शुक्रवार, 3 जून 2016

नौवीं कड़ी

कनाडा डायरी के पन्ने 

16/4/2003
                             वह लाल गुलाबी मुखड़ेवाली 
                  
                                 
                                     सुधा भार्गव 


अप्रैल मास में उन दिनों मैं कनाडा की राजधानी ओटवा में ही थी । देखते ही देखते बसंत आ गया और देवदार को अपने आगोश में ले लिया । विरही सा कुम्हलाया जर्जर वृक्ष रंग –बिरंगे पत्तों से धक गया। हरे पीले लाल पल्लवों की पलकों के साये में बैठे खिन्न चित्त लिए पक्षी भी चहचहने लगे । ठंड से ठिठुरी कलियों की आँखें खुलीं तो सूर्यवाला के कपोलों पर लाली छा गई।
मुझे भी तो धूप दूध की तरह सुखद लगने  लगी । अप्रत्याशित खुशी मेरे उनीदे अंगों से छ्लकी  पड़ती थी। एक कवि की कुछ पंक्तियाँ गुनगुनाने लगी क्योंकि वे सत्यता उजागर करती प्रतीत हुईं।
                                   
वसंत आ गया
                    
महोत्सव छा गया
                                  
टटोलने लगी उँगलियाँ
                                 
 मादक भरी देह को।  
                                  
उन्माद की आंधी चल पड़ी
                                  
मन की नदिया उफन पड़ी
                                  
पोर पोर दुखने लगा
                                 
दहकने लगा।  
                                  
अनुराग का देवता
                                  
अंग –अंग में पैठ गया
                                  
वसंत के प्रेम पग देते संदेशा फूल को
                                  
लो मैं आ गया।                 
                                                                                 
व्यस्तता की सरिता चारों तरफ उमड़ पड़ी थी । हमें भी सुस्ती में समय गंवाना मंजूर न था। निश्चित किया गया सपरिवार पिकनिक के लिए चला जाए वह भी फलों के बाग में जहां जी भरकर स्ट्रावरी चुने,तोड़ें और खाएं।
यहाँ मई –जून में स्ट्रावरी पकनी शुरू हो जाती हैं और ज्वैल स्ट्रावरी की किस्म सबसे  उत्तम होती है –बेटे ने जब यह बताया मेरे बच्चों की सी हालत हो गई । शोर मचाने लगी जल्दी चलो।
जैसे –तैसे रात काटी और  अगले दिन 10 बजे के करीब सुबह चल दिए फार्म की ओर । साथ में अपने -अपने डिब्बे,टोपी धूप का चश्मा और पानी की बोतल ले ली ताकि धूप से बचा जा सके ।  खाली डिब्बे भी रख लिए ताकि उनमें पानी भरकर स्ट्रोवरी धोई जा सकें।

फार्म में स्ट्रावरी की लंबी कतारें थीं जिनके बीच में झंडियाँ लगी थीं ।
 समझ नहीं सके यह सब क्या है । फार्म के मालिक के पास जाने पर उसने हमे प्लास्टिक की चार डलियाँ पकड़ा दीं ताकि फल तोड़कर उसमें रख सकें। उसमें आधा किलो फल आता था । शर्त थी खूब स्ट्रावरी खाओ पर आधा किलो फल खरीदने जरूर हैं।
सौदा घाटे का नहीं था । उसने हमारे साथ एक गाइड कर दिया । मैं घबरा गई –यह साथ में रहेगा तो छक कर खाएँगे कैसे?। कहीं देखकर यह न सोचे –कैसे हैं ये लोग ,भुक्कड़ की तरह टूट पड़े हैं। अपनी प्रतिष्ठा का सवाल था।इसलिए अपने पर नियंत्रण रखना जरूरी लगा।
मैंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। वह उत्तर देता गया। पंक्ति में जहां तक फल का चयन हो जाता था वहाँ पहले स्थान से झंडी निकालकर चयन समाप्ति स्थल पर वह लगा दी जाती थी । उसने हमसे आग्रह किया गूदेदार कड़ी और लाल स्ट्रोवरी ही तोड़ें । डिब्बों में पानी भर कर रखें । 2 मिनट फल उसमें पड़ा रहने दें फिर उसे खाएँ। धूप तेज है ,खूब पानी पीयेँ और पेट को खाली न रखें वरना एंबुलेंस मंगानी पड़ेगी। कह कर हंस पड़ा। उसका मित्रभाव अच्छा लगा।
फल तोड़ने के विशेष कायदे पर उसने ज़ोर दिया। फल का बर्बाद होना उसे असहनीय था। गाइड ने पौधे की कोमल टहनी एक हाथ से पकड़ी,दूसरे हाथ से फल को ऊपर से धीरे से मोड़ते हुए तोड़ लिया और उसे हथेली पर रख लिया। ।उतावली में मेरा पाँव क्यारी में जा पड़ा। वह एकाएक चिल्लाया –मेमसाहब ,पौधे न कुचलो।
उसने एक खास बात का और जिक्रा किया। खाने वाली स्ट्रावरी को ही पानी से धोना चाहिए। फ्रीज़ करना हो तो बादली छाया या प्रभाती हवा में तोड़ो। उस समय तो सूर्य का प्रचंड ताप था । इसका मतलब आधा किलो खरीदा फल बेकार जाएगा। वह हमारी दुविधा भाँपते हुए बोला-स्ट्रावरी पेड़ की छाया में तोड़कर रख दीजिए । कार में सीट के नीचे ठंडक में वे आराम से सो जाएंगी । घर पहुँचने पर भी ताजगी से भरपूर होंगी।
उसका फल के बारे में अच्छा - खासा ज्ञान था। पर अब मुझे उसका ज्ञान खल रहा था । इंतजार में थी वह जाए तो स्ट्रोवरी पर धावा बोला जाए। बहू –बेटे को खाने का इतना लालच न था। वे पहले भी आचुके थे ,गले तक खा चुके थे । गाइड के जाते ही मैंने भार्गव जी की ओर देखा-मंद मुस्कान ओठों पर थी। शायद वे भी गाइड के जाने की प्रतीक्षा में थे।  



हमारे चारों तरफ स्ट्रावरी बिखरी पड़ी थीं। मंद बयार में पत्तों के पीछे से उनका लुकाछिपी का खेल चल रहा था। आहिस्ता से मैंने उनको छूआ। लाल गुलाबी मुखड़े वाली शिशु सी ---। तोड़ूँ या न तोड़ूँ---  असमंजस में थी । ज्यादा देर तक अपने पर काबू रखना असंभव सा लगा। मोटी –मोटी ,रसीली, अपनी महक फैलाती हुई मेरी टोकरी में समाने लगी। वश चलता तो तोड़ते ही अपने मुख में रख लेतीं पर उनपर छिड्के केमिकल को साफ करना भी जरूरी था। मैंने आठ –दस स्ट्रावरी मुंह में रख ली तब सुध आई दूसरे भी पास खड़े हैं उनके सामने भी पेश करना चाहिए।
बचपन में अपने गाँव में सुबह –सुबह नहर की पुलिया पार करके छोटे भाई के साथ मैं खेत में घुस जाती। कभी गन्ना तोड़ती,कभी टमाटर। बाग का मालिक बाबा को जानता था वरना हमें डंडे मारकर बाहर निकाल देता। मेरा वह बचपन कुछ समय को लौट आया था।
बेटा क्यारियों से बाहर निकल गया था। पहले तो मुझे खाता देखता रहा फिर बोला –बस भी करो माँ ,पेट खराब हो जाएगा ।
-ज़िंदगी में पहली बार तो इस  तरह खा रही हूँ ,कोई पेट –वेट खराब नहीं होगा।
एक स्ट्रोवरी खाकर नजर घुमाती –अरे यह तो और भी रसीली और बड्डी है। उसे तोड़ती,धोती और गप्प से खा जाती। यह सिलसिला गोधूलि तक चला। पेट भर गया पर नियत नहीं भरी। 
-माँ ,अब चलो ।अगली बार चेरी के फार्म पर चलेंगे। वहाँ और भी आनंद आएगा।  
-सच!वायदा रहा। मैं चिहुँक उठी और बालिका की तरह हिलती -डुलती उसके पीछे-पीछे कदम बढ़ाने लगी।

(अंतर्जाल पत्रिका साहित्य कुंज- जून प्रथम अंक 2016 में प्रकाशित) 
क्रमश:  



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