मंगलवार, 30 अगस्त 2016

बारहवीं कड़ी -कनाडा डायरी


    डायरी के पन्ने                                                  
                                                                  दर्पण 
                                     सुधा भार्गव 
                                                               
                                                                  
26/4/2003

उस दिन महकती बगीची की गुनगुनी धूप में मेरे विचारों की पंखुड़ियाँ खुली हुई थीं कि कब मेरा मनभावन पोता या पोती इस दुनिया में आकर आँखें खोले और मैं उसे इन नाजुक सी पंखुड़ियों में बंद कर सीने से लगा लूँ।

तभी बहू भागी भागी आई –मम्मी जी,मम्मी जी माँ बनने के बाद तो बहुत कुछ भोगना पड़ता है । औरत अपना वजूद ही भूलजाती है। देखिए न , सोनिया  ने माँ बनने के बाद आपबीती लिखी हैं। उसने द ग्लोब एंड मेल समाचार पत्र मेरे हाथ में थमा दिया।

बहू तो चली गई । मैं किसी का भोगा जानने को उत्सुक हो उठी उसे पढ़कर यहाँ  के रहन सहन ,तौर तरीकों की गठरी खुलती सी लगी। यह किसी विशेष की कथा नहीं है अपितु 90%महिलाएं मातृत्व के बाद जिन गलियारों से गुजरती हैं उनका दर्पण है।

अखबार के पन्नों पर से मेरी नजरें बड़ी तेजी से फिसलने लगीं । सोनिया ने खुद लिखा-मैं संगीत कक्ष के फर्श पर लेती बहुत व्याकुल थी। संगमरमर का ठंडा फर्श चुभन पैदा कर रहा था पर तब भी मैं उसमें समा कर अदृश्य हो जाना चाहती थी ताकि मेरे पति और मेरा नवजात शिशु मुझे पा ही न सकें। हाँ ! मैं उनकी नजर से बचना चाहती थी पर मुझे गलत न समझना । मैं अपने बेटे को बहुत प्यार करती हूँ। वह मेरी हर सांस में समाया हुआ है।

मैं ही अकेली प्रथम औरत नहीं हूँ जो अपने बच्चे और पति से बचना चाह रही हो। मेरे चहेरी बहन तो बिस्तर की चादर में मुंह छिपाकर फफकने लगती थी जब उसका पति आधी रात को उसके पास बच्चे को दूध पिलाने लाया करता था। मातृत्व के प्रारम्भिक दिनों में वह सिर से पाँव तक सिहर जाती थी।
कुछ दिनों पहले मैं ब्रिटिश कोलम्बिया अपनी छोटी बहन से मिलने गई । मुझे अचानक देख वह खुश भी हुई और चकित भी पर उससे ज्यादा मैं चकित हुई उसे देखकर। वह अपने घर की सीढ़ियों पर सिर थामें बैठी थी और अंदर उसके दोनों बेटे भाग दौड़ करके लुका छिपी खेल रहे थे। बहन परेशान होकर घर का दरवाजा भेड़कर बाहर बैठ गई ताकि एकांत के पलों में शायद कुछ शांति मिले। तनाव दूर हो।
यही है मातृत्व की परिभाषा –तुम ,तुम्हारा समय,तुम्हारी इच्छाएँ ,तुम्हारी आवश्यकताएँ इन नन्हें देवदूतों से बढ़कर नहीं। मेरे मुंह से निकल पड़ा।

     माँ बनने से पहले मेरा यही विचार था कि खुशी खुशी बच्चे के लिए खुद को कुर्बान कर दूँगी। पर यह कुर्बानी मुझे बलि का बकरा बना देगी ,पता न था। मैंने अपनी माँ से पूछा-मॉम,तुमने बताया नहीं कि संतान को पालने में इतना कष्ट सहना पड़ता है। उन्होंने मेरा सर सहलाया था घंटों और उनकी एक मुस्कान ने मुझे सब कुछ समझा दिया-माँ सहनशीलता और त्याग की मूर्ति है। तभी तो वह दिल के अधिक करीब है। मेरी अवस्था इतनी दयनीय थी कि अपने तीन दिन के शिशु के पोतड़े बदलते –बदलते उनके कथन से पूरी तरह सहमत न हो सकी । यदि वे कुछ बतातीं भी तो मैं उनका विश्वास न कर पाती। भोगे बिना पीड़ा कोई क्या जाने।

    मेरे अनुभव रूपी संपदा समय और सक्रियता के अनुपात में दिनोंदिन बढ़ती ही गई और इस दौड़ में मैंने अपने पति को भी पीछे छोड़ दिया। वैसे तो हम दोनों ने मातृ –पितृ कक्षाओं में साथ साथ शिशु संबन्धित ज्ञान पाया था पर ईशवर पुरुष को भी बच्चे जनने का अवसर देता तभी तो समान ज्ञान व अनुभव के भागीदार होते।ऊपर वाले के इस अन्याय को देखकर मेरा रोम -रोम कुपित हो उठता है । ब्रह्मा ने ही स्त्री –पुरुष को समान नहीं समझा तो समानता का दावा कैसा?
मैं जब गर्भवती थी मैंने मातृत्व को गरिमामयी दृष्टि से देखा पर माँ बनते ही सारा घर तितर –बितर लगने लगा। घर ठीक करूँ या बच्चे को संभालूँ। एक कमरे में नवजात शिशु का बिस्तरा लगाया। अलमारी में उसके कपड़े बड़ी तरतीब से रखे । बेबी शावर के दिन मिले उपहार करीने से सजाए। मैं अपने पति के साथ कितनी खुशी से बेबी के लिए आरामदायक छोटी सी चारपाई ,गद्दा लिहाफ और तकिये लाई। पर सारी की सारी मेहनत बेकार गई।

बेटे के आने पर उसके लालन पालन की आदर्श सोच मोम की तरह गलने लगी। मेरे कमरे में ही धीरे –धीरे उसका सामान आने लगाऔर उसका कमरा कबाड़खाना हो गया। मैले कुचैले कपड़े,पोतड़े और ऊलजलूल चीजों का वहाँ ढेर लग गया। मेरा बेटा उस कमरे में एक दिन भी नहीं सोया। मुझे दूसरे के लिए अपने कमरे का भी मोह छोडना पड़ा ।
माँ बनने से पहले ज़्यादातर में उन्मुक्त पंछी की तरह उड़ा करती थी। जो मैंने चाहा वही किया । जब चाहा जैसे चाहा उसी तरह जीवन की धारा को मोड दिया पर अब मेरे स्वतन्त्रता का अपहरण हो गया था। इस विचार ने मुझे पागल बना दिया ,बस पागलखाने जाने की कसर थी।
   बेटा 15 दिन का हो गया पर मुझे पूरी नींद लेने का समय न मिला। उन दिनों मेरे सास जी आई थी। सहानुभूति के दो बोल पाने की आशा में मैंने एक दिन कहा-बच्चे ने तो मेरे नींद हराम कर दी है।
टका सा उत्तर सुनने को मिल गया-बस बहुत सो ली । अब जीवन भर सोने को नहीं मिलेगा।
झल्लाहट से मेरा माथा दर्द करने लगा। शाम को मेरे पति ऑफिस से आए । मेरा उदास चेहरा देखकर पिघल गए। कपड़े बदलकर और हाथ धोकर बच्चे को गोदी में उठा लिया पर सास के कड़वे बोल गूंज उठे-अभी अभी तो वह थका मांदा घर आया है। उससे बच्चा ही खिलवालों या ऑफिस का काम करा लो।

सारा घर जब नींद के झूले में झूलता होती उस समय मैं कई बार उसे आ –आ- आ कर थपकियाँ देती और लोरी गाकर सुलाने की कोशिश करती। ताज्जुब तब होता जब बेटे के रोने की आवाज से दूसरों की नींद में जरा खलल न पड़ता। पतिदेव करवट बदलते हुए कहते –सानू ,मेरा बेटा क्यों रो रहा है?फिर गूंजने लगते शंखनाद से खर्राटे । मेरे तनबदन में आग लग जाती। सुलगती रहती सोने वालों के प्रति पैदा हुई ईर्ष्या से ,कोसती रहती अपने भाग्य को।

6 मास का बेटा होने पर मैं माँ के पास भागी । सुबह पौ फट्ते ही बच्चा कुलबुलाने लगा –मेरे माँ भी बेचैन हो गई। पर मैं 6 माह का गुब्बार निकालते हुए चिल्लाई –माँ इसको यहाँ से ले जाओ। मुझे सोने दो। मुझे इसके बाप के घर सब कुछ मिलता है पर सोने को नहीं।

दिन चढ़े सोती रही या सोने का अभिनय करती रही पता नहीं पर बंद आँखें पल पल मेरी  उम्र बढ़ा रही थी। यह है मेरा मातृत्व जिसने दिन प्रतिदिन मुझे आत्मसमर्पण करने को मजबूर किया और इसी तले मैं रौंदी गई। मुझे पग पग अनुभव हुआ कि मेरी दुनिया खतम हो गई है। मेरे विचारों का –क्रियाकलापों का केंद्र केवल बच्चा है।

एम॰ डी॰ की डिग्री लेने से पहले ही मैंने मातृत्व की डिग्री ले ली थी जिसने मेरी राह कठिन बना दी। पैरों को झूला बनाकर उस नन्हें को झुलाती जाती और उसकी चिल्लाहट के बीच दोनों हाथों से किताब थामे अपना पाठ याद करती। कोशिश करती बच्चे से अधिक मेरा स्वर तेज हो पर क्या ऐसा हो पाता।
मुझे मालूम है यह समाज पग पग पर भोंपू बजाता कहता रहता है जीवन में आए इस परिवर्तन को सहर्ष गले लगालो। सदियों से औरत यही करती आई है पर पता नहीं क्यों,मैं इस बात को नहीं पचा पा रही।
अपने ही लिखे को मैंने जब देखा  तो सोचने लगी –क्यों लिखा है?माँ होने के नाते मैं बच्चे को बहुत प्यार करने लगी हूँ। उसकी हंसी में अपनी मुस्कान देखती हूँ। उसके रोते ही सीने में काँटा सा गड़ जाता है। परंतु यह भी सच है - कभी कभी शिशु पालन के समय मन कड़वाहट से भर जाता है जिसको बांटने वाला कोई नहीं।
वृद्ध पीढ़ी कहते कहते नहीं थकती –आदर्श माँ स्वार्थी नहीं होती।,न ही उसे किसी प्रकार की शिकायत होनी चाहिए। पर कथनी और करनी में बहुत अंतर होता है।
हर माँ के लिए यह संभव नहीं कि जब भी बच्चा उसके अंक में डाल दिया जाए वह उसी की हो जाए और घर भी व्यवस्थित रूप से चलता रहे,बाहर बॉस भी खुश रहे।

माँ बनने के बाद ही मुझे इस बात का अहसास हुआ कि मेरी माँ ने अपनी जवानी के सुनहरे दिन तो मुझे ही अर्पित कर दिए पर मैं ऐसा नहीं करना चाहती थी। अपना स्थान ,अपना समय व अपनी पहचान को सुरक्षित रखने के चक्कर में चक्कर खाती रहती हूँ।

मेरे पति बहुत समझदार हैं और इस बात को अनुभव करते हैं कि बच्चे के साथ साथ माँ की देखरेख भी समुचित ढंग से होनी चाहिए।जबकि ऐसा हो नहीं पाता। कभी कभी वे उदास हो जाते हैं मेरे लिए नहीं अपने लिए। इस दुनिया मेँ बेटे के आने से वे पेशोपेश में पड़ गए हैं। उनके दिमाग में यह बात घर कर गई है कि मैं उन्हें पहले की तरह प्यार नहीं करती। उनके हिस्से का प्यार भी मैंने बेटे पर न्योछावर कर दिया है। पहले की तरह न उनके खाने का ध्यान रखती हूँ न बालक की तरह प्यार करती हूँ न दुलार। क्या करूं!एक जान हजार काम।

उनका तो प्यार ही बंटा है ,मैं तो खुद ही बंट गई हूँ। दिल से भी दिमाग से भी। अभी न जाने कितने भागों में विभाजित होना है। पर मैं ऐसा होने नहीं दूँगी। मुझे फिर से उठना है और उठूँगी।
सोनिया का जीवन संघर्ष पूरे नारी वर्ग के हाहाकार का दर्पण था। इस दर्पण मेँ झाँकते –झाँकते कभी मुझे अपना चेहरा दिखाई देता है,कभी नई पीढ़ी का अंतर द्वंद । सच मेँ इक्कीसवी सदी की नारी घुटने नहीं टेकना चाहती । लेकिन यह भी सच है सम्बन्धों का पिंजरा और मुक्ताकाश एक साथ नहीं मिल सकते।

 क्रमशः 

(प्रकाशित - अन्तर्जात पत्रिका साहित्यकुंज के सितंबर मास के प्रथम अंक में)
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/12_darpan.htm


बारहवीं कड़ी -कनाडा डायरी के पन्ने


                                                     
                                                       

अली इस्माएल अब्बास

सुधा भार्गव 


25/4/2003
      इन दिनों सत्ता वैभव की उत्कंठा से रचे अमरीका –ईराक के चर्चे हर जबान पर हैं। युद्ध विरोधी प्रदर्शनों के होते हुए भी ब्रुश –ब्लेयर जोड़ी ईराक पर तबाही बरसाने की खूनी प्यास को नहीं रोक सकी । आज टी.वी. में सुना कि ईराक में पुन:निर्माण का शुभारंभ हो चुका है। बिजली व्यवस्था ,टेलीफोन व्यवस्था ,दूरदर्शन व्यवस्था ,आवास व्यवस्था न जाने कितनी व्यवस्थाएं पुन: पुन: होंगी । यही नहीं अपितु अंधे को आँख,लूले को हाथ,लँगड़े को पाँव मिलेगा। युद्ध की भीषण लपटों में झुलसे ईराक में न कोई अपाहिज रहेगा और न ही अनाथ। अस्पताल में रातों रात योग्य डॉक्टर ,सुप्रबंधित आपरेशन थियेटर ,आधुनिक जंतर मंत्र की भरमार हो गई हैं।  ऊँह बड़े लोगों की बड़ी बातें ।असंभव को भी संभव करने का लंबा –चौड़ा प्रचार सुनकर मेरे माथे पर बल पड़ गए और निरर्थक –बेसिरपैर की बातों के प्रसारण के समय मैंने कंधे झटक दिए।
      संसार इस बात का गवाह है कि ईराकी नागरिकों पर खुले दिल से बम बौछार करने के परिणामस्वरूप न जाने कितने ईश्वर को प्यारे हो गए। । कुवैत के अस्पताल में एक बच्चे को देखकर सर्जन ने कहा-तुम तकदीर के बली हो ,तुम बच गए।
--क्या नाम है तुम्हारा?
-नूर अली।
-उम्र?
-बारह । मेरे हाथ----!तभी दिल दहलाने वाली एक चीख निकली।
-अमेरिका की फौज जब तुम्हारे शहर पर मिसाइल से बम बरसा रही थी तब तुमने अपने हाथ खो दिए।
-और मैंने क्या क्या खोया?
-माँ-बाप ,भाई ,चची और तीनों चचेरे भाई। सबको हमेशा के लिए खो दिया।
बच्चा शून्य में ताकता रहा,सुनता रहा।
-घबराओ नहीं,हम आशावादी हैं। हम तुम्हारे अच्छी से अच्छी  किस्म के अंग लगवा देंगे।
-और क्या करवा दोगे ?
-तुम्हारे घाव भर देंगे,जलने के निशान मिटा देंगे।
-और क्या दोगे?
-और क्या चाहिए?
-बहुत कुछ चाहिए। क्या दे  सकोगे मेरे अब्बा और अम्मी। प्यारे-प्यारे भाई जान जिनको देखते  ही मैं अपना सारा दुख भूल जाता था। उनके बिना मैं कैसे रहूँगा?
मेरा सब कुछ तो छीन लिया। अली अपने माँ –बाप की याद में बिलख बिलख कर रोने लगा।
     सर्जन निरुपाय सा बालक की ओर देखता रह गया जो रिश्तों की डोर के बिना कटी पतंग की तरह पड़ा था।  
      बाद में इस किशोर के कृत्रिम अंग लगवा दिए गए और इसके इलाज का खर्च कुवैत सरकार ने उठाया। युद्ध के दौरान इस्माइल की तस्वीरें डेली मिरर आदि अखबारों में खूब छ्पी। टी॰ वी॰ में डरी-सहमी आँखों वाले अली की पीड़ा ने मुझे रुला दिया। इस किशोर की दर्दनाक तस्वीरें अमेरिका-ईराक के संघर्ष में नागरिकों को पहुँच रही पीड़ाओं की प्रतीक बन गई हैं ।  
                 वाह री तांडव लीला !