गुरुवार, 18 जुलाई 2013

साहित्यिकी संस्था कोलकाता


 लघुकथा गोष्ठी
 व 
उसकी अंतरंगता 



कोलकाता में ४० वर्ष बिताने के बाद  2 0 01 में मैं  दिल्ली आकर बस गई । उस समय तक सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुकीर्ति गुप्ता की अध्यक्षता में साहित्यिकी संस्था की स्थापना हो चुकी थी ।





 मैं कार्य कारिणी समिति में   जिम्मेवारी बखूबी निभा रही थी  कि अचानक दिल्ली आना पड़ा । लेकिन इसकी सदस्यता के कारण मैं इससे निरंतर जुड़ी रही और जुड़ी भी क्यों न रहती ----बंगाल के रहनसहन ,खान-पान  और वातावरण में पूरी तरह घुलमिल जो गई थी .। 


बार बार कलकत्ते की कवि गोष्ठियाँ याद आतीं ,साहित्यिकी की सभाएं मुखर हो उठती जहाँ वेदना -संवेदना के पट खोल ठहाके लगाने में दीन -दुनिया भुला बैठते थे । जब यादें बहुत खलबली मचाने लगीं तो 2013 से हमने वायदा किया कि नए वर्ष में कोलकता जरूर जायेंगे । हम भी वायदे के पक्के निकले --चल दिए 14 जनवरी को कलकत्ता । कुछ मित्रो को अपना प्रोग्राम पहले ही बता दिया था जो फ़ोन ,कम्प्यूटर द्वारा मुझसे जुड़े रहे । 


             वहाँ  पहुँचते ही साहित्यिकी की सचिव किरण सिपानी और रेवा जाजोडिया जी   को फ़ोन खटखटा दिए --भई  हम आगये हैं ।अब बताओ सबसे कैसे मिला जाये ?
-मैं शीघ्र ही निश्चित करके बताऊँगी ।वैसे 23तारीख को नेता जी जन्मदिन की छुट्टी रहेगी ।उस दिन अपना कोई ख़ास प्रोग्राम न बनाना ।उस दिन आपके आने की खुशी में एक गोष्ठी रखनी  ठीक रहेगी  ।लोगों को आने में सुविधा भी रहेगी ।किरण जी  की आत्मीयता का  स्वर खनखना उठा  ।
उनकी बात भी ठीक थी और हमारा तो रोम -रोम चहक उठा --आह !वर्षों बाद मिलने  -मिलाने का रंग कैसा होगा ?
मैं अपनी सहेली जयश्री दास गुप्ता के यहाँ रासबिहारी एवेन्यू में ठहरी थी यदि वह वहां न होती तो न जाने सबसे मिलना हो पात़ा या नहीं  । 



तकदीर से  रेवा जी  का घर उसके पास ही था ।अत : उन्होंने  सभा में जाने के लिए 23 तारीख   
को मुझे अपने साथ ले लिया और मैंने अपने साथियों के लिए नववर्ष की मिठाई ।
जवाहर लाल नेहरू रोड में स्थित जनसंसार  में हमें 3 बजे पहुंचना था ।कलकत्ते महानगरी की भीड़ को चीरती हमारी कार गंतव्य स्थान की और बढ़ चली । 




इस समय कार चलाना सरल न था पर रेवा जी कुशलता से चला रही थीं और कार सधे हाथों  की कठपुतली बनी हुई थी ।हमारे पहुँचने से पहले ही किरण जी  तथा कुछ सदस्य आ चुके थे ।तपाक से बड़े प्यार से मिले ।लम्बी अवधि के बाद मिल रहे थे ।ऐसा लगा दूर रहने से स्नेह धारा का वेग कुछ ज्यादा ही हो गया है ।
-क्या आप अपनी लघुकथाएँ  साथ लाई हैं ?किरण जी ने पूछा । 
-हाँ !
-हम हर माह एक गोष्ठी रखते हैं ।जिसमें साहित्यिक -सामजिक विषयों पर चर्चा होती है ।बाहर  से अतिथियों को समय -समय पर आमंत्रित करते हैं । स्थानीय विशिष्ठ व्यक्तियों को भी बुलाया जाता है ।आज के हमारे अतिथि आप हैं और परिचर्चा का विषय होगा -लघुकथाएँ -वे भी आपकी ।
मैं असमंजस में पड़  गई -अपनी -अपनी हांकना तो ठीक नहीं !परिवर्तन हमेशा सुखद होता है ।अत ;  मन ही मन निश्चय किया ,दूसरों  से भी लघुकथा सुनाने की प्रार्थना करूंगी ।

इतने में अन्य सदस्या  भी आ गईं  ।काफी अनजाने चेहरे  थे ।सुकीर्ति गुप्ता तो अस्वस्थता के कारण नहीं आ पाई थीं पर परिचितों में कुसुम जैन ,सरोजिनी शाह ,विद्या भंडारी ,विजयलक्ष्मी मिश्र आदि थे ।किरण जी ने मेरा नए सदस्यों परिचय कराया ।गर्म -गर्म चाय के सिप लेते हुए हम आपस में घुल मिल गए ।

मैंने संक्षिप्त में बताया किस तरह मैं  काव्य धारा से मुड़कर साहित्यिक विधा लघुकथा की ओर मुड़ गई ।इस सन्दर्भ में उन लघुकथाकारों का परिचय देना भी जरूरी था जिन से मुझे लिखने की प्रेरणा मिली ।उनमें बलराम ,बलराम अग्रवाल ,रामेश्वर काम्बोज ,कमल चोपड़ा आदि हैं ।
तकदीर से 2011का संरचना अंक मेरे पास था । उसमें से मुझे स्वरचित मन पंछी लघुकथा पढनी थी जिसमें एक माँ के मनोभावों को दर्शाया गया है जो विदेश में बसे बेटे और छोटी सी पोती से मिलने गई है ,वह हर परिस्थिति का सामना खुशी -खुशी करने को तैयार है । इस लघुकथा में बदलते परिवेश के अनुसार बदलती मनोवृति की झलक मिलती  है । उस पत्रिका में अनेक रचनाकारों  ने दिलचस्पी दिखाई ।इसके अलावा इंटर जाल पत्रिकाओं --हिन्दी चेतना  ,उदंती ,अविराम पर चर्चा छिड गई ,कुछ देर तक  सबको लगा उन तक कम्प्यूटर  की गति से पहुंचा जा सकता । 
विविध विषयों से सम्बंधित अन्य लघुकथाएं भी सुनी सुनाई गईं। 
पुरस्कार ( प्रकाशित -हिन्दी चेतना अंतरजाल पत्रिका लघुकथा विशेषांक  कनाडा  )
माँ (अविराम साहित्यिकी  -लघुकथा विशेषांक )
अनुभूति और परिवर्तन (ब्लॉग -तूलिका सदन sudhashilp.blogspot.com )
आदि  मैंने पढ़ीं ।

विद्या जी ने भी लघुकथा सुनाई -मंगलसूत्र ।जो नारी चेतना का प्रतीक थी ।



साहित्यिकी लघुकथा अंक के बारे में बलराम अग्रवाल ने अपने बहुमूल्य विचार दिए थे वे आगामी अंक 'व्यस्तता के बीच अकेलापन 'में प्रकाशित हो चुके हैं ।


सबके बीच मैं बहुत खुश थी ।काफी समय हो गया था ।अँधेरा घिर आया था ।चाय -नाश्ता करते समय एक दूसरे के संपर्क सूत्र लिए और अपने -अपने घरों की दिशा की ओर  बढ़ गए ।मैं, रेवा जी और किरण जी जनसंसार सभागार से साथ -साथ उतरे ।रेवा जी कार लेने  चली गईं तभी मुझे ध्यान  आया -
 -अरे फोटोग्राफी तो की ही नहीं ।
-किरण जी आप ठीक से खड़े हो जाओ ।एक फोटो तो आपकी खींच लूँ ।
मेरा मान रखने के लिए वे जहाँ थीं वहीं स्थिर हो गईं पर----



 मन में जरूर सोचा होगा --फुटपाथ पर खड़े मुझे यह क्या पागलपन सवार हो गया ।असल में उस क्षण को तो नहीं गँवाना चाहती थी ।
असल में  बीच -बीच में हम बातों में इतने मशगूल हो जाते थे कि कैमरा मोबाइल भी सोते रह गए ।
रेवा जी के आते ही कार में सवार हो गए ।वे तो कार के स्टेयरिंग को घुमा -घुमाकर अपनी कार को भयानक ट्रैफिक से निकालने के चक्कर में थीं पर अपना दिमाग कहीं और चक्कर लगा  रहा था ---जयश्री का घर आते ही रेवा जी से कहूँगी -ज़रा कार से उतरो ।मैंने वैसा ही किया -वे उतरी और मैंने उन्हें खटाक से कैमरे में बंद कर लिया ।


वे  भी मेरी  इस हरकत पर जरूर हँसी होंगी ।क्या करूँ --दिल की आवाज के आगे झुक जाती हूँ ।

रेवा जी को उस रात एक शादी में भी जाना था सो बिलम्ब किये बिना वे चल पड़ी  और  मैं भी मुट्ठी में बहुत कुछ बंद किये जयश्री के घर की सीढ़ियाँ चढ़ गई ।वह मुट्ठी आज तक नहीं खुली है ,इस डर से ---कहीं यादों के सुमन सरक न जाय  ।


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