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: साहित्य कुंज
अक्तूबर प्रथम अंक 2016 में प्रकाशित
अक्तूबर प्रथम अंक 2016 में प्रकाशित
सुधा भार्गव
29/4/2003
इंतजार करते करते 29 अप्रैल हो गई और मैं कह उठी-ओ
मेरे प्यारे अनदेखे बच्चे, माँ की गर्भ गुफा से हमारी रोशनी
भरी दुनिया मेँ क्यों नहीं आ रहे हो। हम
बड़े व्याकुल है पर प्रतीक्षा के पलों में भी मीठी धुन बज रही है। तुम्हारे हिलने
डुलने से एक बात निश्चित है कि तुम भी अकेलापन महसूस कर रहे हो और हमारी रंग
बिरंगी दुनिया में आकर मुसकुराना चाहते हो। ओह !तुम्हारी बेचैन भरी करवटों ने मेरी
बहू की कमर में दर्द कर दिया है। रुक रुककर दर्द था तब तक ठीक था मगर लगातार व्यथा
भरी लहरों को देखकर मन अशांत हो गया है । अब आ भी जाओ ,अपनी
माँ को ज्यादा न सताओ।
रात के 10 बजकर 30 मिनट पर असहनीय यंत्रणा होने लगी
और बेटा बहू को लेकर कार्लीटोन अस्पताल चल दिया । मैं और भार्गव जी घर पर रह गए।
मन में आशंकाओं के घरौदे रह -रह कर बनने बिगड़ने लगे। न जाने मेरा बेटा, बहू को सँभलेगा या कार चलाएगा।वैसे कुछ ही किलोमीटर दूर अस्पताल है। सब
ठीक ही होगा।
अनदेखे बच्चे से मेरे दिल के तार अंजाने में ही जुड़
गए। लगा जैसे वह मेरी बातें सुन रहा है,समझ रहा है। सोचने लगी मेरी बात सुनकर नन्हा जरूर हँसेगा –अरे दादी, इतने बड़े पापा की चिंता! अब मैं उसे कैसे समझाती –उसका पापा कितना ही बड़ा
हो जाए मुझसे तो बड़ा हो नहीं सकता।
शिशु जन्म के समय मेरा अस्पताल जाना निश्चित था। सुन
रखा था कार्लीटोन अस्पताल में आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित आपरेशन थियेटर है। शान -शौकत
में 5स्टार से कम नहीं। नर्सें बड़ी मुस्तैदी से अपना कर्तव्य निबाहती हैं। अपनी
मुस्कान से निर्जीवों में प्राण फूकती हैं। मेरी तो यह सब देखने की बड़ी लालसा थी।
सबसे बड़ी बात रूई से कोमल बच्चे को जी भर देखना चाहती थी पर मेरे सारे अरमानों पर
पानी फिर गया। न जाने सार्स बीमारी टोरेंटों में कहाँ से आन टपकी और अस्पताल में
माँ-बाप के अलावा तीसरे का प्रवेश निषेध हो गया। मैं मन मारे घायल पक्षी की तरह
तड़पती रह गई।
रजनी की नीरवता को भेदते हुए घड़ी ने 12 घंटे बजाए,दूसरी ओर फोन की घंटी भी घरघराने लगी। मैं और भार्गव जी दोनों ही बच्चों
की तरह रिसीवर उठाने भागे कि देखें पहले कौन ?दोनों के हाथ
एक दूसरे पर पड़े !हम खिलखिलाकर हंस पड़े । उम्र की सीमा को लांघकर बचपन पसर गया।
बेटे ने जानकारी दी कि बहू को जाकूजी बाथ (Jacuzzi) दिया जा रहा है ताकि दर्द तो उठे पर प्रसव वेदना का अनुभव न हो। सुनकर
संतोष हुआ कि कनाडा में वह सुविधा उपलब्ध है जो मुझे अपने समय में न थी। मैं ही
उसके कष्ट को जान सकती थी ,भोगे हुए जो थी। अब मेरा सारा
ध्यान अंजान बच्चे से हटकर उसकी माँ पर केन्द्रित हो गया।
तभी एक धीमी सी आवाज सुनाई दी –दादी मुझे अंजान न कहो ।
जान -पहचान है तभी तो तुमसे मिलने आ रहा हूँ।
मैं चकित सी आँखें घुमा-घुमा कर देखने लगी। दिखाई
तो कोई न दिया पर समझ में आ गया –अंजान शब्द का प्रयोग करके गलती की है।
टेलीफोन की घंटी फिर कर्र-कर्र कर उठी.... माँ , आप और पापा थोड़ा सो जाओ । मेरे पापा बनने में अभी 2-3 घंटे की देरी है।
उसकी आवाज में पितृत्व का झरना झरझरा उठा था।
यहाँ आराम की किसे सूझ रही थी। हमारी आंखे तो
फरिश्ते के स्वागत के लिए बिछी थीं।
घड़ी ने जैसे ही एक का घंटा बजाया कमर सीधी करने के
लिए लेट गई। नींद ने कब अपने आगोश में ले लिया पता ही न चला।भार्गव जी तो बाबा
बनने की उमंग में विचित्र सी अकुलाहट लिए घर का चक्कर काट रहे थे। बोलते कम थे पर
उनकी चाल- ढाल से पता लग जाता था कि अंदर क्या चल रहा है।
इस बार फोन की घंटी इस तरह बज उठी मानो कोई सुखद
संदेश देना चाहती हो। एक गर्वीले पिता की आवाज मेरे कानों से टकराई –माँ ,प्यारा सा बच्चा हुआ है।
-अरे यह तो बता लड़का है या लड़की?कैसा है?
-गोरी गोरी भोलू भोलू ।
-कितना वजन है उसका?
-6.6। नाल भी मैंने ही काटा माँ--।
-एँ –तूने नाल काटा!लगा जैसे तीसरी मंजिल से नीचे
जा पड़ी हूँ।
-हाँ माँ...
सच कहा रहा हूँ।
-तेरे हाथ नहीं काँपे ?
-बिलकुल नहीं। बल्कि लगा मैं कुछ ही पलों में अपनी बच्ची
के बहुत करीब आ गया हूँ। लो अपनी बहू से बातें करो।
-इतनी जल्दी --। अभी तो वह सम्हल भी न पाई होगी। मैं
बुदबुदाई–बेटी कैसी हो?
-ठीक हूँ मम्मी जी ।
-कैसा लग रहा है?
-बहुत अच्छा।
उसके इन दो शब्दों ने बहुत कुछ कह दिया। उसके स्वर
में पीड़ा या थकान की परछाईं लेशमात्र न थी। मातृत्व से खनकता कंठ गूंज रहा था।
नवजात शिशु के आगमन की सूचना पाकर अपनी कल्पना में
नए रंग भरने लगी और अतीव रोमांचक रिश्ते के सुनहरे जाल में फंस गई। पहले तो मुझे
लग रहा था 5 माह कनाडा प्रवास के कैसे बीतेंगे पर अब तो इस फूल से फरिश्ते का पलड़ा
भारी लगने लगा और मैं विश्वस्त हो उठी कि उसके साथ दिन कपूर की भांति उड़ जाएंगे।
क्रमश :
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