कनाडा डायरी के पन्ने
प्रकाशित
अंतर्जाल पत्रिका साहित्य कुंज
न्यूयार्क
के दर्शनीय स्थल
तथा
भाग4
27 जुलाई
2003
ग्राउंड 0
एम्पायर स्टेट बिल्डिंग की गहन ऊंचाई से शीशाकार
महल में खड़े होकर ग्राउंड 0 की झलक तो देख ली थी मगर संतुष्ट न
हो सके। अत:निश्चित हुआ कि ध्वंसात्मक लीला के अवशेष देखने के बाद आजादी के दर्शन
करेंगे। सो 27 जुलाई को सुबह पहुँच गए गगनचुंबी ऐतिहासिक इमारतों के इर्दगिर्द।
4अप्रैल 1973 को न्यूयार्क के ठीक बीचों -बीच ‘ट्रेड सेंटर दी बिल्डिंग’ बनकर तैयार हुई थी। इसमें
दो-दो मीनारें थीं। ये 1368 फुट और1362 फुट दुनिया की सबसे ऊंची इमारतें 60
तल्लेवाली थीं। 11सितंबर 2001 को अलकायदा के आत्मघाती आतंकियों ने दो अपह्रत
यात्री विमानों से इनपर विनाशकारी हमला किया। पल में 4000 लोग जान से हाथ धो बैठे।
4,27000 करोड़ रुपए की संपति धूल में मिल गई। अमेरिका की
आर्थिक ऐश्वर्यता की प्रतीक बिल्डिंग को दिन दहाड़े गिरा दिया और वह अकथनीय दहशत से
भर गया। जिन दिनों सद्दाम हुसैन के तानाशाही राज्य के खिलाफ जंग छिड़ चुकी थी उन्हीं दिनों आतंकवाद का
दौर शुरू हो गया। यही दुर्घटना स्थल ‘ग्राउंड0’ कहलाता है।
अमेरिका ने कभी सोचा भी न था कि उसको कोई नुकसान भी पहुंचा सकता है।असीमित
सुरक्षा के होते हुए कोई उसका कवच भेद पाएगा। लेकिन अमेरिका की हिम्मत की दाद देनी
पड़ेगी। उसने भी कमर कस ली है कि जो इमारत नष्ट हो गई है उससे भी ऊंची इमारत बनाकर
वह संसार को दिखला देगा । यही दृढ़ता ,लगन और देश की
शक्ति को बनाए रखने का संकल्प अमेरिका की ताकत का राज है।
हम सब
0ग्राउंड पहुंचे। उस समय कड़ी सुरक्षा में इमारत का पुन:निर्माण कार्य चल रहा था।
उस स्थल के चारों तरफ लोहे के तार की मजबूत जाली लगी हुई थी। अंदर एक दीवार पर
पोस्टर लगा था जिसमें ओसामा बिन लादेन के दूतों की विध्वंसात्मक लीला का जिक्र
करते हुए मृतकों की आत्मा को शांति मिलने की कामना की गई थी।
बिल्डिंग के अहाते में दीवार से सटा एक चबूतरा बनवा दिया गया था। दीवार पर महाप्रयाण करने वालों के चित्र लगे
हुए थे। चबूतरे पर उनकी याद में किए अर्पित फूल भी बड़े उदास लग रहे थे। मृतकों के
मित्रों और रिश्तेदारों ने इस वहशीपने का विरोध करते हुए अपने आत्मीय जनों की
स्मृति में यहाँ आकर आँसू बहाए। अपने हृदय की मर्मस्पर्शी भावनाओं की अभिव्यक्ति
निर्जीव कागज के टुकड़ों पर करके उन्हें जीवंत बना दिया था ।
स्वतन्त्रता की देवी (goddess of liberty)
रह-रहकर हमारा मन समुद्र की लहरों के बीच आजादी की देवी की प्रतिमा को देखने मचल रहा था । इसलिए शोक स्थल ग्राउंड o से जल्दी ही विदा ली। न्यूयार्क बन्दरगाह पर
फेयरी बोट के 10डॉलर प्रति व्यक्ति के हिसाब से 2 टिकट हमारे लिए टूर के
संचालक ने पहले से ही खरीद लिए थे। हम शीघ्र ही सुंदर सी बोट में चढ़ गए। उत्तेजना
में बच्चों की तरह कभी बोट के किनारे की ओर भागते तो कभी जहाज के नीचे की मंजिल पर
। असल में सीमित समय में नील समुंदर का असीमित सौंदर्य पलकों में भरना चाहते
थे।
कॉफी के बड़े- बड़े गिलास लेकर खिड़की के पास बैठ गए।
पास से कोई छोटा-बड़ा जहाज गुजरता तो उसे कैमरे मेँ कैद करने की इच्छा होती। बलखाती
लहरों के साथ झूमने को मन करता। समुद्र के किनारे खड़ी गगनचुंबी इमारतें न्यूयार्क
की यश गाथा कहती प्रतीत होतीं।
दूर से
ही आजादी की देवी नजर आने लगी। गाइड उसके बारे मेँ अनेक दिलचस्प बातें बताने लगा
कि यह विशाल प्रतिमा फ्रांस मेँ बनाई गई है। जिसे एक फ्रांसीसी मूर्तिकार ने अनेक
मजदूरों के साथ 10 घंटे प्रतिदिन श्रम करके नौ साल मेँ इसे पूर्ण किया। 4 जुलाई
1884 को यह 47 मीटर ऊंची मूर्ति अमेरिका को भेंट कर दी गई।
“इसके
हाथ मेँ मशाल क्यों है?”मैंने पूछा ।
“इसका असली नाम है –“liberty enlightening the world” और इसके सिर पर ताज भी है जो हमेशा चमकता रहता है। क्योंकि उसमें एक
टॉर्च हमेशा जलती रहती है।
मूर्ति
को देखते ही कुछ लोग जोश में अपने दोनों बाजुएँ उठाकर चिल्लाये “देखो—देखो हाथ मेँ
मशाल लिए यह विश्व को स्वतन्त्रता की ज्योति जलाए रखने का संदेश दे रही है। खुद भी
स्वतंत्र रहो और दूसरों को भी स्वतंत्र रहने दो।” सुनकर मैं कुढ़ सी गई। मन ही मन
बड़बड़ाई –“ऊँह , कौन सुनता-समझता है इस संदेश को?”
जैसे-जैसे हम लिबर्टी टापू के पास आते गए आश्चर्य में डूबने लगे। दूर से तो आजादी की देवी का आकार छोटा लगता था ,नजदीक से वह विशाल और भारी-भरकम दिखाई देने लगी।
“इस
ताँबे की मूर्ति का वजन क्या होगा?”हमारे ही एक
सहयात्री ने पूछा।
“वजन
तो बहुत है। करीब 20,41000किलो तो है ही।” गाइड ने कहा।
‘बाप
रे –।’अस्फुट ध्वनियाँ गूंज उठी। साथ ही अनगिनत प्रश्नोत्तर का कोलाहल फूट
पड़ा।
“इसने
जो ताज पहन रखा है ,उस तक क्या हम पहुँच सकते है?”
“वहाँ
तक पहुँचने के लिए करीब 354 सीढ़ियाँ हैं। चढ़ते-चढ़ते साँस फूल जाएगा। लेकिन बीच-
बीच में रोशनदान हैं ताकि सीढ़ियों पर उजाला रहे और हवा भी आती रहे।”
यह
सुनकर मुझे दिल्ली की कुतुबमीनार याद आ गई थी। विध्यार्थी जीवन में उसे एक बार
देखने गए थे और ऊपर की मंजिल तक चढ़ गए थे।
वहाँ भी बहुत सीढ़ियाँ हैं और बीच बीच में रोशनदान बने हुए हैं। लगता हैं
पुराने समय में बहुमंज़िली इमारतों में चढ़ने के लिए इसी प्रकार का चलन था।
“कुछ
भी हो हम ताज तक जरूर जाएँगे। ऐसा मौका
फिर कब मिलेगा! इतनी ऊंचाई से नीचे का अद्भुत नजारा देखना ही है।” कुछ युवक जिद
करने लगे।
“दोस्तों मुझे बड़ा खेद है कि तुम्हारी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकती। वर्ल्ड सेंटर पर हमले के बाद सुरक्षा की दृष्टि
से ताज तक जाने पर रोक लगा दी है। हमारी बोट लिबर्टी टापू पर रुकेगी भी नहीं।”
गाइड ने हमें समझाया।
आगे
कहने को कुछ बचा ही न था। सभी मन मार कर रह गए। लिबर्टी टापू के पास जाने से एलिस
टापू भी दिखाई दे रहा था। । अमेरिका भूमि पर बसने की शुरुआत इसी द्वीप से हुई थी।
खैर!आजादी की देवी के अंदर से दर्शन न हो सके। समुद्री किनारों पर नजर डालते
हुए निराश लौट आए। बाद मेँ मेरे दिमाग मेँ
बबूला उठा-“इतनी उदासी क्यों?अब इस मूर्ति की
सार्थकता कहाँ !”
मन
अजीब वितृष्णा से भर गया। । विचारों के द्वंद में फंसी बहुत दूर निकल गई।
अफगानिस्तान –ईराक—वियतनाम के खून भरे छींटें मेरे शरीर में अनगिनत सुइयाँ चुभाने
लगे। मानवीय संवेदनाओं के अभाव में बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं के दैत्याकार घेरे,रॉकेट–युद्धपोत जैसे संतरी क्या रोक सके स्वार्थ और हिंसा की बयार!
प्रस्थान:न्यूयार्क से कनाडा
दोपहर
के 12 बजते-बजते बस मेँ बैठकर ओटावा की ओर चल दिये।न्यूयार्क दूर की अवधि समाप्त
हो रही थी। बस मेँ पिक्चर देखी,कई खेल भी खेले,इनाम भी जीते पर सब फीका -फीका लगा।
न्यूयार्क के ऐतिहासिक व ऐश्वर्य युक्त स्थलों की ओर बार-बार मन उड़ा चला जाता। कुछ
मीठे अनुभव हुए तो कुछ कड़वे। कुछ जबर्दस्ती भी पचाने पड़े। एक बात अच्छी तरह समझ गई
कि उन्नत राष्ट्र की कल्पना तभी साकार हो सकती है जब सुरक्षात्मक दृष्टि से वह
पूर्ण समर्थ हो और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर।
क्रमश:
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