डायरी के पन्ने
सुधा भार्गव
14.5.2003
विकास की सीढ़ियाँ
अब तो घर
मेँ आए सभी लोग नव शिशु अवनि के बारे में ही बातें करते हैं या उसी के बारे में
सोचते हैं। मेरा भी मन करता है उससे बातें करूं। जानती हूँ वह बोल नहीं सकेगी पर
एक तरफा ही सही। उसी से असीम संतोष मिलेगा।
सुबह शाम
यहाँ तापमान 10डिग्री तक आ जाता है। सेंट्रल हीटिंग सिस्टम के कारण ठंड थम जाती है
परंतु विश्राम करते समय इच्छा करती है कुछ ओढ़कर ज्यादा गर्माहट का अनुभव किया जाए
। इसीलिए अवनि को सोता देखकर मैंने उसकी बुआ का भेजा फलालेन का कंबल ओढा दिया। कुछ
देर तो वह सोती रहीं पर जल्दी ही
कुलबुलाने लगी। हमने सोचा –शायद गर्मी लग रही है! इसी उधेड़बुन मेँ कंबल हटा दिया। मगर यह क्या !प्यारी सी
बच्ची अपने हाथ पैर चला आँखें घुमाने लगीं और कंबल दूर छिटक गया। अच्छा जी तो यह
बात है –हमारी नन्ही विकास की सीढ़ियाँ चढ़ रही है।
मैं
उत्तेजित हो चिल्ला उठी –“प्यारी बच्ची,देखो--- देखो,तुम्हारा पापा तुम्हारे आने से कितना प्रसन्न है। हर दिन तुम्हारे लिए कुछ न कुछ नया करना
चाहता है।”
तभी बेटा
आ गया और बोला-“माँ ऐसा करते हैं इसके पलंग में म्यूजिकल मोबाइल भालू लगा देते हैं।
आप अवनि को लेकर ऊपर की मंजिल में 10 मिनट बाद लेकर आ जाना।”
उत्साह
का सागर हिलोरे मार रहा था उसे दिल में समेटे छोटी बच्ची के माँ- बाप एक ही सांस
में कई सीढ़ियाँ चढ़ गए। उन्हें देख मुझे अपने दिन याद आ गए जब बड़ा बेटा हुआ था और
हम पहली बार माँ-बाप बने थे। उस पर जमाने भर की खुशियाँ लुटा देना चाहते थे।कितना
प्यारा ज़िंदगी का यह पहलू है।
जैसे ही मोबाइल
भालू की मनमोहक घंटियाँ सुनाई पड़ीं मैं अवनि को लेकर ऊपर पहुँच गई। मोबाइल खिलौने
में में पाँच भालू रंगबिरंगी पोशाक पहने मटक रहे थे। बेबीकॉट पर लेटाते ही उसकी नजर
कभी लाल भालू पर जाती तो कभी पीछे वाले
भालू पर। इस कोशिश में गर्दन-आँख घुमाते
कहीं थक न गई हो-यह सोच कर खिलौना बंद कर दिया गया।
बहू-बेटे
कुछ काम में लग गए और मैंने अवनि से बातें करनी इस तरह शुरू कर दीं जैसे वह समझ ही
जाएगी।
“बच्ची,मेरा मन तो अजीब से डर में डूबा हुआ है । जिस खिलौने को तुम्हारा पापा इतने शौक से लाया है उसके स्वरों की खनक से
डरकर तुम कहीं रो न पड़ो।क्या करूँ,मेरा अनुभव ही कुछ इस प्रकार का हुआ है।
पिछले
हफ्ते राहुल के पहले जन्मदिन पर तुमको लेकर गए थे। उसका पापा और तुम्हारा पापा
दोनों गहरे दोस्त हैं। चहल-पहल के बीच प्रेशर कुकर की सीटी सुनकर वह भय से चीखकर
रोने लगा। उन्मुक्त हंसी से गूँजता वातावरण बोझिल हो उठा। लेकिन तुम तो बहुत
बहादुर निकलीं---न चौंकी और न रोईं । मुझे तुम पर बहुत गर्व हुआ।
दूसरी बात भी मैं नहीं पचा पा रही हूँ।तुम्हारे
जन्म से पहले एक दिन हम पारस के अन्नप्राशन उत्सव में गए। उसके पापा भी मित्र
मंडली में हैं और बंगाली है। बंगाली बाबू से मिलकर हमें बहुत खुशी होती है। हो भी
क्यों न !हम करीब 40 वर्ष कलकत्ता रहे हैं । बंगाली भाषा,बंगाली खानपान ,रीति-रवाज़ सभी तो सुहाते है। हमने तो
वहाँ जाते ही बंगाली में गिटपिट शुरू कर दी पर मैंने अनुभव किया कि पारस नए -नए चेहरे
देख आतंकित हो उठता है और बार -बार माँ के आँचल में छिपकर अपने को सुरक्षित अनुभव
करता है। न अपने पिता के पास जाता और न दादी –बाबा के पास जो बड़े अरमानों से
कलकत्ते से अपने पोते की खातिर दौड़े दौड़े आए थे। माँ की हालत बड़ी दयनीय थी। थकी-
थकी सी पारस को गोद में लिए मेहमानों का स्वागत कर रही थी। वह बेचारी रसोई सँभाले
या बच्चा। वह तो अच्छा था मेहमान ,मेहमान नहीं मेजबान लग रहे
थे।
महिलाएं
मिलजुलकर खाने का काम सँभाल रही थीं ।ज़्यादातर आगंतुक अपने झूठे बर्तन धोकर रख
देते। सब की यही कोशिश थी कि उनके सहयोग
से पारस के मम्मी-पापा की भागदौड़ कम हो जाए और वे भी अन्नप्राशन उत्सव का आनंद उठा
सकें।
पारस का
उसके मम्मी-पापा बहुत ध्यान रखते थे। उसे ज्यादा न कहीं लेजाते थे न सबके सामने
उसे उसके कमरे से निकालते थे। सोचते उसे किसी की छूत न लग जाए,कोई उस पर बुरी नजर न डाले,उसके दैनिक कामों में खलल
न पड़े। पर इससे वह घर-घुस्सू बन गया। यहाँ तक कि अपने कमरे को छोडकर वह कहीं सो भी
न पाता था। दूसरों को देखते ही सहम जाता।उसका नतीजा माँ-बाप भी भोग रहे थे।
उस समय ही
सोच लिया था कि जब तुम हमारे पास आ जाओगी,अकेले कमरे में
तुम्हें ज्यादा नहीं रहने दिया जाएगा वरना एकांतवास की आदत पड़ जाएगी और घर में आए
लोगों को देखकर बस हुआं ---हु -आं करके घर को सिर पर उठा लोगी।
सच में हमने ऐसा ही किया। सोते समय तुम अपने
कमरे में रहती हो पर जागने पर हम सबके बीच।
कभी पालने में लेटी रहती हो तो कभी पापा
की बाहों में झूलती हो। मुझ दादी माँ की गोदी में तो आते ही सो जाती हो।
चार
लोगों के बीच में रहने के कारण ही किसी अजनबी को देख तुम कोहराम नहीं मचाती हो। जब
वह प्यार से तुम्हें गोदी मेँ लेता है और बातें करता है तो तुम्हारी टुकुर- टुकुर आँखेँ चलने लगती है मानो
तुम उसकी बातें समझ रही हो। गोदी में लेने
वाला भी तुम्हारे हाव-भाव देख खिल-खिल उठता है और शांत माहौल में शांति से बात कर
पाता है।”
क्रमश :
प्रकाशित - साहित्य कुंज 19.04.2017
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/18_vikaas_kee_sidiyan.htm
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