल से भी मिलना हुआ ।पिछले माह ही रिटायर हुई है पर वही हँसमुख गोल -गोल चेहरा ----।हँसे तो लगे चारों ओर  चांदनी छिटक गई है ।हम पहुंचे तो उसकी  प्यारी सी पोती ने शर्माते हुए  नमस्ते की ।उसकी हिचकिचाहट  दूर करने के उद्देश्य से  मैंने उसके खेल खिलौनों व् कहानी की पस्तक के बारे में बातें करनी शुरू का कर दीं ।उसने मुझे अपनी ड्राइंग भी दिखाई ।फिर तो मैं उसकी अच्छी दादी बन गई  ।उसके हाथ की बनी चाट और घुघनी  खाने का मन बहुत था ।स्कूल में अक्सर वह बनाकर लाती थी और हम सबको बड़े शौक से खिलाती ।समय अभाव्  के कारण मेरे कहने की हिम्मत नहीं पड़ी ।

हँसी -मजाक ,सुखद -दुखद घटनाओं की बयार ऐसी चली की 3-4 घंटे फुर्र से उड़ गए ।
शाम की चाय के साथ उसने घर में ही बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनाए थे ।इसमें उसकी  बहूरानी का भी हाथ था , इसलिए   ज्यादा ही स्वाद   आया ।छोटे  जब  बड़ों  को  कुछ बनाकर  खिलाते है तो उसकी कुछ और ही बात होती है ।  
हमने स्वाद ले-लेकर खाया और स्वत :ही प्रशंसा के बोल फूट पड़े ।भविष्य से अनजान होते हुए भी हमने - बार -बार मिलने का वायदा  किया और  साँसों में घुली माधुर्यता  का अह्सास करते चल पड़े

 बिरला हाई स्कूल के कुछ मित्र साल्ट लेक में बस गए थे ।उनसे न मिलना का मलाल अंत तक रहा ।कुछ दूरी थी कुछ मजबूरीथी और कुछ महानगरी की माया थी ।हाँ फ़ोन से जरूर मिलन का साज सजाते रहे ।

चित्रा भास्कर का फ़ोन आया था  -मिसेज भार्गव आप कलकत्ते हैं ---।मैं आपसे जरूर मिलती पर मिल नहीं  सकती ।यू. एस .ए आई हुई हूँ बेटे के पास ।मेरे लिए यही बहुत था ।भाग -दौड़ की इतनी व्यस्त जिन्दगी में उसने मुझे याद किया ।फेसबुक जिंदाबाद !उस पर तो इनसे मिलना हो ही जाता है ।

अतीत में नयेपन का खुमार इतना ज्यादा रहा कि  बैंगलौर आने के बाद कई दिनों तक मेरे मानस पटल पर वह छाया रहा और मैं उसे धूमिल भी नहीं होने देना चाहती क्योंकि जीवन में विविध रंग भरने के लिए दोस्तों का भी होना निहायत जरूरी  है ।   





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