रविवार, 18 अगस्त 2024

संस्मरण -बांस बसंती

           

  घुमन्त परिवार की व्यथा 

सुधा भार्गव 


पत्रिका में प्रकाशित 

पिछले साल मैं ऋषिकेश घूमने गई थी । वहाँ गंगा के किनारे ऊंचे से टीले पर बने होटल में ठहरी। होटल से बाहर ही कुछ दूरी पर बांस की बनी झोंपड़ियाँ थीं।  मानों वे मुझे पुकार पुकार कर अपनी ओर बुला रही हों।   मैं चुंबक की तरह उनकी तरफ खिंचती चली गई। जैसे जैसे मैं उनके नजदीक आ रही थी मुझे सालों पहले का वह सूप याद आने लगा जिससे नायन काकी गेंहू फटका करती थी। और माँ रोटी बनाकर पीली सी बाँस की तीली से बुनी टोकरी में कपड़े में लपेटकर उन्हें रखती थी।  वे रोटियाँ  गरम - नरम बनी रहती थीं। । मुझे बाँस के छिलकों से बनी वह  सुंदर जालीदार  पिटारी भी याद आने लगी जिसमें अपनी गुड़िया के कपड़े रखती थी।

    होटल का  कर्मचारी झब्बू  मेरे साथ था । उसने एक झोंपड़ी की तरफ इशारा करते हुए कहा-इस झोंपड़ी का नाम बसंती है । मैडम यह झोंपड़ी पूरे बांस की बनी है। इसकी दीवार देखिये, कितनी खूबसूरत है। बांस की शीट से कारीगर ने इसे बड़ी मेहनत से बनाया है।आज तो  गर्मी भी बहुत है।  मगर इसमें रहने से आपको ठंडक महसूस होगी।  

     वह क्या कह रहा है मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। मैं तो अपने ही ख्यालों में व्यस्त थी । उसे नहीं मालूम था कि मेरा तो इससे पुराना परिचय है।  अंदर जाकर बसंती को मुग्धभाव से निहारने लगी । जितनी वह बाहर से आकर्षक थी उतनी ही अंदर से मन मोह रही थी। पलंग लकड़ी और बांस का बना था । पर सिरहाने बास का जालीदार छत्र लगा था। कोने में बांस से बुना हाथ से हवा करने वाला पंखा रखा  था जिसमें  लाल पट्टी भी थी।  उसे देखते ही मुझे लगा- हो न हो यह वही पंखा है जिसे बिजली चले जाने पर मैं बहुत पहले इस्तेमाल करती थी। मैंने उसे हाथ में लिया और उलट-पलट कर बड़ी आत्मीयता से देखने लगी। पास में दो आराम दायक मुड्ढे  देख बाबा की बैठक के मुड्ढे याद आने लगे। । मैं उसके ऊपर आराम से बैठ गई और पैर उचकाकर मुड्ढे को  आगे पीछे करने लगी । तभी आवाज आई -'लाडो पीछे को गिर न जइयो।' मैं पीछे मुड़ी । शायद आँखें माँ को खोज रही थी। । झब्बू  सोच रहा होगा -'मैडम ने शायद पहली बार मुड्ढा देखा है तभी बच्चों की सी हरकत कर रही है।' मैं झेंप सी गई। अपनी झेंप  मिटाने को बोली - "झोंपड़ी की बुनावट तो बहुत सुंदर है। लग रहा है इस पर बसंत छा गया है।' 


     झब्बू  का चेहरा चमक उठा-"मैडम तभी तो इसका नाम बसंती है। मेरे बाबा इस कारीगरी के उस्ताद हैं। बसंती का जन्म उन्हीं के हाथों हुआ। मैं बाँसफोड़ परिवार से हूँ । मेरी  माँ तो बचपन से ही बड़ी बारीकी से चटाई में डिजायन डालकर बुनती है। बहन की तो कुछ  पूछो ही मत । कैची माफिक उसके हाथ चले हैं । मिनटों में बांस की टोकरी बना कर दिखा देवे है।" वह बेतकल्लुफ हो सहजता से अपनी भाषा में बात करने लगा। 

    "अच्छा --।" मेरी आँखें आश्चर्य से फैल गई। 

    "मैं भी छोटा- बड़ा मूढ़ा बना ही लू हूँ । उसे बनाने में बड़ा मजा आवे है। अब तो यह काम छोड़ सा दिया है। " सिर पर एक हाथ रखकर उसने गहरी सांस  ली। । 

    "क्यों झब्बू ?जितना करेगा  उतना ही हाथ साफ होगा।"

    " मैडम जी यह तो मैं भी जानू हूँ। पर बिके तब न। जबसे इस कम्बक्त प्लास्टिक का जन्म हुआ  तब से हमारे बुरे दिन आ गए। कुर्सी तो प्लास्टिक की ,डोलची तो प्लास्टिक की। चारों तरफ प्लास्टिक की चीजों की धूम मची है ।इनकी  आँखमिचौनी में अब हमारा सा मान कौन खरीदे है। गुन का कोई गुनी नहीं।  हुनर होते हुए भी ,काम जानते हुये भी रोटी रोटी को मोहताज हो गए हैं, मुझे ही देखो !अपना घर बार छोड़ नौकरी को दर -दर भटक रहा हूँ।  बापू को कभी -कभी बांस का काम मिल जावे है बाकी दिन फाँका बाजी। गाँव का घरबार तो छुट  सा गया।  बूढ़ा बाबा उसमें बैठा खाँसता रहे हैं और बुढ़ऊ दादी से झगड़ा करता रहवे हैं।" 

    "तुम्हारे माँ -बाप उनके साथ नहीं रहते।" 

     'कहा न मैडम  हमारा ठहरा घुमन्त परिवार । वो तो बैलगाड़ी में बैठ घूमते रहवें जहां कम मिलने की आशा हो वही पड़ाव डाल लेवे  हैं। सब काम रुक सकें पर भूख तो न रुके। "

     "हाँ हाँ याद आया झब्बू । मैं बचपन में कभी माँ के साथ तो कभी मौसी के साथ चामुंडा देवी के  मंदिर जाती थी। मंदिर  चामुंडा पहाड़ी पर था। बड़ी ऊंचाई पर था। रास्ता कच्चा और टेड़ा मेढ़ा ढलान वाला । हिचकोले खाते गाना गाते बैलगाड़ी में हम जाते । बड़ा मजा आता था। खूब धूल उड़ती । पर किसे परवाह थी! बैल भागते हुए हमें मंदिर ले ही जाते।" 

     "देवी की पूजा तो गर्मी में होती है।" 

     "हाँ बड़ी गर्मी होती थी। पर बैलगाड़ी में छाँव के लिए उसके ऊपर बांस का बना  टट्टा लगा रहता था।" 

     "मैडम जी अब तो वे दिन लद गए जब हमारी बनी चीज की कदर होवे थी।

    एक और मुसीबत में जान अटक गई है। ये कोरोना ,उफ ! मैडम जी इस कोरोना ने तो जीना दूभर कर दिया। मेरा बूढ़ा बाबा हड्डियों का ढांचा रह गया है। पर  बड़ी उम्मीद लगा के रावण के पुतले बनाने में लग गया है। दशहरा जो आने वाला है । अगर रावण न बिके तो मेरा बाबा तो जीते जी मर जाएगा। भूख तो सह ले पर अपने हुनर का अपमान उससे सहा न जावे। अपने कु बहुत बड़ा कलाकार समझे हैं । अरे उसके समझने से क्या होवे है। दूसरे समझे तब न !कितनी बार उसे समझाया पर समझे तब न!

अब तो शादी ब्याह भी नाम को होवे हैं। न गाजे बजे न बारात सजे , न घोड़ी न ढोल -शहनाई । पूजा पाठ और रीति रस्मों में बांस की बनी चीजों की खूब खपत थी ।अब तो मैडम जी उससे भी गए।" 

 उसकी व्यथा को सुन मैं हिल सी गई। उसकी मदद करने का निश्चया किया। 

"अच्छा जगन एक बात बताओ- एक झोंपड़ी के बनने में कितने दिन लगते होंगे?"

    "10 दिन  मैडम जी ।" 

     "और खर्चा कितना पड़ता होगा ।" 

    "करीब 35 हजार का।" 

   "अच्छा अभी तो मैं आराम करूंगी । शाम को आना  तब इस पर बात करेंगे।" मुझे सोचने के लिए कुछ समय चाहिए थे । इसलिए उसे उस समय टाल दिया। 

झब्बू ने कंधे पर पड़े अंगौछे के एक  कोने  से पसीना पौंछा और दूसरे कोने से हवा करता हुआ चला गया। जाते जाते आगाह कर गया ,'मैडम जी कुछ जरूरत हो तो तुरंत काउंटर पर फोन कर देना।'

     वैसे मेरा ध्यान रखना उसकी ड्यूटी मेँ था। कुछ ही देर में हम इस तरह से जुड़ गए थे कि उसका दर्द मुझे अपना लगने लगा ।मैं भी एक चित्रकार  हूँ और जानती हूँ  जब कोई मेरे सृजन का अपमान करता है या उपेक्षा की नजर से देखता है तो कितना कष्ट होता है । 

      सुना था झारखंड की सरकार वियतनाम बैम्बू ट्रेनिंग को कुछ कारीगरों को भेज रही है। मैं उसे वियतनाम तो नहीं भेज सकती थी पर जरूर कुछ ऐसा  कर सकती थी ताकि उसका पुश्तैनी धंधा बचा रहे। इसी उधेड़ बुन में नींद लग गई। और जब उठी तो एकदम ताजा थी।

शाम को  5बजे दरवाजे की घंटी बजी।  झब्बू खूबसूरत से केन की ट्रे में चाय लेकर हाजिर हो गया। 

      चाय पीते पीते बोली -"झब्बू  तुम मेरे शहर चलोगे।"

      "मैडम जी मैं वहाँ क्या करूंगा?ज्यादा पढ़ालिखा नहीं। क्लास पाँच की है । मुझे  वहाँ कौन नौकरी देगा?

    "मैं दूँगी। "

    "आप --अप मैडम जी । "

    "हाँ ,मेरा छोटा सा कारख़ाना है। उसे बढ़ाने की सोच रही हूँ। क्यों न उसमें  बांस की चीजें बनाई जाएँ।" 

    " कौन पसंद करेगा उन्हें मैडम ।"

     "सब करेंगे झब्बू  !अगर काम बढ़िया होगा। लेकिन तुम्हें ट्रेनिंग लेनी होगी।" 

   "मतलब स्कूल जाकर सीखना होगा।" 

    "अरे नहीं --स्कूल जाने की तुम्हें जरूरत नहीं। तुम्हारे घर में बहुत होशियार मास्टर जी है।"  

मेरे घर में! पेशोपेश में पड़ा झब्बू अपना सिर खुजाने लगा। मेरे घर में  बाबा --दद्दी है। माँ बापू है। मगर मास्टर जी --।! 

   "मैडम जी मैं तुम्हारी बात न समझ सकूँ। छोटी बुद्धिवाला ठहरा। अब बता ही दो ये मास्टर जी  कौन हैं?" 

   "अरे तुम्हारे बाबा --। तुम्ही तो बता रहे थे। उनके हाथ में जादू है जादू --। जिस पर हाथ रख दें वही जगमगा उठे।"

   "हाँ बात तो सुच्ची है। मेरे दिमाग में इतनी सी बात न आई।" 

   "तो बस मेरे जाने के बाद रोज उनसे काम सीखो। सीखने के लिए एक महीना बहुत । वेतन के अलावा तुम्हें वहाँ खाना -पीना मिलेगा । रहने को कारखाने के पीछे कमरे बने हैं। माँ -बाप को काफी पैसा बचाकर भेज सकते हो।" 

   "मैडम जी आप मुझे सपना दिखा रही हो!" । 

   "सपना ही समझ लो पर उसे सच तो तुम्हें अपनी मेहनत और होशियारी से करना है।" 

झब्बू खुशी से उछल पड़ा। "मैडम जी मैडम जी आप तो देवी हैं। मैं यह  खुशखबरी अपनी माँ को सुना आऊँ।" वह  बच्चे की तरह दौड़ता आँखों से ओझल हो गया।   

समाप्त 

28/4/2021 

  


रविवार, 23 जून 2024

सफर में सफर ,जैसा जिया वैसा कहा


7th जून 

कड़ी 5

                                 आर्ट इंस्टिट्यूट ऑफ़ शिकागो 

जहां भी जाती हूं आर्ट इंस्टिट्यूट ,आर्ट गैलरी या आर्ट प्रदर्शनी ज़रूर देखती हूँ। मालूम हुआ कि यहाँ भी अमेरिका का काफी पुराना और  बड़ा कला संस्थान है तो मन मचल उठा। यह मिशिगन ग्रांट पार्क में  ही है। सवा साल की पोती को प्रेंबुलेटर में बैठाकर  अंदर घुसे कलात्मक संग्रह को देख दंग रह गए। और मान गए कि यह दुनिया के महान कला संग्रहालयों  में से एक है। जिसमें विश्वभर की रचनात्मक कृतियाँ हैं। 

वैसे भी मेरी बहुत समय से शिकागो जाने की इच्छा था। मुझे वह जगह देखनी थी जहां विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को अपना पहला  भाषण केवल दो मिनट दिया था। लेकिन भाषण की शुरुआत ऐसे जादुई शब्दों में की कि वहां बैठे लोग ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया मंत्रमुग्ध की तरह उसे सुनती रही। । 


जैसे ही उन्होंने अपना भाषण शुरू किया  

' अमेरिका के  भाइयों -बहनों ---इन तीन शब्दों के बाद 2 मिनट तक  अनगिनत हाथों की तालियां गूँजती रहीं। ।

उनके भाषण को सुनने के लिए 6000 से अधिक लोग स्थाई स्मारक कला महल में इकट्ठे हुए थे जिसे आजकल शिकागो   का कला संस्थान कहा जाता है। इसके बाद तो उन्होंने अनेकानेक वक्तव्य द्वारा  भारत की आध्यात्मिक विरासत का प्रचार किया। 

यहाँ प्रसिद्ध चित्रकारों की पेंटिंग का भंडार है।  अद्भुत तस्वीरों,दुर्लभ मूर्तियों का आगार है। तमिल नाडु की बुद्ध  मूर्ति को मेडिटेशन की मुद्रा में बैठे देख नजर ठहर गई और अपने देश की याद आ गई।  इंप्रेशनिस्ट और पोस्ट इंप्रेशनिस्ट चित्रों की तो मैं प्रशंसा किए बिना न रही। अंदर से लहर आई कि काश मेरे हाथ में ब्रुश और सामने कैनवास होता! उनकी तरह रंग बिखेर पाती!

वहाँ की कुछ झलकियाँ 

बुधवार, 12 जून 2024

सफर में सफर जैसा जिया वैसा कहा

 

अगली कड़ी 4

 बड़े कंधों का शहर शिकागो की  क्रूस यात्रा 

शिकागो  में हमारे पास  केवल 7दिन थे। इतने कम समय में ज्यादा से ज्यादा  शहर का इतिहास जानना चाहते थे। शिकागो  विशाल लेक मिशिगन एवं मिसिसिपी नदी के बीच बसा है।  लेक के पास ही हमारा घर! सो पैदल ही पैदल बड़े से पार्क को  पार करते  लेक  के किनारे पहुंच गए। धूप का चश्मा ,टोपी ,जाकेट और पानी ले जाना न भूले। न जाने मौसम का कब मिजाज बदल जाये। 

प्राकृतिक सुषमा को निहारते कुछ देर तक लेक का चक्कर लगाया।

एक मूर्ति  को देख रुक गए। कुछ देर उसके शिल्प को देखती रही जो मुझे मुग्ध किए बिना न रहा।  कौतूहल वश उस पर जड़ी पीतल की पट्टी पर लिखा पढ़ा और कैमरे में कैद कर लिया। 




CAPTAIN ON THE HELM

They mark our passage as a race of men,Earth will not see such ships as those agen."

JOHN MASEFIELD

DEDICATED THIS 19TH DAY OF MAY,IN THE YEAR 2000

TO THOSE COURAGEOUS MARINES WHO GUIDED THEIR SHIPS

THROUGH PERILIOUS WATERS,CARRING CARGO AND PEOPLE. THEIR CONTRIBUTIONS

 

INTERNATIONAL SHIPMASTERS'ASSOCIATION.CHICHGO LODGE NO.3

SCULPTURE:Michael Martino

     झील के किनारे  सफेद ,नीली वाटर टैक्सियाँ  सैलानियों को लुभाने में लगी थीं।मैं अपने बेटे के साथ वाटर बोट टैक्सी में बैठकर शिकागो नदी के किनारे पहुँच गई।  । शिकागो नदी का इतिहास तो पूरे शहर का इतिहास है। यह नदी शिकागो शहर से ही गुजरती है।इसी  इतिहास को जानने के लिए हमने क्रूज में बैठने का इरादा किया । टिकट  लेने के लिए पूंछते  -पांछते उस जगह रुक गए जहां एक बोर्ड टंगा था । लिखा था ….

Shore  line sight seeing 

     फट से टिकट ले ,लहरों के साथ हिलते- झूमते क्रूस पर हम  चढ़ गए। नीली -चमकीली लहरों को छूती हवाएँ ठंडी व तेज थी। हमारे एक साथी की तो टोपी ही उड़ गई और २१ फ़िट गहरी नदी  में खेलने लगी लहरों के साथ।  हमने तो अपनी टोपी कस कर पकड़ ली  और काला  चश्मा नाक पर ज़ोर देकर बैठा  लिया।   कहने को तो नदी का  रंग नीला है पर सेंट पैट्रिक दिवस पर इसे हरे रंग से रंग देते हैं। 

    इसमें बैठते ही जलमार्ग की भव्य उपस्थिति पूरे शहर में महसूस होने लगीं।

 

दोनों तरफ गगनचुम्बी इमारतों को देख ठगे से रह गए। जो समृद्ध वास्तु शिल्प का इतिहास बताने में सक्षम हैं। शिकागो दुनिया की पहली गगनचुंबी इमारत का घर है। सबसे पहले विलियम लेबरन जेनी शिकागो वास्तुकार ने नौ मंजिल ऊंची होम लाइफ इंश्योरेंस बिल्डिंग बनाई जिसका बाहरी दीवारों सहित पूरा वजन  लोहे के फ्रेम पर रखा गया था।

    गाइड ने यह कहकर हमें हैरत में डाल दिया कि 500 से ज्यादा गगनचुम्बी इमारतें मिट्टी से बनी हैं। इन पर न पानी  का असर होता है और न आँधी -तूफान का। कुछ इमारतें तो सैकड़ों  वर्ष पुरानी लगीं।  लेकिन बड़ी शान से खड़ी अपने अतीत की गाथा कह रही थीं।    

    बातों ही बातों में क्रूस मेँ बैठे  एक बुजुर्ग  ने बताया -“शिकागो जमीन से ऊपर उठाया शहर है।”

हम तो चौंक पड़े पर पास ही खड़ा एक लड़का चहक उठा-“तब तो अंकल, शिकागो शहर के  हवाईजहाज़ की तरह पहिये लगे होंगे ।तभी तो यह ऊपर उठ गया।”

उसकी भोली बात से चेहरों पर हंसी मुखर हो उठी। 

एक अन्य किशोर भी वाचाल हो उठा -“मुझे तो लगता है पूरे शहर को जैक लगाकर अपलिफ्ट किया है।”  

ये सज्जन ठीक ही बोल रहे हैं। शिकागो असल में  दलदल वाली जमीन पर बसा है। एक बार हैजे ,टाइफाइड जैसी बीमारियों ने ज़ोर पकड़ा  तो सैंकड़ों की संख्या में लोग मरने लगे जी।  बाद में पता लगा कि मिशिगन झील और शहर की ऊंचाई एक होने के कारण जमीन दलदली हो गई है।” गाइड बोला। 

अब तो दलदली नहीं लगती ।  पानी कैसे सुखा दिया?” मैंने पूछा। 

मिट्टी का भीगना तो अपने आप ही बंद हो गया जी ,जब शहर को थोड़ा ऊपर उठा दिया।” 

ऐं, तुम भी वही बात कर रहे हो जो असंभव है।” 

ठीक ही कह रहा हूँ।  एक तरह से शहर को फिर से बनाया। दलदली जमीन,फुटपाथ,नालियों को मिट्टी से पाटा । पुरानी इमारतों  को ऊपर उठाया। नई इमारतों को ऊंचाई पर बनाया।” 

बड़ी मेहनत और सूझबूझ का काम है यह तो ।मान  गए मिट्टी के शहर का लोहा।”

    बातों का बाज़ार गर्म था पर निगाहें सामने ही बढ़ते क्रूज़ पर जमी थी ।  दोनों तरफ  बिल्डिंग को छूता पानी --टकराती लहरें मीठा सा संगीत पैदा कर रही थीं। बीच में शहर के दो बिंदुओं को   जोड़ते छोटे -छोटे ब्रिज बने थे जिन पर स्ट्रीट के नाम लिखे थे- जैसे मेडिसन स्ट्रीट ,लेक स्ट्रीट ,क्लार्क स्ट्रीटहेरिसन स्ट्रीट।। इन पुलों के कारण जल जीवन भी सामान्य था और   शहर के दूसरे हिस्से में पैदल प्रवेश भी  सुविधाजनक था। न ट्रैफ़िक न प्रदूषण। मैं तो इन्हें देखती ही रह गई। क्या अद्भुत संरचना! कुछ ही देर मेँ  बैंक , विशाल रंगीन कांच और अल्मुनियम के भवन ,होटल ,संग्रहालय , क्लब हाई टावर ,शिकागो यूनिवर्सिटी सहित  चमकती दुनिया को भी देख लिया।

    यहाँ की श्रम प्रवृति , उन्नतशील औद्योगिक गतिविधियाँ तथा परिवहन व्यवस्था  को देख ऐसा लगा जैसे यह बड़े कंधों का शहर हो।