कनाडा डायरी के पन्ने
प्रकाशित
काव्य
गोष्ठी
सुधा भार्गव
26 8 2003
शाम को
8 बजे रश्मि जी के निवास स्थान पर पहुँचने के लिए बेटे के साथ निकली। ओह,कितनी
तेज बारिश! कार चलाना भी मुश्किल। पर चाँद ने उफ तक न की बल्कि मेरे लिए खुश था---
माँ का कुछ साहित्यकारों से परिचय होगा,कविता
सुनने- सुनाने का मौका मिलेगा। मैं भी बहुत उत्तेजित थी। रास्ते से संतोष जी को भी
लेना था। मूसलाधार बरसते पानी में बेटे का कार चलाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था।
मेरे मुंह से निकल पड़ा- मैं तुझे बहुत तंग कर रही हूँ। पानी को भी अभी बरसना था।
मैंने कितना परेशानी में डाल दिया तुझे बच्चे।’’
“माँ
बारिश तो कनाडा में बिन बुलाये मेहमान की तरह चाहे जब आन धमकती है। यहाँ रहकर मुझे
आदत पड़ गई है । बस आप इसी तरह अपने को व्यस्त रखना। इस प्रकार आपका कुछ न कुछ करते
रहना मुझे अच्छा लगता है।’’ उसकी
आँखों में चमक थी । कैनवास के ब्रुश ,लेखनी और
रैकी हीलिंग आर्ट मेरे इर्द-गिर्द गिर्द
चक्कर काटते प्रतीत हुए मानो कह रहे हो –हमें भूल न जाना। । मैं अपने भावी जीवन के बारे में सोचने
के लिए मजबूर हो गई।
संतोष
जी के दरवाजे पर कार रुकी। वे इंतजार कर ही रही थीं। उनका चेहरा मुझे परिचित सा
लगा। उन्होंने मुझे देखते ही पूछा –“क्या आप ऋचा संस्था की सदस्य हैं?”
“हाँ
जी।”
“मुझे
आपने कुछ लेख व कहानी दी थीं। कहानी तो रिचा पत्रिका में छप चुकी है। लेख आगामी
अंक के लिए है।”
“ओह आप
हैं!” एकदम मेरे दिमाग में संतोष जी का चेहरा घूम गया जिनसे दिल्ली में मिल चुकी
थी और अब वे अपने बेटे से कनाडा मिलने आई थीं।
कार
में बैठ गए मगर वार्तालाप ने बंद होने का नाम ही नहीं लिया। “देखिए दुनिया कितनी छोटी हैं। हम आपके पीछे
-पीछे चले ही आए। भारत में इतनी देर का साथ कभी न मिल पाया जितना यहाँ नसीब होगा।’’
“आप ठीक
फरमा रही हैं। मैं हर वर्ष छुट्टियों में आती हूँ। बहू-बेटे दोनों डॉक्टर हैं। हर
जगह अकेले जाने की हिम्मत नहीं होती। इसीलिए आपके बेटे से मुझे घर से ले जाने को
कहा। कोई परेशानी तो नहीं हुई?”
“नहीं
आंटी ,कोई परेशानी नहीं हुई। शीतल भी आपसे
मिलना चाहती थी मगर वह अवनि के कारण नहीं आ पाई। अभी वह बहुत छोटी है। आपने उसे
मिरान्डा हाउस में पढ़ाया है।”
“हाँ,उससे
एक बार फोन पर बातें हुई थीं। अभी तो मैं यहाँ 15 सितंबर तक हूँ। मिलेंगे।’’
“अवश्य
आंटी!’’
रश्मि
जी के घर में घुसे। वे चाँद से पहले ही मिल चुकी थी। देखते ही बोलीं-“तुमने हमें
अपनी मम्मी से और पहले क्यों नहीं मिलवाया। तुम तो हमें जानते थे।”
“हाँ
आंटी,बस भूलभुलइया में रह गए।”
“चाँद
तुम्हें दुबारा आने की जरूरत नहीं। मैंने अपने बेटे से कह दिया है कि वह हमें 11
बजे लेने आ जाये। तुम्हारी मम्मी को भी पहुंचा देंगे। किसी बात की चिंता नहीं
करना।’’
उनकी
समझदारी ने हमें उबार लिया । वरना मेरी ममता सोच- सोचकर अधमरी हुई जा रही थी ---
रात में मेरे बेटे को फिर 15 किलोमीटर आना और 15 किलोमीटर जाना पड़ेगा जबकि मौसम का
मिजाज निहायत बिगड़ा हुआ है।कहीं बीमार न पड़ जाये।
रश्मि
जी के ड्राइंग रूम में कदम रखते ही भारतीय संगीत वाद्य उपकरणों पर नजर टिकी तो
टिकी ही रह गई। हारमोनियम-तबला,ढोलक
- मजीरे भगवान कृष्ण की मूर्ति एक चौकी पर विराजमान थी । उसके समक्ष कालीन पर
हारमोनियम-तबला,ढोलक
- मजीरे रखे थे जो भारतीय संस्कृति में रंगी रश्मि जी के व्यक्तित्व व हुनर का
परिचय दे रहे थे। पिछले 30 वर्षों से कनाडा में रहते हुए भी अपनी जड़ों को सुरक्षित
रख छोड़ा था।वे बड़ी आत्मीयता से मिलीं। अपने बेटे से हमारा परिचय कराया। हाथ जोड़कर
उसने नम्रता से नमस्कार किया। हाथ क्या जुड़े दिल जुड़ गए।
गायन
विदद्या में निपुण कवयित्री सपना जी वहाँ पहले से ही आ चुकी थी। एक दूसरे से
परिचित होने के बाद चाय के साथ भरपेट भारतीय व्यंजनों का स्वाद लिया। छोटी बड़ी
कविताओं व शेरो शायरी के दौर चले। साथ ही पूरबी - पश्चिमी सभ्यता को टटोलते रहे।
उन सबका हृदय देश प्रेम से ओतप्रोत था चाहे शरीर उनका कहीं भी हो।
महादेवी
वर्मा,सुमित्रानंदन पंत –बच्चन जी की
काव्य रचना पर चर्चा होती रही। रश्मि जी की कविताओं पर छायावाद की छाप थी। सपना जी
ने बड़े मधुर स्वर में कविता पाठ किया जिसमें सुरों की तालमतेल था। कविताएं पौराणिक
कथाओं पर आधारित थी। सीता,राम और
रावण के चरित्र लेकर उन्होंने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति बहुत सुंदर ढंग से की
थी। मन का आक्रोश फूट फूट पड़ता था। हमने भी अपने देश की महानता को लेकर कविता पाठ
किया।
अंत
में हमने मिष्ठान खाया। डिनर के बाद बिना मिठाई खाए तो हम भारतीयों को संतोष होता ही नहीं हैं। दुनिया के किसी भी कोने में चले जाएँ
अपनी आदतें अपने साथ ले जाते हैं।जीवन का माधुर्य और मित्रत्व की भावना को समेटे हम अपने घरों की ओर चल दिए।
अगले दिन मैंने रश्मि जी का धन्यवाद किया जिन्होंने मुझे अपना अमूल्य समय व सहयोग दिया।
क्रमश:
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