सोमवार, 4 जनवरी 2016

कड़ी 4 -कनाडा एयरपोर्ट


साहित्य कुंज अंतर्जाल मासिक पत्रिका ,जनवरी प्रथम अंक 2016 में प्रकाशित,

लिंक-http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SudhaBhargava/04_Canad_airport.htm

कनाडा डायरी 

04 कनाडा एयरपोर्ट

कनाडा एयरपोर्ट पर बहू-बेटे दोनों ही लेने आए थे। दिल से तो मैं यही चाहती थी कि बहू शीतल एयरपोर्ट पर न आए क्योंकि उसका प्रसवकाल निकट था। उसे फुर्ती से अपनी ओर आते देखा ,लगा तो बहुत अच्छा। गृहस्थी की गाड़ी को खींचने वाले दोनों पहिये समान रूप से सक्रिय नजर आए। उन्होंने  हमारे चरण स्पर्श किए और और सीने से लग गए।तीन वर्ष का वियोग क्षण भर में मिट गया।
सफर की सारी थकान हम अपनी मंजिल पर पहुँचते ही भूल गए। कार में एक दूसरे से नजर टकराते ही आँखों में चमक आ जाती।मूक होकर भी हजार बात कह देते। कार रॉकेट बनी हवा को चीरती चिकनी सड़कों पर सरपट दौड़ रही थी। मेरी समझ में नहीं आया –ठंडे सुहावने मौसम में भी बेटे ने कार के शीशे चढ़ा रखे हैं  और एयर कंडीशन चल रहा है।
-यहाँ तो प्रदूषण भी नहीं है । ताजी हवा के झोंके आने के लिए खिड़कियों के शीशे नीचे कर दो। मैंने सलाह दी।
उसने हमारी तरफ का शीशा थोड़ा सा हटा दिया। यह क्या !हवा के तीव्र झोंकों से हम आतंकित हो उठे। दूसरे कार की स्पीड भी बहुत तेज थी। साँय-साँय की आवाज ऐसी कर्णभेदी हो गई मानो जंगल में हलचल मच गई हो।
-अरे बंद कर शीशा । मैं चिल्ला उठी।
-बंद कर दूँ ---। आपजान कर बेटा ज़ोर से बोला और हंसने लगा। अब आया समझ में राज शीशे बंद रखने का।
रोज़लोन कोर्ट में घुसते ही उसके बंगले के सामने खड़े हो गए । सीट पर बैठे ही रिमोट कंट्रोल का बटन दबाने से खुल जा समसम की तरह गैराज का शटर ऊपर जाने लगा। लौंडरी रूम,रसोईघर ड्राइंगरूम पार करते हुए ऊपर जाने लगे। बेटा बहुत विनोदी स्वभाव का है सो सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते उसका टेप रिकॉर्डर चालू हो गया। 
-माँ, सुबह-सुबह ताजी हवा खाने के चक्कर में नीचे का दरवाजा न खोल देना। अलार्म बज उठा तो पुलिस आन धमकेगी और पकड़कर ले जाएगी।
-हम क्या चोर है!
-चोर तो नहीं पर खतरे की घंटी तो बज जाएगी। सुबह उठकर एलार्म का गलेटुआ घोंटना पड़ता है।
-यहाँ भी चोरी होती है क्या।?धनी राष्ट्रों में हमारे देश की तरह गरीबी कहाँ!भार्गव जी बोले।  
-चोरी गरीब ही नहीं करता । आदत पड़ने पर अमीर भी चोरी कर सकता है। चोरी भी तो चौसठ कलाओं में से एक है।  
-अरे वाह !पहले से क्यों नहीं बताया माँ। मैंने बेकार आई.आई.टी. में चार साल गँवाए, यही कला सीखता।
-ओह ,तू तो बहुत खिजाता है। बस मेरी बात पकड़ ली।
शीतल हमारी बातों का आनंद उठा रही थी। व्यवस्थित मास्टर बेडरूम ,बेबी रूम,से होते हुए हम अपने शयनागार में पहुंचे । स्वच्छ चादर व फूलदार लिहाफ हमारा इंतजार कर रहे थे। शीतल के हाथ का खाना खाकर कुछ ही देर में हम शुभ रात्रि कहते हुए उसमें दुबक गए।
दिल्ली में तो मन में उथल पुथल मची ही रहती थी कि बच्चे पराई संस्कृति में रह रहे हैं, कहीं बदल न जाएँ। न जाने किस विचारधारा से टकरा कर सुविधा के जाल में फंस जाएँ पर संस्कारों की जड़ें इतनी मजबूत लगीं कि भटकन की कोई गुंजाइश नहीं दिखाई दी।  
विचारों की घाटियों से गुजरते 2बज गए। दिमाग ने कहा –सोने की कोशिश तो करनी ही पड़ेगी,कल से नए वातावरण से समझौता करने और उसे समझने का श्री गणेश हो जाएगा। कुछ भी हो हम 8 अप्रैल के चले 10 की रात कनाडा अपने घर तो पहुँच ही गए थे सो चिंतारहित चादर तान सो गए ।

क्रमश:     

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