फुकेट का समुद्री तट
मंगलवार :१३-९-05
प्रात:
उदय होते सूर्यदेव के दर्शन की इच्छा अपूर्ण रह गई क्योंकि नींद देर से खुली। चाय
पीने हम रेस्टोरेन्ट पहुंचे तो देखा फुकेट (थाईलैंड )टूर पर जाने वाले पर्यटक जमकर
खा रहे हैं ।हमें तो किसी प्रकार की जल्दी थी नहीं।
दोपहर
12 बजे के करीब फुकेट पोर्ट पर जहाज ने लंगर डाल दिया। विराट समुद्र के दर्शन के
लिए हमारे पास 6घंटे थे। । मन किया उसी क्षण समुद्र तटीय बलुआ मैदान में दौड़ लगाऊं,उसका
स्पर्श करूं ,समुद्री फैन को अंजुरी में भरकर उससे खिलवाड़ करूँ।
लेकिन
पहले ताज होटल में आरक्षण कराना था ।सोचा वहाँ बहुत भीड़ होती होगी पर लंच रूम मे
हम पति –पत्नी दो ही थे।नाम बड़े दर्शन छोटे वाली बात! खाने वाले भी वहाँ कम ही आते
होंगे क्योंकि बिल चुका कर भोजन मिलता है। जब मुफ्त मे उससे हजार गुना
स्वादिष्ट खाद्य और पेय पदार्थ मिलें तो
वहाँ क्यों जाएँ?हम दो पर बैरा तीन!सोच -सोचकर हंस रहे थे ।
एक्सेस
कार्ड दिखाने के बाद ही जलपोत से उतरने की आज्ञा मिली । तीर पर कोस्टगार्ड और
क्रूज के सुरक्षा अधिकारी बैठे थे । कुछ दूरी पर छोटा सा बाजार लगा हुआ था। दूर तक
विराट जल की भीम क्रीडा को देखते हुए काफी दूर तक चलते रहे हम । बाजार में हस्त शिल्प का सौंदर्य बिखरा पड़ता था । कुछ टीशर्ट,चाबी
के गुच्छे उपहार स्वरूप देने के लिए खरीदे। एक चाबी का गुच्छा तो अब भी मेरे पर्स में लटका रहता है जो वहाँ की याद दिलाता है ।
टीन की चादर से बने अनोखे पेंसिल शार्पनर लो देख कर तो मैं उनको लेने बच्चों की तरह मचल उठी । हाथ की कारीगरी देखते ही बनती थी। एक लड़का उन्हें छोटी सी मेज लगाए बेच रहा था।
पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ कि वाद्य संगीत की ये आकृतियाँ पेंसिल की धुनाई भी कर सकती हैं। मैंने उन्हें सजावट का समान ही समझा था। जब लड़के ने पेंसिल छील कर दिखाई तो इतनी खुश हुई कि उसे मुंह मांगे दाम देकर चार खरीद लिए ।
टीन की चादर से बने अनोखे पेंसिल शार्पनर लो देख कर तो मैं उनको लेने बच्चों की तरह मचल उठी । हाथ की कारीगरी देखते ही बनती थी। एक लड़का उन्हें छोटी सी मेज लगाए बेच रहा था।
पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ कि वाद्य संगीत की ये आकृतियाँ पेंसिल की धुनाई भी कर सकती हैं। मैंने उन्हें सजावट का समान ही समझा था। जब लड़के ने पेंसिल छील कर दिखाई तो इतनी खुश हुई कि उसे मुंह मांगे दाम देकर चार खरीद लिए ।
समुद्र
के किनारे से किनारा करते –करते शाम के छ्ह तो बज ही गए। 6 बजे हैपी आवर्स(Happy hours) शुरू हो गए थे इसलिए हम रेसेप्शन हॉल मेँ ही बिछे
सोफो पर बैठ गए । आकेस्ट्रा बज रहा था। सामने स्त्री -पुरूष अंग्रेज़ी धुनों पर
थिरक रहे थे। हमारे दोनों ओर छोटी पर खूबसूरत दुकानों पर विदेशी सुरा रखी थी।
सोविनियर्स से वहाँ की शोभा दुगुनी हो गई थी मगर वे हमें बहुत कीमती लगे। हैपी
आवर्स मेँ एक गिलास लेने से दूसरा मुफ्त मिल रहा था। अभी तक 300 सिंगापुर डोलर्स के
कूपन भोजन पर खर्च न कर पाए थे इसलिए वहाँ से हमने महंगी होने पर भी ब्लैक लेबिल
शैम्पेन व आस्ट्रेलियन शीराज वाइन खरीद ली । कूपन का इस्तेमाल हर हाल मेँ करना था
वरना वे बेकार हो जाते ।
वैलाविस्टा
रेस्टोरेन्ट में आज गला डिनर था। उसमें उपयुक्त परिधानों का विशेष ध्यान रखा गया ।
कोई भी नेकर, वरमूडा ,बिना बांह की कमीज या चप्पल पहनकर नहीं जा
सकता था।दरवाजे पर एक्सेस कार्ड दिखाकर अंदर घुसे । मेज का नंबर हमारा पहले से ही
निश्चित था। हम वहाँ खास मेहमान थे। यान परिचारिकाएँ मेजबानी में खड़ी थीं।
रेस्टोरेन्ट |
रंगबिरंगे बल्बों से कोना –कोना जगमगा रहा था। संगीतमय मदभरी शाम में हमने कुछ समय
के लिए खुद को राजे –महाराजे समझने का मजा लिया। कुछ पर्यटक नोबल हाउस (चाइनीज)समुराय
(जापानीज़)होटल के गाला डिनर में चले गए थे पर हमारी मंजिल तो बैलाविस्टा ही थी।
शाकाहारी भोजन वहीं अच्छा था ।
डीनर
के बाद हम पिक्चर गैलरी चले गए। सैकड़ों तस्वीरे दीवार पर लगी हुई थीं ताकि सैर
करने वाले इन्हें देखें ,सराहें और खरीदें। स्टार क्रूज के फोटोग्राफरों ने
यात्रियों के चित्र कैमरे मेँ कैद कर लिए थे। हमने भी अपनी दो तस्वीरें खरीदीं। एक
नर्तकी के साथ दूसरी जोकर के साथ।
रात
के बारह बजे डिजायर प्रहसन (las vegas style toples revue)देखने जाना था। यह 40 मिनिट का लीडो शो होता है ।
प्यार और रोमांस से भरी यह रात दर्शकों के दिल की धड़कनों को तेज करने वाली थी । अल्हड़
लड़कियां झीने वस्त्र पहने रूपहले जुगनुओं की तरह चमक रही थीं। उनमें नीली आँखों
वाली एक लड़की थी। लगता है इससे कवि पैब्लो नेरूदा अवश्य मिले होंगे
![]() |
कवि पैब्लो नेरूदा |
तभी तो उनकी कुछ पंक्तियों मेँ उसका सार्थक
चित्रण है –
जादू
भरे उभारों में
दो
अग्नि शिखाएँ लहक रही थीं
और
वे अग्नि धाराएँ ,स्वच्छ मांसल लहरों से इठलाती हुई
कदली
खंभ जैसी जांघों से तैरती हुई
उसके
चरणों तक उतर गई थीं
पर
उसकी
निगाहों से तिरछी हरी –भरी किरणों के
निर्मल
झरने झरते थे ।
लेकिन
ऐसी दृष्टि सबकी कहाँ? वहाँ बैठे लोगों की नजरें तो अनावृत उरोजों से टकरा
रही थीं । आखिर था तो नारी देह प्रदर्शन ही। ‘नारी कब तक दिल बहलाने का साधन
बनी रहेगी?’ जैसे प्रश्न से जूझती मैं व्यर्थ ही परेशान होती
रही ।
क्रमश :
क्रमश :
यात्राएं करना वाकेई हमें कई तरह के सुकुनों से भर देती हैं तथा यादों में समाए हर पल तरोताजा बनाए रखती हैं जिन्हें हम जिन्दगी भर कभी न भुला पाने क्षणों की तरह मन में संजोये रखते हैं.आपका यह यात्रा वृत्तांत पाठक वर्ग को भी आकर्षित किये बिना नहीं रहता है.इतने सुन्दर वृत्तांत को पढवाने के लिए सुधा दी आपका आभार व्यक्त करता हूँ.
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