घुमन्त परिवार की व्यथा
सुधा भार्गव
पत्रिका में प्रकाशित
पिछले साल मैं ऋषिकेश घूमने गई थी । वहाँ गंगा के किनारे ऊंचे से टीले पर बने होटल में ठहरी। होटल से बाहर ही कुछ दूरी पर बांस की बनी झोंपड़ियाँ थीं। मानों वे मुझे पुकार पुकार कर अपनी ओर बुला रही हों। मैं चुंबक की तरह उनकी तरफ खिंचती चली गई। जैसे जैसे मैं उनके नजदीक आ रही थी मुझे सालों पहले का वह सूप याद आने लगा जिससे नायन काकी गेंहू फटका करती थी। और माँ रोटी बनाकर पीली सी बाँस की तीली से बुनी टोकरी में कपड़े में लपेटकर उन्हें रखती थी। वे रोटियाँ गरम - नरम बनी रहती थीं। । मुझे बाँस के छिलकों से बनी वह सुंदर जालीदार पिटारी भी याद आने लगी जिसमें अपनी गुड़िया के कपड़े रखती थी।
होटल का कर्मचारी झब्बू मेरे साथ था । उसने एक झोंपड़ी की तरफ इशारा करते हुए कहा-इस झोंपड़ी का नाम बसंती है । मैडम यह झोंपड़ी पूरे बांस की बनी है। इसकी दीवार देखिये, कितनी खूबसूरत है। बांस की शीट से कारीगर ने इसे बड़ी मेहनत से बनाया है।आज तो गर्मी भी बहुत है। मगर इसमें रहने से आपको ठंडक महसूस होगी।
वह क्या कह रहा है मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। मैं तो अपने ही ख्यालों में व्यस्त थी । उसे नहीं मालूम था कि मेरा तो इससे पुराना परिचय है। अंदर जाकर बसंती को मुग्धभाव से निहारने लगी । जितनी वह बाहर से आकर्षक थी उतनी ही अंदर से मन मोह रही थी। पलंग लकड़ी और बांस का बना था । पर सिरहाने बास का जालीदार छत्र लगा था। कोने में बांस से बुना हाथ से हवा करने वाला पंखा रखा था जिसमें लाल पट्टी भी थी। उसे देखते ही मुझे लगा- हो न हो यह वही पंखा है जिसे बिजली चले जाने पर मैं बहुत पहले इस्तेमाल करती थी। मैंने उसे हाथ में लिया और उलट-पलट कर बड़ी आत्मीयता से देखने लगी। पास में दो आराम दायक मुड्ढे देख बाबा की बैठक के मुड्ढे याद आने लगे। । मैं उसके ऊपर आराम से बैठ गई और पैर उचकाकर मुड्ढे को आगे पीछे करने लगी । तभी आवाज आई -'लाडो पीछे को गिर न जइयो।' मैं पीछे मुड़ी । शायद आँखें माँ को खोज रही थी। । झब्बू सोच रहा होगा -'मैडम ने शायद पहली बार मुड्ढा देखा है तभी बच्चों की सी हरकत कर रही है।' मैं झेंप सी गई। अपनी झेंप मिटाने को बोली - "झोंपड़ी की बुनावट तो बहुत सुंदर है। लग रहा है इस पर बसंत छा गया है।'
झब्बू का चेहरा चमक उठा-"मैडम तभी तो इसका नाम बसंती है। मेरे बाबा इस कारीगरी के उस्ताद हैं। बसंती का जन्म उन्हीं के हाथों हुआ। मैं बाँसफोड़ परिवार से हूँ । मेरी माँ तो बचपन से ही बड़ी बारीकी से चटाई में डिजायन डालकर बुनती है। बहन की तो कुछ पूछो ही मत । कैची माफिक उसके हाथ चले हैं । मिनटों में बांस की टोकरी बना कर दिखा देवे है।" वह बेतकल्लुफ हो सहजता से अपनी भाषा में बात करने लगा।
"अच्छा --।" मेरी आँखें आश्चर्य से फैल गई।
"मैं भी छोटा- बड़ा मूढ़ा बना ही लू हूँ । उसे बनाने में बड़ा मजा आवे है। अब तो यह काम छोड़ सा दिया है। " सिर पर एक हाथ रखकर उसने गहरी सांस ली। ।
"क्यों झब्बू ?जितना करेगा उतना ही हाथ साफ होगा।"
" मैडम जी यह तो मैं भी जानू हूँ। पर बिके तब न। जबसे इस कम्बक्त प्लास्टिक का जन्म हुआ तब से हमारे बुरे दिन आ गए। कुर्सी तो प्लास्टिक की ,डोलची तो प्लास्टिक की। चारों तरफ प्लास्टिक की चीजों की धूम मची है ।इनकी आँखमिचौनी में अब हमारा सा मान कौन खरीदे है। गुन का कोई गुनी नहीं। हुनर होते हुए भी ,काम जानते हुये भी रोटी रोटी को मोहताज हो गए हैं, मुझे ही देखो !अपना घर बार छोड़ नौकरी को दर -दर भटक रहा हूँ। बापू को कभी -कभी बांस का काम मिल जावे है बाकी दिन फाँका बाजी। गाँव का घरबार तो छुट सा गया। बूढ़ा बाबा उसमें बैठा खाँसता रहे हैं और बुढ़ऊ दादी से झगड़ा करता रहवे हैं।"
"तुम्हारे माँ -बाप उनके साथ नहीं रहते।"
'कहा न मैडम हमारा ठहरा घुमन्त परिवार । वो तो बैलगाड़ी में बैठ घूमते रहवें जहां कम मिलने की आशा हो वही पड़ाव डाल लेवे हैं। सब काम रुक सकें पर भूख तो न रुके। "
"हाँ हाँ याद आया झब्बू । मैं बचपन में कभी माँ के साथ तो कभी मौसी के साथ चामुंडा देवी के मंदिर जाती थी। मंदिर चामुंडा पहाड़ी पर था। बड़ी ऊंचाई पर था। रास्ता कच्चा और टेड़ा मेढ़ा ढलान वाला । हिचकोले खाते गाना गाते बैलगाड़ी में हम जाते । बड़ा मजा आता था। खूब धूल उड़ती । पर किसे परवाह थी! बैल भागते हुए हमें मंदिर ले ही जाते।"
"देवी की पूजा तो गर्मी में होती है।"
"हाँ बड़ी गर्मी होती थी। पर बैलगाड़ी में छाँव के लिए उसके ऊपर बांस का बना टट्टा लगा रहता था।"
"मैडम जी अब तो वे दिन लद गए जब हमारी बनी चीज की कदर होवे थी।
एक और मुसीबत में जान अटक गई है। ये कोरोना ,उफ ! मैडम जी इस कोरोना ने तो जीना दूभर कर दिया। मेरा बूढ़ा बाबा हड्डियों का ढांचा रह गया है। पर बड़ी उम्मीद लगा के रावण के पुतले बनाने में लग गया है। दशहरा जो आने वाला है । अगर रावण न बिके तो मेरा बाबा तो जीते जी मर जाएगा। भूख तो सह ले पर अपने हुनर का अपमान उससे सहा न जावे। अपने कु बहुत बड़ा कलाकार समझे हैं । अरे उसके समझने से क्या होवे है। दूसरे समझे तब न !कितनी बार उसे समझाया पर समझे तब न!
अब तो शादी ब्याह भी नाम को होवे हैं। न गाजे बजे न बारात सजे , न घोड़ी न ढोल -शहनाई । पूजा पाठ और रीति रस्मों में बांस की बनी चीजों की खूब खपत थी ।अब तो मैडम जी उससे भी गए।"
उसकी व्यथा को सुन मैं हिल सी गई। उसकी मदद करने का निश्चया किया।
"अच्छा जगन एक बात बताओ- एक झोंपड़ी के बनने में कितने दिन लगते होंगे?"
"10 दिन मैडम जी ।"
"और खर्चा कितना पड़ता होगा ।"
"करीब 35 हजार का।"
"अच्छा अभी तो मैं आराम करूंगी । शाम को आना तब इस पर बात करेंगे।" मुझे सोचने के लिए कुछ समय चाहिए थे । इसलिए उसे उस समय टाल दिया।
झब्बू ने कंधे पर पड़े अंगौछे के एक कोने से पसीना पौंछा और दूसरे कोने से हवा करता हुआ चला गया। जाते जाते आगाह कर गया ,'मैडम जी कुछ जरूरत हो तो तुरंत काउंटर पर फोन कर देना।'
वैसे मेरा ध्यान रखना उसकी ड्यूटी मेँ था। कुछ ही देर में हम इस तरह से जुड़ गए थे कि उसका दर्द मुझे अपना लगने लगा ।मैं भी एक चित्रकार हूँ और जानती हूँ जब कोई मेरे सृजन का अपमान करता है या उपेक्षा की नजर से देखता है तो कितना कष्ट होता है ।
सुना था झारखंड की सरकार वियतनाम बैम्बू ट्रेनिंग को कुछ कारीगरों को भेज रही है। मैं उसे वियतनाम तो नहीं भेज सकती थी पर जरूर कुछ ऐसा कर सकती थी ताकि उसका पुश्तैनी धंधा बचा रहे। इसी उधेड़ बुन में नींद लग गई। और जब उठी तो एकदम ताजा थी।
शाम को 5बजे दरवाजे की घंटी बजी। झब्बू खूबसूरत से केन की ट्रे में चाय लेकर हाजिर हो गया।
चाय पीते पीते बोली -"झब्बू तुम मेरे शहर चलोगे।"
"मैडम जी मैं वहाँ क्या करूंगा?ज्यादा पढ़ालिखा नहीं। क्लास पाँच की है । मुझे वहाँ कौन नौकरी देगा?
"मैं दूँगी। "
"आप --अप मैडम जी । "
"हाँ ,मेरा छोटा सा कारख़ाना है। उसे बढ़ाने की सोच रही हूँ। क्यों न उसमें बांस की चीजें बनाई जाएँ।"
" कौन पसंद करेगा उन्हें मैडम ।"
"सब करेंगे झब्बू !अगर काम बढ़िया होगा। लेकिन तुम्हें ट्रेनिंग लेनी होगी।"
"मतलब स्कूल जाकर सीखना होगा।"
"अरे नहीं --स्कूल जाने की तुम्हें जरूरत नहीं। तुम्हारे घर में बहुत होशियार मास्टर जी है।"
मेरे घर में! पेशोपेश में पड़ा झब्बू अपना सिर खुजाने लगा। मेरे घर में बाबा --दद्दी है। माँ बापू है। मगर मास्टर जी --।!
"मैडम जी मैं तुम्हारी बात न समझ सकूँ। छोटी बुद्धिवाला ठहरा। अब बता ही दो ये मास्टर जी कौन हैं?"
"अरे तुम्हारे बाबा --। तुम्ही तो बता रहे थे। उनके हाथ में जादू है जादू --। जिस पर हाथ रख दें वही जगमगा उठे।"
"हाँ बात तो सुच्ची है। मेरे दिमाग में इतनी सी बात न आई।"
"तो बस मेरे जाने के बाद रोज उनसे काम सीखो। सीखने के लिए एक महीना बहुत । वेतन के अलावा तुम्हें वहाँ खाना -पीना मिलेगा । रहने को कारखाने के पीछे कमरे बने हैं। माँ -बाप को काफी पैसा बचाकर भेज सकते हो।"
"मैडम जी आप मुझे सपना दिखा रही हो!" ।
"सपना ही समझ लो पर उसे सच तो तुम्हें अपनी मेहनत और होशियारी से करना है।"
झब्बू खुशी से उछल पड़ा। "मैडम जी मैडम जी आप तो देवी हैं। मैं यह खुशखबरी अपनी माँ को सुना आऊँ।" वह बच्चे की तरह दौड़ता आँखों से ओझल हो गया।
समाप्त
28/4/2021
सुन्दर
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