शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

हमारी सुकीर्ति दी और उनकी यादें


  विशिष्ट साहित्यकार 
सुकीर्ति गुप्ता(कोलकाता )


सुकीर्ति जी  के शब्दों  में ही-- 
संग -संग की गंध 
मौसम की गंध में  रच- बस गई 
उमंग भरी बाहों से दूर 
पर याद की सुगंध में खोता मन 
डूबता उतराता है ।  


बड़े दुख  की बात है कि महानगर कोलकाता की साहित्यिकी नामक संस्था की अध्यक्ष सुकीर्ति गुप्ता का पिछले मास देहांत हो गया । वे कुछ समय से बीमार चल रही थीं । यही संस्था  हस्तलिखित पत्रिका साहित्यकी का प्रकाशन भी करती है । हम सब उन्हें प्यार से सुकीर्ति  दी कहते थे जिन्होंने करीब 50   बुद्धिजीवी महिलाओं को एक सशक्त नारी मंच दिया ताकि उनसे संबन्धित मुद्दों पर विचार विनिमय हो सके और लेखनी की गतिशीलता से ऊर्जावान लहरें उठ सकें ।

'एक बार उन्होंने मुझे 'शब्दों से घुलते मिलते हुए ' अपना कविता संग्रह दिया था  ।बहुत सी कविताएं मर्म को छू -छू जाती हैं ।  कस्बे की बिटिया,बाघ ,दो औरतें उपन्यासों के अंश विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं ।

शास्त्रीय संगीत ,चित्रकला और नाटकों में उनकी विशेष रुचि थी । कवि गोष्ठियों में जब वे स्वर में कविता पाठ किया करती थीं तो श्रोतागण मुग्ध हो उठते ।

सुकीर्ति  दी ने स्वात्ंत्र्योत्रर हिन्दी लघु उपन्यासों में नारी व्यक्तित्व पर कलकत्ता  विश्वविद्यालय से पी .एच .डी की थी । कहानी संग्रह दायरे ,अकेलियाँ आदि प्रकाशित हो चुके हैं ।

सुप्रसिद्ध साहित्यकार रवीन्द्र कालिया ने 'अकेलिया' कहानी संग्रह के  संदर्भ में लिखा है –उनकी कहानियों की  सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे  धारा के साथ नहीं ,धारा के विरुद्ध लिखती हैं ।





उनकी कहानियों का मूल राग प्रेम ही है पर वे प्रेम के  श्रंगार पक्ष में  नहीं खो जातीं बल्कि प्रेम की  जटिलताओं ,विडंबनाओं और अंतर्विरोधोंकों अपनी कहानियों का आधार बनाती हैं । यद्यपि उनकी नायिकाएँ प्रेम में ठगी जाती है ,प्रेम की हिंसा की शिकार होती हैं मगर वे परास्त नहीं होतीं ,उम्मीद और जिजीविषा का दामन नहीं छोडतीं । जैनेन्द्र की मृणाल की तरह अपनी राह स्वयं खोजती हैं ।

आकर्षक व्यक्तित्व वाली सुकीर्ति दी मृदुभाषी थीं । सबसे बड़ी विशेषता उनकी यह थी कि वे सबको साथ लेकर आगे बढ़ना चाहती थीं और हमें उत्साहित करती थीं । सामूहिक कवि गोष्ठियों में अनेक कवि –कवियित्री व  साहित्यप्रेमियों से भेंट होती रहती थी । कविता पाठ के बाद यदि उनसे प्रशंसा के दो बोल सुनने को मिल जाते तो धन्य हो उठते ।
शब्दों से घुलते मिलते हुये –कविता संग्रह में उन्हों ने लिखा है --





कविता मेरे लिए एक आत्मीय सखी की तरह है जो मेरे दुख में दुखी होती है और सुख में मेरा हृदय उल्लास से भर देती है । भावनामयी समवेदनाओं ने मेरी  रिक्तता को भरा तो है पर भीड़ में अकेला करके ।

इसी संग्रह से उनकी दो कविता उद्घृत कर रही हूँ  –


एक हारी प्रतीक्षा

टिक-टिक  चलती घड़ी सी सुई
मिश्र के कैदियों सी
पत्थर का भार धोती
हृदय पर पिरेमिड बना रही है
थोड़े सी देर में
बहुत कुछ दफना दिया जाएगा
आशा ,अपेक्षा,गुंगुनाता मिलन संगीत
सब कूछ खामोश हो जाएगा
किलोपैट्रा मृत्यु का वरण करती है
संदेह सर्प सिर पर मँडराता रहेगा
अपराजित  अभिमान
ढलते सूरज की लाली में बादल जाएगा
सुंदर से ताबूत में
हरी डूब सा कोमल विश्वास है
जो जीवन की अंतिम लय तक
गर्माहट देगा ।

नारी मन

पुरइन के पत्तों पर
फिसलती बूंदों सा
नारी मन
पानी की आद्र्ता
हरियाली में डूबापन
रह रहकर कंपती
छाहों में सींजती
पंखुराया शरीर ले
करती केली गुनजन
छुई –मुई  कोमलांगी
ममता की दूधिया चाँदनी

स्रोतस्विनी स्त्री समर्पिता
को वहाँ  मिला सागर
पल –पल रिसकर
बूंद सी गई ढल
विशेषण के अभिशापों में
बांधा छ्ल से ओ मनस्विनी !

मुझे अच्छी तरह याद है –साहित्यिकी की कार्यकारिणी समिति  का गठन हो रहा था तो मुझे भी जिम्मेवारी दी गई । मैंने कहा
–न जाने मैं अपना कर्तव्य पूरी तरह निभा पाऊँगी या नहीं ।
सुकीर्ति दी ने बड़े स्नेह से मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा –शुरूआत तो होने दो -- –जरूर  कर लोगी फिर में तो हूँ ।
ऐसी थीं हमारी सुकीर्ति दी ।
एक बार वे पूना गई हुई थीं । तब उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा था । अब तो वह मेरे लिए अमूल्य निधि बन गया है। 

पूना से लिखा पत्र 



आज वे हमारे बीच नहीं हैं –बस उनकी यादें है  परंतु उनकी यादें भी साहस और शक्ति का संचार करती हैं ।

सुधा भार्गव बैंगलोर

9731552847
subharga@gmail.com









गुरुवार, 18 जुलाई 2013

साहित्यिकी संस्था कोलकाता


 लघुकथा गोष्ठी
 व 
उसकी अंतरंगता 



कोलकाता में ४० वर्ष बिताने के बाद  2 0 01 में मैं  दिल्ली आकर बस गई । उस समय तक सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुकीर्ति गुप्ता की अध्यक्षता में साहित्यिकी संस्था की स्थापना हो चुकी थी ।





 मैं कार्य कारिणी समिति में   जिम्मेवारी बखूबी निभा रही थी  कि अचानक दिल्ली आना पड़ा । लेकिन इसकी सदस्यता के कारण मैं इससे निरंतर जुड़ी रही और जुड़ी भी क्यों न रहती ----बंगाल के रहनसहन ,खान-पान  और वातावरण में पूरी तरह घुलमिल जो गई थी .। 


बार बार कलकत्ते की कवि गोष्ठियाँ याद आतीं ,साहित्यिकी की सभाएं मुखर हो उठती जहाँ वेदना -संवेदना के पट खोल ठहाके लगाने में दीन -दुनिया भुला बैठते थे । जब यादें बहुत खलबली मचाने लगीं तो 2013 से हमने वायदा किया कि नए वर्ष में कोलकता जरूर जायेंगे । हम भी वायदे के पक्के निकले --चल दिए 14 जनवरी को कलकत्ता । कुछ मित्रो को अपना प्रोग्राम पहले ही बता दिया था जो फ़ोन ,कम्प्यूटर द्वारा मुझसे जुड़े रहे । 


             वहाँ  पहुँचते ही साहित्यिकी की सचिव किरण सिपानी और रेवा जाजोडिया जी   को फ़ोन खटखटा दिए --भई  हम आगये हैं ।अब बताओ सबसे कैसे मिला जाये ?
-मैं शीघ्र ही निश्चित करके बताऊँगी ।वैसे 23तारीख को नेता जी जन्मदिन की छुट्टी रहेगी ।उस दिन अपना कोई ख़ास प्रोग्राम न बनाना ।उस दिन आपके आने की खुशी में एक गोष्ठी रखनी  ठीक रहेगी  ।लोगों को आने में सुविधा भी रहेगी ।किरण जी  की आत्मीयता का  स्वर खनखना उठा  ।
उनकी बात भी ठीक थी और हमारा तो रोम -रोम चहक उठा --आह !वर्षों बाद मिलने  -मिलाने का रंग कैसा होगा ?
मैं अपनी सहेली जयश्री दास गुप्ता के यहाँ रासबिहारी एवेन्यू में ठहरी थी यदि वह वहां न होती तो न जाने सबसे मिलना हो पात़ा या नहीं  । 



तकदीर से  रेवा जी  का घर उसके पास ही था ।अत : उन्होंने  सभा में जाने के लिए 23 तारीख   
को मुझे अपने साथ ले लिया और मैंने अपने साथियों के लिए नववर्ष की मिठाई ।
जवाहर लाल नेहरू रोड में स्थित जनसंसार  में हमें 3 बजे पहुंचना था ।कलकत्ते महानगरी की भीड़ को चीरती हमारी कार गंतव्य स्थान की और बढ़ चली । 




इस समय कार चलाना सरल न था पर रेवा जी कुशलता से चला रही थीं और कार सधे हाथों  की कठपुतली बनी हुई थी ।हमारे पहुँचने से पहले ही किरण जी  तथा कुछ सदस्य आ चुके थे ।तपाक से बड़े प्यार से मिले ।लम्बी अवधि के बाद मिल रहे थे ।ऐसा लगा दूर रहने से स्नेह धारा का वेग कुछ ज्यादा ही हो गया है ।
-क्या आप अपनी लघुकथाएँ  साथ लाई हैं ?किरण जी ने पूछा । 
-हाँ !
-हम हर माह एक गोष्ठी रखते हैं ।जिसमें साहित्यिक -सामजिक विषयों पर चर्चा होती है ।बाहर  से अतिथियों को समय -समय पर आमंत्रित करते हैं । स्थानीय विशिष्ठ व्यक्तियों को भी बुलाया जाता है ।आज के हमारे अतिथि आप हैं और परिचर्चा का विषय होगा -लघुकथाएँ -वे भी आपकी ।
मैं असमंजस में पड़  गई -अपनी -अपनी हांकना तो ठीक नहीं !परिवर्तन हमेशा सुखद होता है ।अत ;  मन ही मन निश्चय किया ,दूसरों  से भी लघुकथा सुनाने की प्रार्थना करूंगी ।

इतने में अन्य सदस्या  भी आ गईं  ।काफी अनजाने चेहरे  थे ।सुकीर्ति गुप्ता तो अस्वस्थता के कारण नहीं आ पाई थीं पर परिचितों में कुसुम जैन ,सरोजिनी शाह ,विद्या भंडारी ,विजयलक्ष्मी मिश्र आदि थे ।किरण जी ने मेरा नए सदस्यों परिचय कराया ।गर्म -गर्म चाय के सिप लेते हुए हम आपस में घुल मिल गए ।

मैंने संक्षिप्त में बताया किस तरह मैं  काव्य धारा से मुड़कर साहित्यिक विधा लघुकथा की ओर मुड़ गई ।इस सन्दर्भ में उन लघुकथाकारों का परिचय देना भी जरूरी था जिन से मुझे लिखने की प्रेरणा मिली ।उनमें बलराम ,बलराम अग्रवाल ,रामेश्वर काम्बोज ,कमल चोपड़ा आदि हैं ।
तकदीर से 2011का संरचना अंक मेरे पास था । उसमें से मुझे स्वरचित मन पंछी लघुकथा पढनी थी जिसमें एक माँ के मनोभावों को दर्शाया गया है जो विदेश में बसे बेटे और छोटी सी पोती से मिलने गई है ,वह हर परिस्थिति का सामना खुशी -खुशी करने को तैयार है । इस लघुकथा में बदलते परिवेश के अनुसार बदलती मनोवृति की झलक मिलती  है । उस पत्रिका में अनेक रचनाकारों  ने दिलचस्पी दिखाई ।इसके अलावा इंटर जाल पत्रिकाओं --हिन्दी चेतना  ,उदंती ,अविराम पर चर्चा छिड गई ,कुछ देर तक  सबको लगा उन तक कम्प्यूटर  की गति से पहुंचा जा सकता । 
विविध विषयों से सम्बंधित अन्य लघुकथाएं भी सुनी सुनाई गईं। 
पुरस्कार ( प्रकाशित -हिन्दी चेतना अंतरजाल पत्रिका लघुकथा विशेषांक  कनाडा  )
माँ (अविराम साहित्यिकी  -लघुकथा विशेषांक )
अनुभूति और परिवर्तन (ब्लॉग -तूलिका सदन sudhashilp.blogspot.com )
आदि  मैंने पढ़ीं ।

विद्या जी ने भी लघुकथा सुनाई -मंगलसूत्र ।जो नारी चेतना का प्रतीक थी ।



साहित्यिकी लघुकथा अंक के बारे में बलराम अग्रवाल ने अपने बहुमूल्य विचार दिए थे वे आगामी अंक 'व्यस्तता के बीच अकेलापन 'में प्रकाशित हो चुके हैं ।


सबके बीच मैं बहुत खुश थी ।काफी समय हो गया था ।अँधेरा घिर आया था ।चाय -नाश्ता करते समय एक दूसरे के संपर्क सूत्र लिए और अपने -अपने घरों की दिशा की ओर  बढ़ गए ।मैं, रेवा जी और किरण जी जनसंसार सभागार से साथ -साथ उतरे ।रेवा जी कार लेने  चली गईं तभी मुझे ध्यान  आया -
 -अरे फोटोग्राफी तो की ही नहीं ।
-किरण जी आप ठीक से खड़े हो जाओ ।एक फोटो तो आपकी खींच लूँ ।
मेरा मान रखने के लिए वे जहाँ थीं वहीं स्थिर हो गईं पर----



 मन में जरूर सोचा होगा --फुटपाथ पर खड़े मुझे यह क्या पागलपन सवार हो गया ।असल में उस क्षण को तो नहीं गँवाना चाहती थी ।
असल में  बीच -बीच में हम बातों में इतने मशगूल हो जाते थे कि कैमरा मोबाइल भी सोते रह गए ।
रेवा जी के आते ही कार में सवार हो गए ।वे तो कार के स्टेयरिंग को घुमा -घुमाकर अपनी कार को भयानक ट्रैफिक से निकालने के चक्कर में थीं पर अपना दिमाग कहीं और चक्कर लगा  रहा था ---जयश्री का घर आते ही रेवा जी से कहूँगी -ज़रा कार से उतरो ।मैंने वैसा ही किया -वे उतरी और मैंने उन्हें खटाक से कैमरे में बंद कर लिया ।


वे  भी मेरी  इस हरकत पर जरूर हँसी होंगी ।क्या करूँ --दिल की आवाज के आगे झुक जाती हूँ ।

रेवा जी को उस रात एक शादी में भी जाना था सो बिलम्ब किये बिना वे चल पड़ी  और  मैं भी मुट्ठी में बहुत कुछ बंद किये जयश्री के घर की सीढ़ियाँ चढ़ गई ।वह मुट्ठी आज तक नहीं खुली है ,इस डर से ---कहीं यादों के सुमन सरक न जाय  ।


* * * * *

रविवार, 28 अप्रैल 2013

प्रतिभाशाली भारतीय विद्यार्थी

एम. आई. टी.( M.I.T, U.S.A) में जाने  वाला 

 भारतीय कैम्ब्रिज छात्र 

ऋषभ भार्गव 




समय-समय पर मेधावी छात्रों के बारे में सुनने को मिलता है तो विश्वास –अविश्वास के हिंडोले में झूलते रहते हैं ।कहा जाता है  स्वामी विवेकानंद को  कुछ ही दिनों में एनसाइक्लोपीडिया के दसों भाग याद हो गए थे । स्वतंत्र इंडोनीशिया राष्ट्र के प्रथम राष्ट्रपति सुकारनो की तो याददाश्त ऐसी थी कि एक बार जो पढ़ लिया या देख लिया वह सदैव के लिए मसितिष्क पटल पर अंकित हो गया। 

कई वर्षों पहले जब बुद्धि के धनी एक  ऐसे ही  बच्चे के संपर्क में आई तो पढ़ी –पढ़ाई ,सुनी सुनाई बातों पर विश्वास  होने  लगा । यह बालक करीब ढाई –तीन वर्ष  का होगा, उसकी माँ खाना खिलाते समय इंगलिश व हिन्दी बालगीतों के ट्रान्जिस्टर मेँ कैसट्स लगा दिया करती थी जिनको वह बड़े  ध्यान से सुनता और पेट भरकर बना किसी बाल नखरों के खा भी  लेता । नतीजा यह हुआ कि उसे वे सब याद हो गई और जब नर्सरी में गया तो जो बच्चों को सिखाया जाने लगा वह उसे पहले से ही याद था । माँबाप दोनों ही सुशिक्षित ,उस पर भी डाक्टर !

डॉ राजन -डॉ रंजना
कानपुर(भारत)

शायद इसी कारण बाल मनोविज्ञान समझते हुये उन्होंने उसे आगे बढ़ाने के प्रयोजन से  उच्च स्तर  की बाल पुस्तकें घर में पढ़ाना  ठीक समझा ताकि बच्चा उकताए भी नहीं और ज्ञान के  अंकुर पनपते जाएँ  ।
घर में सभी को पढ़ने का शौक !इसके लिए भी नित नयी बाल कहानियों की पुस्तकें व सी. डी .आतीं । रिश्तों की महक से भरपूर संयुक्त परिवार में दादी –बाबा की छ्त्र छाया में वह बालक  हर जन्म दिन मनाता  ,
प्रथम जन्मदिन की केक कट रही है
दादी-बाबा के साथ!


 अनुशासन की डोर में बंधा खूब सबसे कहानियाँ सुनता, सी. डी. की सहायता से दूरदर्शन पर कोमिक्स देखता ।धीरे -धीरे ज्ञान का घड़ा भरने लगा । 

कहते हैं -पूत के पाँव पालने मेँ ही दिखाई दे जाते हैं यह बात इसके मामले में सोलह आने सच है ।

वह  तीव्र स्मरण शक्ति का बादशाह है , बचपन में ही पता लग गया था । घटना उस समय की है जब वह मुश्किल से 2-3 वर्ष का रहा होगा ,उसकी माँ कहानी सुनाने को एक पन्ना खोलकर बैठी । किताब का चित्र देखते ही उसने वह कहानी पढ़नी शुरू कर दी जो उस पेज पर लिखी थी ,माँ ने अवाक होकर दूसरा पन्ना पलटा –उसने पन्ने के अनुसार फिर बोलना शुरू कर दिया और आखिरी पंक्ति के अनुसार रूक गया  उस समय वह पढ़ना नहीं जानता था ,केवल अक्षर पहचानता था । पर कहानी सुनने से उसे वह याद हो गई थी और पता लग जाता था कि किस पेज पर क्या लिखा है 

जब भी उससे पूछो –क्या चाहिए ?केवल एक माँग—किताब !उसके पापा किताबों की दुकानों पर ले जाते ,उसके लिए किताब का चुनाव करते । 
एक बार वह अपने मम्मी –पापा के साथ किताबों की दुकान पर गया । भाग्य से मैं भी साथ थी । कोई काफी पीने बैठ गया कोई किताबों पर सरसरी निगाह ही डाल रहा था । यह बच्चा एक स्टूल पर जम कर बैठ गया और बाएँ –दायें –ऊपर के रैक से किताबें निकालता ,जल्दी –जल्दी किताब के पेज पलटकर पढ़ता और रख देता क्योंकि उसकी पढ़ने की स्पीड बहुत तेज थी । पढ़ने में इतना तल्लीन था कि अपने चारों ओर का कुछ पता ही न था । दुकानदार टकटकी लगाए इसी की ओर देख रहा था । जब उससे न रहा गया तो बोला –भैया यह दुकान है ,लाइब्रेरी नहीं

वैसे भी उसकी बातें चौंकाने वाली ही होती थीं । ऋषभ करीब रहा  होगा पाँच वर्ष का ,उसके पापा दो वर्ष को लंदन गए । साथ में वह और उसकी  मम्मी भी गईं ।उसका स्कूल में दाखिला हो गया ,नया वातावरण बहुत रास आया।  
प्यारा बचपन

कारणवश मम्मी को भारत जल्दी लौटना  पड़ा।  ऋषभ को जब मालूम हुआ कि मम्मी के साथ उसका भी टिकट ले लिया गया है ,वह अनमना हो उठा और बोला --किससे  पूछकर मेरा टिकट लिया गया ,पापा के साथ भी मैं जा सकता था ।कुछ पलों को  माँ -बाप भौचक्के से उसकी ओर देखते रहे । 

क्रिकेट ,टेबिल टेनिस का खिलाड़ी होते हुये भी यह बच्चा साधारण बच्चों से कुछ अलग था । शोर –गुल ,धूम –धड़ाका,शादियों की भीड़भाड़ से  दूर रहना ही पसंद  करता था । शांत ,मितभाषी व किताब मंडली से घिरा बच्चे का  बुद्धि बीज धीरे –धीरे पनपता हुआ प्रतिभा पुंज में परिवर्तित हो गया ।

इस प्रतिभा को जानने की जिज्ञासा जरूर होगी । यह और कोई नहीं  बल्कि मेरा नाती और ऋचा का अग्रज प्यारा भाई ऋषभ है ।
भाई-बहन
अगर चंचल मन और शैतान बचपन की थाह लेनी हो तो इन  भाई -बहन की तकरार देखते ही बनती है  ।

ऋषभ सफलता की सीढ़ियाँ लगातार पार करता चला गया और कर रहा है । उसकी प्रारम्भिक शिक्षा कानपुर (भारत )में ही हुई और सेठ आनंद राम जयपुरिया का छात्र रहा । हाई स्कूल और 12वीं कक्षा में सिटी टोंपर बनने का गौरव प्राप्त हुआ । 2011 में तो उसने आई .आई .टी. कानपुर में 24वीं रैंक लाकर कमाल कर दिया ।
 उसके रिजल्ट के समय दूसरे उत्तेजित होते हैं ,उत्साह से भर जाते हैं पर वह अपनी उपलब्धियों को बहुत सहजता से लेता है जैसे कुछ विशेष हुआ ही नहीं या उसका अंदाज उसको पहले से ही लग जाता होगा ।
ऋषभ का आई .आई. टी.जाने का पूर्ण निश्चय था पर भाग्य तो उसे कहीं और ले जाना चाहता था ।

उसके मामा जी लंदन निवासी हैं । 

रवि भार्गव
उनकी बेटी का कैम्ब्रिज इंजीनियरिंग में चयन हो चुका था । उन्होंने सुझाव दिया -क्यों न ऋषभ के लिए वहाँ कोशिश की जाए । बस पूरा परिवार चाहत के पंखों पर सवार हो इस दिशा की ओर मुड़ गया । 
जहां चाह होती है वहाँ राहें अपने आप निकल आती हैं । ऋषभ की मेहनत रंग लाई । लिखित परीक्षा और साक्षात्कार में सफलता प्राप्त कर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी ( U.K. ) गिरटन कालेज में इंजीनियरिंग में दाखिला पा ही लिया 

भारत में हर वर्ष विभिन्न स्ट्रीम –इंजीनियरिंग ,साइंस ,और हयूमनिटीज़ से कैम्ब्रिज में केवल तीन छात्रों को प्रवेश पाने का अवसर मिलता है । ऋषभ 2011 में उनमें से एक था और तकदीर से उस को  कैम्ब्रिज कॉमन वेल्थ ट्रस्ट द्वारा डॉ मनमोहन सिंह स्कालरशिप भी मिल गई ।

कैम्ब्रिज में ऋषभ अपने मित्रों के साथ 

आजकल वह इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष की पढ़ाई में व्यस्त है । कैम्ब्रिज में पढ़ाई का घमासान युद्ध तो है ही ।एक से एक टॉपर अपना  भविष्य बनाने  में लगे हैं  पर वहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भी भरमार है । जिसने कभी गाना न गाया हो वह गाना सीख जाता है जिसने कभी अभिनय न किया हो वह नाटक में भाग लेने लगता है  ! 

,

जिसने कभी डांस न किया हो उसके पैर  सुर की ताल पर थिरकने लगते हैं ।


 एक बार किसी ने पूछा -यहाँ पढ़ना भी बहुत पड़ता है और कार्यक्रमों में भाग भी लेना पड़ता है । दोनों काम कैसे करोगे ? एक ही कर सकते हो ।
 उत्तर मिला - हम दोनों करेंगे । 
-कैसे ?
-नींद कम कर देंगे । 
 तो ---यह है राज वहाँ के योग्य अपने को बनाने का । ऋषभ ने इस चुनौती को भी स्वीकार किया ।अध्ययन के साथ -साथ रचनात्मक ,व्यवहारिक व  सांस्कृतिक गतिविधितों में कोई कमी न आने दी । 

वहां की कुछ झलकियाँ ---


कैम्ब्रिज छात्रों के साथ प्रिंस चार्ल्स

वह मारा  छक्का !

ज्ञान व स्मृति का सागर 

जीवन के रंगों में है एक प्यार का रंग--
होली है !


मार्च 28 (2013 )को मुझे उसके M.I.T. यूनिवर्सिटी(  Massachusetts Institute Of Technology)   में जाने की सूचना मिली ।

M.I.T.University
U.S.A.

खुशी और आश्चर्य की रिमझिम बरसात होने लगी । खुशी इसलिए --- खुशियों के फूल  आँगन में वसंत की तरह छा गए  और आश्चर्य इसलिए कि ऋषभ अकेला नहीं जा रहा है बल्कि उसकी बहन निहारिका का भी चयन  M.I.T.के लिए हो गया है । इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष की पढ़ाई वे वहाँ  करेंगे  । 


निहारिका

कैसा संयोग है !एकही  परिवार से दो इंजीनियर कैम्ब्रिज छात्र और अब M.I.T. में भी साथ साथ । 
यह  (U.S.A.)  में है । कैम्ब्रिज और एम्. आई .टी .  के बीच एक वर्ष के लिए कुछ विद्यार्थियों की अदला बदली होती है । इस वर्ष करीब 85 ने कोशिश की थी और 15 चुने गए ।शिक्षा और रिसर्च की दृष्टि से यह विश्व की सर्वोत्तम यूनिवर्सिटी है जहाँ बुद्धि  को और  वही ज्यादा तराशने व प्रतिभा को विकसित करने  का अवसर मिलता है । 
ऋषभ भार्गव व निहारिका भार्गव जैसे छात्रों ने सिद्ध कर दिया कि  भारत माँ की संतान भी किसी से कम नहीं !जहाँ भी जायेगी  खुद चमकेंगी और रिश्तों की मधुरता ,पारिवारिक एकता व संस्कारों के उजास में अपने देश  का नाम रोशन करेगी । 


भारत माँ की संतान

* * * * *

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

सुविख्यात लघुकथाकार बलराम अग्रवाल व मीरा जी के साथ बिताये पल

बैंगलोर का वह ख़ास दिन 

4फरवरी 2013

उल्लास ,उमंग व आशाओं से भरे नए वर्ष के आरम्भ होते ही जनवरी  से बलराम अग्रवाल व् मीरा जी दिल्ली से बैंगलोर आये हुए हैं और अपने बच्चों के संसर्ग में रहकर बैंगलोरी मौसम की खुश मिजाजी का आनंद उठाने में व्यस्त हैं |




मेरा कलकत्ते जाने का प्रोग्राम बन चूका था  जब उनके आने की सूचना मिली। ,मन परेशान हो उठा कि कलकत्ते से लौटते -लौटते कही देर न हो जाये और उनसे मिलना ही न हो लेकिन जब आश्वासन मिला  कि वे 10 फरवरी को  वापस जायेंगे तब कहीं राहत मिली ।असल में राजेश उत्साही भी बैंगलोर से बाहर गए हुए हैं  ।वे   फरवरी में लौटने वाले थे और मैं 29 जनव्री को  ।इसलिए सबसे मिल मिलाकर  बलराम जी ने 10 फरवरी को  दिल्ली लौटना ठीक समझा ।


कलकत्ते से लौटते ही हमने एकदूसरे को फ़ोन और ई मेल खटखटाए और मिलने का समय निश्चित किया ।मैंने राजेश जी को भी फ़ोन किया था ताकि वे बलराम जी से मिल लें पर वे  10 फरवरी को आयेंगे ।

व्यक्ति गत रूप से तो मैं इनको पिछले तीन वर्षों से जानती हूँ ।वह भी रामेश्वर काम्बोज जी की बदौलत ।लघुकथा डॉट कॊम के जरिये तब तक मेरा उनसे परिचय हो चुका था और कविता की धरा छोड़ लघुकथा  लिखकर भेजने  लगी थी।
बलराम जी एकबार बैंगलोर आये थे ।उस समय उनहोंने काम्बोज जी से ही पूछा था -बैंगलोर में कौन -कौन हिन्दी साहित्यप्रेमी हैं ?उन्होंने उनको मेरा और मुझे उनका सम्पर्क सूत्र पकड़ा दिया ।आगामी वर्ष काम्बोज जी ने उन्हें राजेश उत्साही का संपर्क सूत्र पकडाया जो मुझे दे दिया गया ।क्या इत्तफाक है !
लेकिन ----अग्रवाल जी के  रचना संसार से  मैं पहले से ही अवगत थी ।
कैसे ?
इसके पीछे  भी एक लघुकथा है ।

2007 में जब तीन मास को लन्दन आई तो मेरे सामने प्रश्न था किस तरह समय खूबसूरती से बिताया जाय ।इसी तलाश में हौंसलो लाइब्रेरी(treaty centre) गई ।वहां बलराम के कई लघुकथा संग्रह देखे ।बीसवीं सदी की लघुकथाएं पढीं ।पढने में बड़ा आनंद आया ।दो मिनट में चटपट ख़तम और सोचने के लिए बहुत कुछ । कुछ तो हमेशा के लिए मास्तिष्क पटल पर अपनी छाप छोड़ गईं जैसे सर्वोत्तम चाय ,नागपूजा आदि ।इन्हें तो मौके के अनुसार सुनाने से नहीं चूकती ।तभी से साहित्य की इस विधा से ऎसी जुड़ी की अधिक से अधिक लघुकथाएं पढ़ने लगी मनभावन लघुकथाओं को उनके लेखकों सहित डायरी में नोट कर लेती ।इस अंतराल मैंने जाना कि बलराम अग्रवाल जी लघुकथा जगत के ऐसे हस्ताक्षर हैं जो कलम  के धनी होने के साथ -साथ लघुकथा की परख -समझ ही नहीं रखते अपितु ब्लॉगस ,अनुवाद ,सम्पादन व् महत्वपूर्ण लेखों ,-वार्ताओं द्वारा साहित्य की इस विधा को बहुत कुछ दिया है ।

वे जहाँ ठहरे हुए हैं वह जगह मेरे निवास स्थल सर्जापुर रोड  से काफी दूर है पर वे कष्ट उठाकर पिछले सोमवार (4फरवरी ) को मीरा जी सहित मुझसे मिलने आये ।
घर पर उनका दूसरा ही रूप था -मिलनसार ,मैत्रीपूर्ण व् भ्रातृत्व भावना से ओतप्रोत सहजता सरलता ।

     जैसी सोच वैसे विचार ,जैसे विचार वैसा ही लेखन -यह कथन उनके एकांकी नाटक शिवाजी की बहन  पर खरा उतरता है ।आज ऐसे ही 
  
 नाटकों के  लिखने और मंचन कीआवश्यकता है जो बच्चों में स्नेह की गंगा बहा सके और देश के प्रति उन्हें अपने कर्तव्य की याद दिलाये।
मैंने तो इनका यही एकांकी पढ़ा है जो हाल  में बालवाटिका पत्रिका में प्रकाशित हुआ है ।अवसर मिलने पर इनके अन्य  एकांकी भी पढ़ डालूंगी |

लंच के बाद हम आराम से साहित्य चर्चा करने बैठ गए ।


 कलकत्ते से निकलने वाली साहित्यिकी हस्तलिखित पत्रिका    के लघुकथा विशेषांक पर बलराम जी ने अपने अमूल्य विचार व्यक्त किये थे ।इसके लिए इस पत्रिका के सब सदस्य बहुत आभारी हैं ।आगामी अंक -व्यस्तता के बीच अकेलापन -में उनके विचार  प्रकाशित होंगे ।

कलकत्ते से चलते समय विद्या भंडारी ने अपना लघुकथा संग्रह मुझे दिया था ताकि वरिष्ठ लघुकथाकारों से इसके बारे में सुझाव या उपयुक्त दिशा पा सकूँ ।उस पर भी बातें हूई।

पिछली बार जब बलराम जी से मुलाक़ात हुई थी तो  सुझाव दे गए थे  -वर्ल्ड आफ चिल्ड्रनस लिटरेचर  के सदस्य बन जाओ ।सच में इस सदस्यता से मुझे बहुत लाभ हुआ और अनेक बालसाहित्यकारों की जानकारी मिली ।
इस बार भी सोचा कुछ ऐसा ही मन्त्र हाथ लगेगा  उनकी संगत में ,पर कुछ याद नहीं पड़ रहा ।हाँ !फैमिली ट्री  बनाना जरूर सिखा  गए हैं ।सोच रही हूँ इसका भी उपयोग किया जाय।ज़रा फैमिली ट्री  ख़तम कर लूँ फिर फ्रेंड्स ट्री  बनाऊँगी ।

मीरा जी  ने रसोईघर में मेरा हाथ बँटाया ।घंटों का काम मिनटों में हो गया । इतना अपनापन व् आत्मीयता का संगम था कि मुझे ज़रा भी आभास नहीं हुआ कि वे मेहमान हैं ।प्रतीत हुआ घर के सदस्यों से अनुराग भरी नि:संकोचता की डोर से बंध  गई हूँ ।

मैंने एक बात महसूस की जिससे मुझे बहुत खुशी मिली ।मीराजी  अपने पति के लेखन संसार से पूर्णतया परिचित हैं और वे उनके सृजन में रूचि लेती हुई भरसक सहयोग देने की कोशिश करती हैं ।इस नजरिये से बलराम जी बहुत भाग्यवान हैं ।

हँसते- खिलखिलाते .साहित्य की गहराई में डूबते -उतराते काफी समय बीत  गया ।बलरामजी चलने के लए उठ खड़े हुए ।आते तो सब अच्छे लगते हैं पर जाते हुए कॊई नहीं ।इसीकारण उन्हें   रोकने  की कोशिश में बोली -कुछ फोटोग्राफी हो जाय और एक -एक कप चाय ।
चाय का सिप लेते समय स्वर्गीय  इंदु जैन का एक वाक्य  रह -रहकर घुमड़  रहा था  -भागदौड़ की जिन्दगी में सुकून पाने के लिये  इतना समय जरूर होना चाहिए कि दोस्तों के साथ बैठकर एक कप चाय पी ली जाय ।

अब अग्रवाल दम्पति का और रुकना नामुमकिन था ।काफी लंबा सफर तय करने के बाद उन्हें अपने गंतव्य स्थान पर  भी पहुँचना था ।
उनके जाने के बाद कम्प्यूटर से स्काई पी ,,ईमेल ,फेसबुक और ब्लोग्स झाँक -झाँककर मोबाइल फ़ोन से कहने लगे -भइये ,हमने मिलकर दुनिया बड़ी छोटी कर दी है ।न जाने कौन -कहाँ -किस्से टकरा जाये इसलिए बस एक सूत्र में बंधे  रहो ।




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मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

मेरा कलकत्ता -- मेरे दोस्त

  
 यादों के नए परिधान

नए साल  2013 ने जैसे ही धरती पर अपने   कदम  बढ़ाये मैंने अपने से वायदा किया कि  यादों के शहर में जरूर  जाऊँगी  जहाँ जिन्दगी के सबसे अनमोल चालीस साल बिताये ।वह है कोलकता शहर जहाँ के  खट्टी मीठे अनुभवों का गुच्छा सदैव अपने साथ रखती हूँ ।






14 जनवरी को  वहां पहुँचते ही फ़ोन खटखटाने शुरू कर दिए ताकि ज्यादा से ज्यादा मित्रों से मिला जा सके ।इस में मेरी सहेली जयश्री दास गुप्ता ने मेरी  बहुत मदद की ।कहते हैं --अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता --अगर वह नहीं होती तो मेरी यात्रा सफल न हो पाती ।मैं उसी के  निवास स्थान पर रुकी थी ।



मैंने उसके साथ बिरला हाई स्कूल में 22 वर्षों तक साथ -साथ पढ़ाया ।22वर्षों में इतनी बातें नहीं हुई होंगी जितनी दो हफ्ते में हम दिल खोल बैठे ।हर पल छाया की तरह मेरे साथ रहती ।मजाल है कहीं अकेली तो चली जाऊं ।कौन कहता है रिश्ते जन्म से होते हैं ,रिश्ते तो बनाये जाते हैं जिसकी धुरी केवल निश्छल प्रेम ही होती है ।और हाँ उसने मुझे खूब सन्देश और मिष्टी दही खिलाया ।




कभी -कभी तो चिंता में पड़  जाती थी कि कहीं कमर कमरा न हो जाए पर यही सोचकर --चार  दिन की चांदनी फिर अँधेरी  रात --पटापट खा जाती  ।यही नहीं --जिस मित्र  के जाती वहां भी सन्देश खाने को मिलता ।

कितने समझदार हैं मेरे मित्र --!जानते हैं जबसे मेरा कलकत्ता छूटा सन्देश के नाम से ही भूखे ब्राह्मण की तरह लार टपकने लगती हूँ ।

सबसे पहले सत्यवती तिवारी जी से  मैंने मिलना चाहा ।वे बिरला हाई  स्कूल में मेरी सीनियर रह चुकी हैं। हम दोनों ही हिन्दी पढ़ाते  थे पर मैंने अध्यापन के दौरान उनसे बहुत कुछ सीखा ।  ।जयश्री रासबिहारी एवेन्यू में रहती है और सत्यवती जी टालीगंज में ।उनके घर जाना हमें कठिन लगा ,हम बड़ी दुविधा में पड़े थे पर सत्यवती  जी ने हमें उबार लिया ।निश्चय हुआ कि  वे हमें लेने आ जायेंगी ।

वे समय पर लेने आ गईं पर कार टालीगंज की तरफ न मुड़कर मिन्टोपार्क की ओर मुड़  गई और बिरला हाई स्कूल दिखाई दिया  |



लगा अभी नटखट -मासूम बच्चे दौड़कर आयेंगे और चिल्ला उठेंगे --हिन्दी मिस --हिन्दी मिस ।


यह वही विद्या का मंदिर है जहाँ योग्य शिक्षक- शिक्षिकाओं  के प्रयास से मेरे दोनों बेटे  रवि -रजत उन्नत पथ पर अग्रसर हुए रजत  सीनियर स्कूल में कक्षा ,6,7,8,में लगातार प्रथम पोजीशन लाया  और मुझे विशेष अतिथि बनने  का सुअवसर मिला ।मैंने उस वर्ष के मेधावी छात्रों को इनाम वितरित किये ।



जड़ें तो उनकी जूनियर हाई स्कूल में ही जम चुकी थीं और उन दिनों  वहां की प्रिंसपल मिसेज एन . बाली थीं जो सर्वगुण संपन्न .कर्तव्यनिष्ठ व् साहसी महिला हैं |



वे दिन उमड़ घुमड़कर शीतल बूंदों की बरखा करने लगे जब  हम हर क्षेत्र में कूद पड़ते थे  ---
चाहें वह खेल का मैदान हो 




चाहें मंच हो




और चाहे साथियों  के स्वागत का समय हो या उनकी विदायगी का ।




 कार आगे बढ़ गई ।खरगोश से फुदकते ख्याल पीछे ही छूट गए ।
दो मिनट के बाद ही गोविन्द रेस्टोरेंट के आगे कार रुक गई ।

-अरे हम यहाँ कहाँ ?मैं आश्चर्य में थी ।
-यह सेंटर प्लेस हैं और मेरा घर एक कोने में पड़  जाता है ।यहाँ अन्य   सहेलियाँ   भी मिलने आ सकेंगी ।स्कूल में हमारे समय की  कुछ ही शिक्षिकाएं  हैं ।फ्री पीरियड होने पर वे भी यहाँ तक पहुंच सकेंगी  ।फ़ोन से उन लोगों को  सूचना  दे दी गई  है ।सत्यवती जी बोलीं ।
मुझे उनकी बुद्धि की दाद देनी पड़ी ।मेरी खोपड़ी में यह विचार आया ही नहीं  ।असल में सीनियर सीनियर ही रहते हैं । 

गोविन्द रेस्टोरेंट पहुँचते ही सविता महरोत्रा दिखाई दीं । चहरे पर प्रशासकीय गरिमा की छाप थी ।वे अब भी स्कूल में प्रशासकीय विभाग में अति मुस्तैदी से अपना कर्तव्य पूर्ण कर रही  हैं ।

कुछ ही देरी में सुमन महेश्वरी व् रीता  कपूर भी  स्कूल से आ गये। पहले जी  भर गले मिले ।चेहरे से खुशी टपकी पड़ती थी ।दिल की धडकनें उसकी गवाह थीं ।रीता  तो जल्दी चली गई क्योंकि उसे क्लास लेनी थी पर कुछ ही देर में बहुत कुछ दे गई अपना असीमित स्नेह

लंच करते -करते दो2-3घंटे कैसे गुजर गए पता ही नहीं लगा ।सब एक दूसरे के परिवार की खुशहाली व् वृद्धि के बारे में जानने  को उत्सुक थे ।पता लगा  हम सबको कई उपाधियाँ  मिल गई हैं ।कोई दादी माँ बन गया है तो कोई  नानी माँ --कोई  बड़ी माँ  बनने  का सपना संजो रहा है ।

विभिन्न विचार ,विभिन्न व्यक्तित्व के होते हुए भी समरसता का अभाव  न था ।.
पुरानी यादों को एक नया अम्बर मिल चुका था ।सदैव जुड़े रहने के लिए ईमेलआई डी ,मोबाइल न .का आदान प्रदान हुआ ।मीठी -मीठी  यादों पर समय की धूल न पड़ने का संकल्प करते हुए हम अपनी -अपनी दिशा  की ओर बढ़ गए

सपना मुखर्जी अस्वस्थ होने के कारण मिलने न आ सकी ।इंग्लिश पढ़ने वालों में उसका अच्छा -खासा नाम था। मैं और जयश्री उससे मिलने गए ।कोयल सी मीठी आवाज में उसने हमारा स्वागत किया ।हमें देखते ही उसके चेहरे पर हजार गुलाब खिल गए ।तबियत ठीक न होने पर भी उसने घर पर ही लंच बनाया ।आह !दही बड़े तो लाजवाब थे ।होते भी क्यों न !वे दही बड़े के अलावा और भी बहुत कुछ थे ।जबसे उससे जुदा हुई हूँ उसके स्वास्थ्य के लिए ईश्वर से दुआ करती हूँ ।

रीता खंडेलवाल से भी मिलना हुआ ।पिछले माह ही रिटायर हुई है पर वही हँसमुख गोल -गोल चेहरा ----।हँसे तो लगे चारों ओर  चांदनी छिटक गई है ।हम पहुंचे तो उसकी  प्यारी सी पोती ने शर्माते हुए  नमस्ते की ।उसकी हिचकिचाहट  दूर करने के उद्देश्य से  मैंने उसके खेल खिलौनों व् कहानी की पस्तक के बारे में बातें करनी शुरू का कर दीं ।उसने मुझे अपनी ड्राइंग भी दिखाई ।फिर तो मैं उसकी अच्छी दादी बन गई  ।उसके हाथ की बनी चाट और घुघनी  खाने का मन बहुत था ।स्कूल में अक्सर वह बनाकर लाती थी और हम सबको बड़े शौक से खिलाती ।समय अभाव्  के कारण मेरे कहने की हिम्मत नहीं पड़ी ।

हँसी -मजाक ,सुखद -दुखद घटनाओं की बयार ऐसी चली की 3-4 घंटे फुर्र से उड़ गए ।
शाम की चाय के साथ उसने घर में ही बहुत स्वादिष्ट व्यंजन बनाए थे ।इसमें उसकी  बहूरानी का भी हाथ था , इसलिए   ज्यादा ही स्वाद   आया ।छोटे  जब  बड़ों  को  कुछ बनाकर  खिलाते है तो उसकी कुछ और ही बात होती है ।  
हमने स्वाद ले-लेकर खाया और स्वत :ही प्रशंसा के बोल फूट पड़े ।भविष्य से अनजान होते हुए भी हमने - बार -बार मिलने का वायदा  किया और  साँसों में घुली माधुर्यता  का अह्सास करते चल पड़े

 बिरला हाई स्कूल के कुछ मित्र साल्ट लेक में बस गए थे ।उनसे न मिलना का मलाल अंत तक रहा ।कुछ दूरी थी कुछ मजबूरीथी और कुछ महानगरी की माया थी ।हाँ फ़ोन से जरूर मिलन का साज सजाते रहे ।

चित्रा भास्कर का फ़ोन आया था  -मिसेज भार्गव आप कलकत्ते हैं ---।मैं आपसे जरूर मिलती पर मिल नहीं  सकती ।यू. एस .ए आई हुई हूँ बेटे के पास ।मेरे लिए यही बहुत था ।भाग -दौड़ की इतनी व्यस्त जिन्दगी में उसने मुझे याद किया ।फेसबुक जिंदाबाद !उस पर तो इनसे मिलना हो ही जाता है ।

अतीत में नयेपन का खुमार इतना ज्यादा रहा कि  बैंगलौर आने के बाद कई दिनों तक मेरे मानस पटल पर वह छाया रहा और मैं उसे धूमिल भी नहीं होने देना चाहती क्योंकि जीवन में विविध रंग भरने के लिए दोस्तों का भी होना निहायत जरूरी  है ।   





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सोमवार, 3 दिसंबर 2012

बारहवाँ पन्ना (अंतिम)

किशोर की  डायरी / सुधा भार्गव 







माँ-----मैंने अपने मन की हलचल के बारे में आपको कभी नहीं बताया ।मेरे ह्रदय का हाहाकार आपने कभी नहीं सुना ।भावनाओं की भीड़ में मैं खो गया पर आपने  मुझे ढूंढने की कोशिश नहीं की ।मुझ में जो परिवर्तन हो रहे थे यदि आप चाहती तो मेरी आँखों में झांककर ही देख सकती थीं ,मेरे मनोभावों को पढ़ सकती थीं पर मेरी तो हमेशा अवहेलना की गई ,उपेक्षा की दीवार में जीतेजी चुन दिया ।बीच -बीच में व्यंग भरी तीरों से छेदते  रहे ।ऎसी उम्मीद न थी आपसे ।

कल बीत गया पर मैं अपना कल नहीं भूला हूँ ।कैसे भूल जाऊं -----उमंगों पर छिडका तेजाब ,कल्पना की टूटी सुनहरी कमान ।  

मैंने जब भी फूल से  गीतों को गुनगुनाया ,आपने झटके से उनकी कोमलता छीन  ली ।ऐसा करने से मैं जगह -जगह से जख्मी हो गया हूँ ।यह  आपको और पापा को  दिखायी  देने वाला  नहीं ।जख्म  बाहर  नहीं --मेरे अन्दर ---मेरे दिल में हैं ।ये घाव जल्दी भरने वाले नहीं ।भर भी गए तो दुखन तो देते ही रहेंगे ।

मैंने तो पैदा होते ही सुना था --आप लोग बड़े हैं ।जब मैं बड़ा होने लगा तो सहा नहीं गया ।यह न समझना --आप हर हालत में मेरा प्यार पाने के अधिकारी हो ।यह कम भी हो सकता है --।पर मैं ऐसा होने नहीं दूंगा क्योंकि इसका नतीजा जानता हूँ । जिस तरह से बिना आपके प्यार के मैं तड़प रहा हूँ उसी प्रकार आप तड़पोगे और यह मैं देख नहीं सकता ।फिर एक बात और है जैसा आपने किया वैसा मैं भी करने लगूँ तो आपमें और मुझमें अंतर ही क्या रह जाएगा ।नहीं --नहीं मैं इतिहास नहीं दोहराऊँगा ।

जन्मदाता--- मैं घर छोड़ रहा हूँ ।सुना ---- आपने !मैं---जा रहा हूँ। बस एक बार कह दो --आज का दिन मंगलमय हो ।मेरे पंख निकल आये हैं ।हर दिशा में उडूँगा --उड़कर देखूँगा मेरी जीत कहाँ छिपी है ।छोटी हो या बड़ी अपनी लड़ाई स्वयं लडूँगा ।मुझे ,न रोकना न आँसू बहाना ।मुझे अपना रास्ता ढूँढने दो ।मैं बहती हवाओं को देखना ,छूना चाहता हूँ ।उनके इशारे समझना चाहता हूँ ।ऐसे में  संदेह और खौफ की खिचडी  दिमाग में पक सकती है ,खतरे की घंटियाँ नींद उड़ा सकती हैं ।
मुझे इन सबकी परवाह नहीं --मैं अपनी हँसी के लिए हँसूँगा ---अपनी खुशी के लिए नाचूँगा ।सोच रहे हो बहुत बोलता हूँ लेकिन बोलने दो ---।

मैं अपना संसार खोजने जा रहा हूँ ।बिखरे ---टूटे--- सपनों को भी बटोरना है ।जहाँ भी जाऊंगा आपकी यादें साथ रहेंगी ।उनसे निकलता प्रकाश ही मेरे लिए काफी है जो मेरे रास्ते के अँधेरे  को मिटाता चला जाएगा ।

विकास मंच की ओर कदम उठ रहे हैं ---बढ़ रहे हैं ।भूले से भी न टोकना न आवाज देना --थोड़ा संतोष  रखना ।एक दिन मैं लौटूँगा  अवश्य लेकिन कुछ बनकर जिससे आप गर्व से कह सकें --यह मेरा बेटा है |


समाप्त